1960 के दशक तक, जब दुनिया भर में उपनिवेशवाद का दौर खत्म हुआ तो गुलाम देश के लोगों में आजादी और अच्छे भविष्य की उम्मीद जागी. वह बात और है कि बहुत कम ही ऐसे देश थे, जिनके लोगों की उम्मीद और लोकतांत्रिक देश का सपना सच हो पाया.
अफ्रीका महाद्वीप उन में से एक था, जहां लोग आजाद होकर भी आजाद नही हो पाए थे. चूंकि वहां के देशों को जैसे ही अंग्रेजी हुकुमत से आजादी मिली, तो वो आजादी, स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभाने वाले नेताओं की जागीर बन गई!
अफ्रीका में जो स्थानीय नेता आजादी के लिए अंग्रेजो से लड़े थे, अब खुद अंग्रेजों के नक्शे कदम पर चलने लगे. लोकतंत्र की जगह अफ्रीका के कई देशों में तानाशाही स्थापित हुई. एक नेता और एक पार्टी के नेतृत्व में शुरू हुए आजादी के सफर में कई नेता आए, जिन्होने खुद को तानाशाह के तौर पर नियुक्त किया और अफ्रीका की तरक्की का रोड़ा बन गए.
तो आईए अफ्रीका के कुछ ऐसे ही क्रूर तानाशाहों को जानते हैं-
चार्ल्स टेलर (लाइबेरिया)
एक अमीर घराने से ताल्लुक रखने वाले चार्ल्स टेलर ने अमेरिका के बेन्टली कॉलेज से इकनॉमिक्स में डिग्री हासिल की थी, जिसके बाद उसे लाइबेरिया के प्रशासनिक विभाग में काम करने का मौका मिला गया.
यह वही समय था, जब सैम्युअल के डोए ने तख्तापलट कर लाइबेरिया में सत्ता हासिल कर ली थी. प्रशासनिक विभाग में चार्ल्स टेलर पर राष्ट्रपति बन चुके सैम्युअल डोए ने एक मिलियन डोलर के गबन का आरोप लगाया था.
खुद पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से बचने के लिए टेलर फिर अमेरिका भाग गया. हालांकि, वहां उसे पकड़ लिया गया और जेल भेज दिया गया. उस समय किसी ने ही सोचा होगा की चार्ल्स टेलर आने वाले समय में लाइबेरिया का तानाशाह बन बैठेगा और देश को गृह युद्ध की ओर ले जाएगा, लेकिन इससे पहले की उसे अपराधी घोषित किया जाता.
आगे वह जेल से भाग निकला और लीबिया जा पहुंचा. वहां उसकी मुलाकात गद्दाफी से हुई, जिसने उसे नेशनल पैट्रिओटिक फ्रंट ऑफ लाइबीरिया का गठन करने में मदद की. इसी संगठन के साथ चार्ल्स टेलर ने 1989 में लाइबीरिया में हमला कर दिया.
जंग में राष्ट्रपति सैम्युअल डोए की मौत तो हो गई, लेकिन और संगठनों ने टेलर के नेशनल पैट्रिओटिक फ्रंट ऑफ लाइबीरिया को टक्कर दी. इसके चलते लाइबीरिया में गृह युद्ध शुरू हो गया. नजीता यह रहा कि इसमें 1,50,000 लोगों की जान चली गई.
साथ ही आधे से ज्यादा आबादी शर्णाथियों बनने पर मजबूर हो गई.
देश को गृहयुद्ध में धकेलने के बाद चार्ल्स टेलर नाम मात्र के चुनाव करा कर राष्ट्रपति बन बैठा. बावजूद इसके देश में युद्ध जैसी स्थिति बनी रही. संयुक्त राष्ट्र संघ ने लाइबीरिया पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए.
चार्ल्स टेलर के नेतृत्व वाली सरकार को मानवाधिकार उल्लंघन करने का दोषी पाया गया, जिसकी दुनिया भर में आलोचना की गई. संयुक्त राष्ट्र संघ की तरफ से चार्ल्स टेलर पर दबाव बनाया गया और 2003 में उसे को देश निकाला दे दिया गया.
President of Liberia Charles Taylor (Pic: Toronto Star)
अबीदीन बेन अली (ट्युनिशिया)
हमेशा शांत और शालीन दिखने वाले अबीदीन बेन अली ने अपनी आवाज को बुलंद करना तब शुरू किया, जब ट्युनिशिया के तानाशाह बुर्गिबा ने बेन अली पर भरोसा करते हुए 1987 में उसे प्रधानमंत्री के तख्त पर बिठाया.
इसी क्रम में बेन अली ने 7 नवंबर को 11 चिकित्सकों की टीम से एक करार पर हस्ताक्षर करवाएं कि बुर्गिबा खराब स्वास्थ्य के कारण अब राष्ट्रपति की जिम्मेदारियां निभाने के लायक नहीं रहे हैं.
साथ ही बेन अली ने ट्युनीशिया के लोगों को एक स्वस्थ लोकतंत्र का सपना दिखाया. उसने सभी राजनीतिक बंदियों को छोड़ दिया और विपक्ष पार्टी को सत्ता में जगह देने की बातों के बल पर देश के पहले तथाकथित लोकतांत्रिक चुनाव में जीत हासिल की.
बेन अली ने जनता के विश्वास के चलते कुछ सुधार जरूर किए, लेकिन उन्हें हमेशा एक दायरे में रखा, जिससे उसकी सत्ता पर कोई आंच न आ सके. मानवाधिकारों के उल्लंघन ने कुछ ही समय बाद बेन अली के मॉडर्न ख्यालों की पोल खोल दी.
वहीं कई देशों ने तो चुनावों में बेन अली की लगातार जीत पर भी सवाल उठाए थे.
जनता ने विरोध का स्वर उठाना शुरू किया तो कारगार फिर राजनीतिक कैदियों से भरने लगे. देश में भ्रष्टाचार जहर की तरह फैल रहा था. अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही थी, लेकिन देश और दुनिया को इसकी खबर देने वाली मीडिया के मुंह पर बड़ा सरकारी ताला मार दिया गया, जो हर तानाशाही में अहम भूमिका निभाता है.
ट्यूनीशिया की तानाशाही के खिलाफ देश की मीडिया ने मौन रहकर और सरकार की नाकामियों पर लोगों के गुस्से को विदेशी हस्तक्षेप करार दिया. वहीं सोशल मीडिया ने विश्व को ट्यूनीशिया के लोगों के आंदोलन से परिचित कराने में अहम भूमिका निभाई.
कई तरह की वेबसाइट और ब्लॉग शुरू हुए, जो क्रांति को तब तक से फैलाने में मदद करते जब तक सरकार उन्हें अवैध घोषित कर ब्लॉक नहीं कर देती. ऐसे ब्लॉगर्स को 5 साल तक जेल की सजा दी जाती.
ट्यूनीशिया की क्रांति में सबसे ज्यादा भूमिका और बलिदान से शहर में दिया वह केसरीन शहर था, जहां पुलिस और सुरक्षा बलों ने अपने ही नागरिकों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई थीं. पुलिस न सिर्फ उन लोगों पर गोलियां बरसाई रही थी, जो प्रदर्शनों में हिस्सा ले रहे थे, बल्कि वह छतों पर खड़े लोगों पर और प्रदर्शन देख रहे लोगों में भी खौफ के लिए उन्हें अपना निशाना बना रही थी.
ट्यूनीशिया में स्वस्थ लोकतंत्र के लिए और बुनियादी सुविधाओं के लिए, जो लड़ाई भ्रष्टाचार से तंग आकर एक नौजवान फल बेचने वाले मोहम्मद बौजिजी के आत्मदाह से 18 दिसंबर 2010 को शुरू हुई थी.
वह 14 जनवरी 2011 को तब समाप्त हुई, जब बान अली देश छोड़कर सऊदी अरब भाग गया.
Zine El Abidine Ben Ali (Pic: The Carroll News)
मुअम्मर अल गद्दाफी (लीबिया)
1969 में जब लीबिया में सेना ने वहां की तानाशाही का सफलतापूर्वक तख्तापलट किया, तो उस समय गद्दाफी भी सेना का हिस्सा था.
तख्तापलट के बाद मुअम्मर अल गद्दाफी ने खुद को एक बड़े नेता के तौर पर उभरा. उसने अपनी छवि लीबिया के राष्ट्रपिता के तौर पर बनाई, जो भगवान से कम नहीं थी. 1942 में जन्मे मुअम्मर अल गद्दाफी ने मात्र 27 साल की उम्र में लीबिया के सबसे बड़े नेता का दर्जा हासिल कर लिया था.
शीत युद्ध के समय उसने भारत की तरह ही गुटनिरपेक्षता आंदोलन में हिस्सा लिया. उसने अफ्रीका, अरब, इस्लाम और गैर औपनिवेशिक विचारधारा से प्रभावित एक राजनैतिक फिलॉसफी को अपनाया था. उसका मानना था कि वह एक ऐसी व्यवस्था को तैयार करेगा, जो वामपंथ और पूंजीवाद को टक्कर देगी.
गद्दाफी ने संयुक्त अफ्रीका के विचार को आगे बढ़ाया, जिसमें पूरे अफ्रीका की एक आर्मी, एक करेंसी और पूरे अफ्रीका में एक पासपोर्ट का प्रस्ताव शामिल था. यही वजह थी कि 2008 में हुई अफ्रीका के राजाओं की मीटिंग में उसे अफ्रीका महाद्वीप के राजाओं का राजा होने की उपाधि मिली.
हालांकि, 1980 के आते-आते लीबिया में गद्दाफी के खिलाफ प्रदर्शन होने शुरू हो गए थे. उस पर तानाशाहों की तरह अपना फरमान थोपने जैसे आरोप लगने लग गए थे. लीबिया की दो जगह बेंगाजी और त्रिपोली गद्दाफी के खिलाफ प्रदर्शन करने में सबसे आगे थे.
अपने गैर औपनिवेशिकवादी उसूलों के चलते गद्दाफी ने कई देशों की आजादी की लड़ाई में मदद की कोशिश की, जिसमें कोलंबिया और आयरलैंड शामिल थे, लेकिन इन कोशिशों से वो कई देशों के लिए आफत भी बन गया था.
1986 में बर्लिन में हुए धमाके, जिसमें दो अमेरिकी सैनिकों की जान भी चली गई थी, उसमें लीबिया को भी जिम्मेदार ठहराया गया था. इसी वजह से अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने गद्दाफी को पागल कुत्ता भी कह दिया था.
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के आलोचक गद्दाफी ने संयुक्त राष्ट्र संघ की जनरल असेंबली को संबोधित करते हुए सुरक्षा परिषद की तुलना अलकायदा से कर दी थी. वही गद्दाफी ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद पर तानाशाह होने का आरोप लगाया था.
2009 में बाकी अफ्रीकी देश, जिसमें ट्यूनीशिया और मिस्र शामिल थे. वहां तानाशाही के खिलाफ क्रांति हो रही थी. उससे लीबिया भी प्रभावित हुआ और गद्दाफी की तानाशाही के खिलाफ सबसे पहले प्रदर्शन वहीं शुरू हुआ.
1980 से गद्दाफी की जरूरत से ज्यादा सख्त फैसले के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे थे. वह जगह थी बेंगाजी. प्रदर्शनकारियों पर गद्दाफी की सेना ने अंधाधुंध गोलियां चलाई घरों पर बम गिराए गए.
आगे 23 जून को बड़े स्तर पर हुए नरसंहार के आधार पर अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय ने गद्दाफी और उसके बेटे के खिलाफ कार्रवाई करते हुए उनके खिलाफ सर्च वारंट जारी किया, जिसके बाद 2011 में लीबिया के सिर्त में उसे मार दिया गया.
Libyan leader Moammar Gadhafi (Pic: thetimesofisrael)
न सिर्फ लाइबेरिया, ट्युनिशिया और लीबिया बल्कि अफ्रीका के कई और देशों ने भी तानाशाही की मार झेली है. हमेशा तरक्की की राह में कांटों की तरह चुभने वाली राजनैतिक अस्थिरता और धार्मिक कट्टरपन ने अफ्रीका के लोगों के अधिकारों को कुचला है.
हालांकि, समय-समय पर होने वाले प्रदर्शन और लोगों के साहस ने दुनिया को ये दिखाया है कि वो अपने देश में लोकतंत्र स्थापित करने को लेकर कितने संघर्षरत हैं।
Web Title: Africa’s Cruel Dictators, Hindi Article
Featured Image Credit: PPcorn