यूरेशिया के दक्षिण कोकेशिया में एक देश है. नाम है अरमेनिया.
इसके वजूद सीधे तौर पर नूह (इसाइयों के मतानुसार जब जल-प्रलय आया था, तो नूह ने एक विशाल कश्ती बनाई थी और पशु-पक्षियों के जोड़ों को कश्ती में रख लिया था, ताकि नई दुनिया बसाई जा सके) के वंशजों से है.
यह विडम्बना ही है कि निर्माण के प्रतीक नूह के वंशजों के बसाए अरमेनिया पर बीसवीं शताब्दी में मजहबी रक्तपात का सुर्ख धब्बा चस्पां हो गया.
तारीख में यह रक्तपात ‘अरमेनियन जनसंहार’ के नाम से दर्ज है.
कहते हैं कि इस्लामिक ओटोमान साम्राज्य ने 10 लाख से ज्यादा अरमेनियाई अल्पसंख्यकों (इसाइयों) को मौत के घाट उतार दिया था!
कुछ इस तरह वजूद में आया ‘अरमेनिया’
पौराणिक किस्सों में अरमेनिया का अस्तित्व नूह के वंशजों से जुड़ा हुआ है. लेकिन, ऐतिहासिक साक्ष्य के मुताबिक, राष्ट्र के बतौर अरमेनिया का वजूद ईसा पूर्व 190 में आया था.
उन दिनों वहां सेल्यूसिड साम्राज्य कायम था. ईसा पूर्व 190 से कुछ वर्ष पहले ही इस साम्राज्य के तहस-नहस होने के बाद अरमेनिया एक राष्ट्र के तौर पर उभरा था.
उस वक्त अरमेनिया दो हिस्सों में बंटा हुआ था. मुख्य हिस्से को ग्रेटर अरमेनिया कहा जाता था. सीरिया व अन्य भूखंडों को मिलाकर इसका काफी विस्तार कर लिया गया था.
वजूद में आने के बाद अरमेनिया उत्तरोत्तर विकास करने लगा. एक वक्त ऐसा भी आया, जब रोम के पूर्वी दिशा के देशों में यह सबसे ताकतवर मुल्क माना जाने लगा था.
ईसा पूर्व 66 में रोम गणराज्य के साथ घमासान हुआ, जिसमें अरमेनिया की शर्मनाक हार हुई. लेकिन, बहुत जल्दी ही अरमेनिया इस युद्ध से उबर गया और खुदमुख्तार भी हो गया.
हालांकि, बाद में यह देश दोबारा रोम प्रशासन का हिस्सा बन गया.
चूंकि उस दौर में एक मुल्क का दूसरे मुल्क पर हमला आम घटना थी, तो अरमेनिया पर भी बाहरी हमले खूब हुए और इसकी बागडोर एक के बाद एक कई सुलतानों हाथों में जाती रही.
Norovank, a 13th Century Armenian Monastery (Pic: studycountry)
जब ओटोमान साम्राज्य ने संभाली बागडोर
अरमेनिया में शुरुआत के दिनों में मजहब दोयम दर्जे की चीज हुआ करता था और तब तक जनसंहार जैसी कोई घटना नहीं हुई थी.
चौथी शताब्दी वह कालखंड है जिसमें इस वीभत्स जनसंहार की नींव पड़ी थी.
दरअसल, चौथी शताब्दी में यानी सन् 301 में अरमेनिया की हुकूमत ने ईसाइत को यहां का आधिकारिक राष्ट्रीय मजहब घोषित कर दिया था. इस तरह किसी मजहब को आधिकारिक दर्जा देनेवाला अरमेनिया विश्व का पहला देश बन गया.
हालांकि, इसके बाद भी वहां सबकुछ हस्बमामूल चल रहा था.
यहां सबसे बड़ा बदलाव 15वीं शताब्दी में देखने को मिला, जब अरमेनिया में इस्लामिक ओटोमान सल्तनत की हुकूमत शुरू हुई.
ओटोमान सल्तनत का जिक्र आया है, तो कुछ बातें इसकी भी कर लेते हैं.
ओटोमान साम्राज्य की स्थापना तुर्की आदिवासी नेता ओसमान-1 ने सन् 1299 में की थी.
‘ओटोमान’ असल में ‘ओसमान’ का अरबी उच्चारण है.
बहरहाल, एक आदिवासी नेता द्वारा शुरू किये गये इस साम्राज्य ने विश्व के इतिहास में सबसे लंबे समय यानी करीब 600 सालों तक शासन किया था. ओटोमान का शासन मध्य-पूर्व, पूर्वी यूरोप और उत्तरी अफ्रीका तक फैला था.
इस साम्राज्य के मुखिया को सुलतान कहा जाता था और सुलतान को अपने शासन क्षेत्र में राजनीतिक व धार्मिक कायदा-कानून लागू करने की पूरी आजादी थी.
इतिहासकारों के अनुसार ओटोमान के शासन के समय स्थिरता रही और कला, संस्कृति व विज्ञान के क्षेत्र में काफी प्रगति हुई. खैर…!
The Ottoman Empire (Pic: The Economist)
ऐसे पड़ी थी जनसंहार की नींव
अरमेनिया में भले ही इसाइयत को राष्ट्रीय मजहब का दर्जा मिला था, लेकिन ओटोमान साम्राज्य था तो इस्लामिक ही. राजधर्म निभाते हुए शुरुआत में अरमेनियनों यानी इसाइयों को कुछ आजादी जरूर दी गयी, लेकिन साथ ही उन्हें काफिर भी माना जाता था.
इस वजह से उनके साथ भेदभाव शुरू हो गया. अरमेनिया में रहने वाले इसाइयों को मुस्लिमों की तुलना में अधिक टैक्स चुकाना होता था, जबकि राजनीतिक व कानूनी हक-ओ-हुकूक नहीं के बराबर थे.इन सबके बावजूद इसाई मेल-मिलाप से रहे और शिक्षा, प्रशासनिक सेवा समेत तमाम क्षेत्रों में उन्होंने कामयाबी के परचम लहराए.
इसाइयों का ज्यादा समृद्ध होना तुर्कों को रास नहीं आ रहा था और इसी बीच एक संदेह भी घर कर गया. असल में ओटोमान सल्तनत को लगने लगा था कि अरमेनिया के मूल निवासी इसाइयों का रुझान रूस की इसाई सरकार की ओर है. यह संदेह दिनोंदिन बढ़ता ही गया.
इस बीच सन् 1914 में पहला विश्वयुद्ध भी शुरू हो गया. तुर्कों ने जर्मनी की तरफ से इस युद्ध में लड़ा. रूस दूसरे गुट में था. उस वक्त करीब 40 हजार अरमेनियम तुर्की सेना में शामिल थे.
एक तरफ विश्वयुद्ध में एक देश दूसरे देश से दो-दो हाथ कर रहे थे, तो दूसरी तरफ अरमेनिया के मिलिटरी लीडर इसाइयों के खिलाफ कमर कस रहे थे.
सैन्य अधिकारियों ने अरमेनिया में रह रहे इसाइयों को राजद्रोही साबित करने और उनके खिलाफ जनभावनाओं को भड़काने के लिए तरह-तरह के ‘फर्जी’ तर्क गढ़ने शुरू कर दिए.
इन तर्कों को मजबूती तब मिली, जब कथित तौर पर इसाइयों ने तुर्कों के खिलाफ लड़ रही रूसी सेना की मदद के लिए स्वंयसेवक लड़ाकों को तैयार करना शुरू किया.
ओटोमान साम्राज्य को इसकी जानकारी मिली, तो अरमेनियनों यानी इसाइयों को युद्धस्थल से हटा दिया.
…और इस तरह जनसंहार की मजबूत जमीन तैयार हो गई.
Armenian Genocide (Pic: history)
तुर्कों ने बर्बरता के सारे पैमाने तोड़ दिए
24 अप्रैल 1915. यही वह निर्णायक तारीख थी, जब तुर्कों ने अरमेनियनों की नृशंस हत्या का सिलसिला शुरू किया था. पहले दिन अरमेनियन बुद्धिजीवियों की हत्या की गई. इससे अरमेनियन नागरिकों का खून खौल गया, लेकिन ओटोमान साम्राज्य के सामने उनकी क्या ही चलती, लिहाजा वे चुप रहे.
इधर, अरमेनियनों की चुप्पी बढ़ रही थी और दूसरी तरफ शासक का अत्याचार.
कहते हैं कि लोगों को घरों से बाहर निकाल कर भूखे-प्यासे मेसोपोटामिया के रेगिस्तान में भटकने को छोड़ दिया गया. भूख-प्यास से बिलबिलाकर लोगों ने रेगिस्तान में ही दम तोड़ दिया. बहुत सारे लोगों को निर्वस्त्र कर कड़ी धूप में घूमने के लिए भेज दिया गया. कोई व्यक्ति रास्ते में रुक जाता, तो उसे गोली मार दी जाती.
क्रूरता की इंतहा तो तब हो गई, जब इसाइयों की हत्या के लिए अलग से ‘हत्यारा दस्ता’ तैयार किया गया. ये दस्ता हत्या की नई तरकीबें तलाशता. दस्ते के क्रूर लोग इसाइयों को नदियों में डूबा देते, जिंदा जला देते और सलीब पर चढ़ाते.
दस्ते के वहशी अभियान के कारण गांव दर गांव शवगृह में तब्दील हो गये थे!
जनसंहार का यह अभियान सन् 1922 तक चला. इस दौरान इसाइयों को इस्लाम कबूल करने को भी मजबूर किया गया. महिलाओं से बलात्कार किया गया और मारे गये लोगों की संपत्तियों पर कब्जा कर लिया गया. एक अनुमान के अनुसार, अरमेनिया में करीब 20 लाख इसाई थे, जो जनसंहार के बाद घटकर 3 लाख 88 हजार रह गए.
Armenian Genocide (Pic: The Forward)
इतिहास में सबसे जघन्यतम हत्याओं में शामिल अरमेनियन जनसंहार की सीख यही है कि राजधर्म में मजहब का घालमेल और धार्मिक कट्टरता मानव सभ्यता के लिए बेहद घातक है.
Web Title: Story of Armenian Genocide, Hindi Article
Feature Image Credit: Wikipedia