21वीं सदी में तकनीकी क्षेत्र में इतना ज्यादा विकास हो चुका है कि हर असंभव से दिखने वाले कार्य को संभव बना लिया जाता है.
आज दुनिया के तमाम देश युद्ध लड़ने में सक्षम हैं. जल हो या थल या हो आसमान! भारी से भारी यंत्रों, हथियारों को तकनीक की सहायता से आसानी से उस मंजिल तक पहुंचा दिया जाता है.
लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ऐसा नहीं था. तब तकनीक आज के मुकाबले बहुत पीछे थी.
ऐसे में सैनिकों ने हथियारों और गोला बारुद को इधर से उधर करने व लश्करों तक जरूरी सहायता पहुंचाने के लिए जानवरों का व्यापक तौर पर इस्तेमाल किया था.
ऐसे में ये जानना दिलचस्प हो जाता है कि वह कौन से जानवर थे, जो प्रथम विश्व युद्ध में सैनिकों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करते थे.
आइए इस लेख के माध्यम से उन जानवरों के बारे में जानते हैं –
सबसे ज्यादा मददगार रहे ‘घोड़े’
प्रथम विश्व युद्ध में यदि सबसे ज्यादा कोई मददगार पशु रहा तो वह था घोड़ा.
युद्ध में जैसी जरूरत पड़ी, वैसे घोड़ों से मदद ली गई. उसी समय विश्व युद्ध में शामिल कई देशों ने घोड़ों की जमकर खरीदारी भी की, तो वहीं सैनिकों ने घोड़ों को युद्ध में मददगार बनाने के लिए प्रशिक्षण दिए.
घोड़े आमतौर पर सैनिकों की तुलना में खराब परिस्थितियों में भी मददगार साबित हुए.
प्रथम विश्व युद्ध में लगभग 136,000 से अधिक ऑस्ट्रेलियाई घोड़ों ने मदद की थी. यह घोड़े मूल रूप से न्यू साउथ वेल्स के थे. इन मजबूत, शक्तिशाली घोड़ों को ‘वालर्स’ के रूप में जाना जाता था.
वहीं, प्रथम विश्व युद्ध में शामिल देशों की मदद के लिए ब्रिटिश सेना में लगभग 500,000 घोड़े थे.
घोड़ों को मुख्य रूप से गोला-बारूद और अन्य रसद सामग्री को इधर उधर करने के साथ-साथ संदेश पहुंचान के लिए इस्तेमाल किया गया.
इतना ही नहीं तोपखानों, एम्बुलेंस और भारी वाहनों को खींचने के लिए भी इनकी मदद जी गई. एक अनुमान के मुताबिक ब्रिटिश घोड़े हर महीने लगभग 34,000 टन मांस और 45,000 टन रोटी वितरित करने में लगाए गए थे.
वैसे, युद्ध में घोड़ों की देखभाल की पूरी व्यवस्था का ख्याल रखा जाता था.
लगातार हो रहे बम विस्फोटों और जहरीली गैसों के हमले में घोड़ों को सांस लेने में सक्षम बनाने के लिए विशेष प्रकार के ‘नाक प्लग’ बनाए गए थे. घायल घोड़ों के उपचार के लिए डॉक्टर भी रखे गए थे.
युद्ध में इनका इस्तेमाल करने के लिए प्रशिक्षण भी दिया जाता था, लेकिन इन सब के बावजूद भी एक अनुमान के मुताबिक प्रथम विश्व युद्ध में लगभग 80 लाख घोड़ों की मौत हुई थी.
German soldiers with a horse mounted with M1910 machine Gun. (Pic: Rare Historical Photos)
‘कुत्तों’ का भरोसा भी कम न था!
जानवरों में अगर इंसान का सबसे भरोसेमंद साथी है तो वह कुत्ता ही है.
कुछ ऐसे ही कुत्ते प्रथम विश्व युद्ध में सैनिकों के सबसे भरोसेमंद साथी बने गए थे.
वैसे तो युद्ध में कई प्रकार के कुत्तों को शामिल किया गया था, लेकिन सबसे लोकप्रिय कुत्ते मध्यम आकार वाले डॉबरमैन, पिंसर और जर्मन शेफर्ड आदि थे.
टेरियर्स जैसी छोटी नस्लें, खाइयों में चूहों की तलाश करने और उन्हें मारने के लिए प्रशिक्षित की गईं थीं.
बेहद शांत और अनुशासित प्रकृति वाले स्काउट कुत्तों को अत्यधिक प्रशिक्षित किया गया था. इनकी मदद गश्ती के दौरान ली जाती थी.
इनमें सूंघने की क्षमता लाजवाब थी, यह दुश्मन को उसकी गंध से पहचान लेते थे. और अपनी पूंछ हिलाकर सैनिक साथी को दुश्मन की मौजूदगी के बारे में बताते थे.
कुछ कुत्ते युद्ध के दौरान घायल सैनिकों की मदद में लगा दिए जाते थे, इन कुत्तों की पीठ पर उपचार की लगभग सभी दवाइयां बंधी रहती थीं, जो घायल सैनिकों के लिए चिकित्सा आपूर्ति करने में मदद करते थे.
कुछ कुत्ते गंभीर रूप से घायल सैनिकों के साथ तब तक रहते थे, जब तक सैनिक की मृत्यु नहीं हो जाती थी.
कुछ कुत्ते ज़हरीली गैस की संवेदनशीलता को आसानी से समझ जाते थे और भौंक कर साथी सैनिक को आगे बढ़ने से पहले सचेत कर देते थे.
सेंट्री और डॉबरमैन कुत्ते सैनिक या गार्ड के साथ रहते थे, जब भी कोई अजनबी शिविर के नजदीक महसूस होता था तो कुत्ते भौंक कर सैनिकों को सजग कर देते थे.
Dogs at First World War. (Pic: Twitter)
संदेश ले जाने में माहिर ‘कबूतर’
आज संदेश भेजने के लिए तमाम तरह के आधुनिक गैज़ेट उपलब्ध हैं, लेकिन प्रथम विश्व युद्ध में संचार साधनों का इतना विकास नहीं हुआ था. तब संदेश भेजने के लिए कबूतरों को सबसे माहिर पक्षी माना जाता था.
एक अनुमान के मुताबिक प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लगभग 100,000 कबूतरों का इस्तेमाल संदेश दूतों के रूप में किया गया था.
इनके प्रशिक्षण के दौरान जहां कबूतरों को संदेश ले जाना होता था, वहां उनका घोंसला बना दिया जाता, जिससे कबूतर आसानी से संदेश लेकर अपनी मंजिल तक पहुंच जाते थे.
युद्ध के दौरान लगभग 95 प्रतिशत कबूतर सही तरीके से संदेश पहुंचाने में सफल साबित हुए थे. उड़ते समय बेहद शांत रहने वाला कबूतर शोर के बीच में से भी संदेश पहुंचाने में सफल हो जाता था.
उस समय कुछ कबूतरों के गले में पट्टे के रूप में कैमरा बांध दिया जाता था और दुश्मन के इलाकों के ऊपर छोड़ दिया जाता.
कबूतर उस इलाके से तस्वीर उतार लाते, जिससे सैनिक को दुश्मन के इलाके को भेदने में आसानी होती थी. वहीं, कबूतर नौसेना के जहाजों के डूबने और सैन्य विमानों की दुर्घटना के समय वहां से उड़कर संदेश वाहक के रूप में मदद करते थे.
A pigeon with a small camera attached used in First World War. (Pic: Rare Historical Photos)
‘चूहे’ भी किसी से कम नहीं..
सबसे छोटे जानवर के रूप में पहचाने जाने वाले चूहे भी प्रथम विश्व युद्ध में सैनिकों की खूब सहायता करते रहे.
चूहे अन्य जानवरों की तुलना में जमीन के किसी भी हिस्से में, खाई हो या सुरंग आसानी से प्रवेश कर जाते हैं. इसी का फायदा प्रथम विश्व युद्ध में सुरंगों में छिपे सैनिकों का पता लगाने के लिए उठाया गया.
यहां तक कि किसी सुरंग में जाने से पहले जहरीली गैस से बचाव के लिए वहां पहले चूहों को भेजा जाता था. इस काम में सफेद चूहे सबसे ज्यादा मददगार साबित हुए. इनकी बढ़ी हुई दिल की धड़कन की गति खतरे की तरफ इंगित करती थी.
सैनिक अपने दुश्मन की सुरंगों और खाइयों में चूहों को छोड़ देते थे, वहां यह दुश्मन सैनिकों के लिए परेशानी का सबब बन जाते थे. उनके खाने के सामान को बर्बाद कर देते थे, बंद बोरों में रखे खाद्य पदार्थों को कुतर जाते और यहां तक कि सैनिकों के शरीर पर घाव भी कर देते थे. जिससे बाद सैनिक बीमार पड़ जाते और उनकी मौत हो जाती थी.
Belgian preparing animals to use in War. (Pic: Rare Historical Photos)
परिवहन का बेहतरीन साधन थे ‘ऊंट’
युद्ध में घुसपैठ की खबर सबसे ज्यादा रेगिस्तानी क्षेत्रों से ही आती थी, यहां न तो कोई सड़क और ना ही दूर दूर तक पानी की व्यवस्था थी.
ऐसे में तेजी से मोर्चा संभालने और रेगिस्तान की दुर्लभ समस्याओं से निजात पाने के लिए ऊंटों का इस्तेमाल किया गया.
सिनाई और फिलिस्तीन में ऊंट बहुत उपयोगी रहे. रेगिस्तानी क्षेत्रों में सैनिकों के लिए पानी ले जाने की समस्या को ऊंट दूर कर देते थे. साथ ही गद्देदार पैर होने के वजह से रेगिस्तान में गश्त करने के लिए ये सबसे ज्यादा मददगार जानवर रहे.
ऊंट एक बार में पानी पीकर लगभग चार-पांच दिन तक बिना पानी के रेगिस्तान में रह लेते हैं. इसी वजह से युद्ध में सैनिकों ने रेगिस्तानी क्षेत्रों के लिए ऊंटों को चुना. वहीं, ऊंट एक बार में लगभग 145 किलोग्राम तक का भार आसानी से पीठ पर रखकर चलने में माहिर होते हैं. साथ ही ऊंट प्रति घंटे 5 से 9 किलोमीटर तक यात्रा करने में सक्षम थे, इसीलिए प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ऊंटों से भरपूर मदद ली गई.
1916 में ऊंटों के फायदे को देखते हुए ‘इंपीरियल कैमल कॉर्प्स ब्रिगेड’ का गठन किया गया था, जिसमें चार रेजिमेंट थीं. प्रत्येक रेजिमेंट में लगभग 770 पुरुष और ब्रिगेड में लगभग 4,000 ऊंट थे.
A Soldier at Red Crescent Hospital at Hafir Aujah. (Pic: Rare Historical Photos)
इन ऊंटों का इस्तेमाल युद्ध के समय मोर्च पर उपचार सहायता और घायल सैनिकों को अस्पताल पहुंचाने में भी किया गया.
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मशीनों ने कम और जानवरों ने सबसे ज्यादा योगदान दिया था. इसी के साथ ये तय है कि जानवर मनुष्य के सहायक हैं और उनका समय के अनुसार विभिन्न प्रकार से उपयोग किया जा सकता है.
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Web Title: Animals Played Crucial Role in World War One, Hindi Article
Feature Image Credit: World War I