15 अगस्त 1975 की अल-सुबह, भोर भी नहीं हुआ था कि बांग्लादेश की राजधानी 'ढाका' के धनमंडी की सड़क नंबर 32 पर कुछ चहलकदमों की आवाज आने लगी. इसी सड़क पर बने मकान नंबर 677 को बांग्लादेश के कुछ बागी सेना के जवानों ने घेर लिया था.
उस समय घर पर सन्नाटा पसरा हुआ था और सभी सदस्य गहरी नींद में सो रहे थे.
अचानक सैनिकों ने सन्नाटे को चीरते हुए ताबड़तोड़ गोलियां बरसानी शुरू कर दीं. वह तुरंत ही घर के अंदर घुस गए और एक-एक कर सभी सदस्यों को मौत के घाट उतार दिया.
और सभी हथियारबंद लड़ाके अपनी बंदूक को लहराते हुए कहने लगे कि 'अब पूरा वंश खत्म' और ये कहते-कहते घर से बाहर निकल गए.
अब वहां फिर से सन्नाटा पसर गया था.
जी हां! ये कोई आम घर नहीं था, जिस पर इतनी आसानी से कुछ सैनिकों ने हमला कर दिया. ये बांग्लादेश के राष्ट्रपति शेख मुजीबुर रहमान का घर था. ये केवल एक राष्ट्रपति की असाधारण हत्या ही नहीं थी, बल्कि इस कत्लेआम ने उनके पूरे परिवार को खत्म कर दिया था.
ऐसे में जानना दिलचस्प हो जाता है कि आखिर कैसे बांग्लादेश के राष्ट्रपति के साथ-साथ उनके पूरे परिवार की हत्या कर दी गई.
कब, क्या और कैसे हुआ आइए जानते हैं –
बांग्लादेश की आजादी के सूत्रधार 'मुजीबुर रहमान'
7 मार्च 1971 के दिन, ढाका के रेसकोर्स मैदान में करीब दस लाख लोग हाथों में डंडे लेकर इकट्ठा हुए. ये भीड़ पाकिस्तान से बांग्लादेश की आज़ादी की मांग कर रही थी.
इस भीड़ का नेतृत्व कर रहे थे शेख मुजीबुर रहमान.
उस दिन पाकिस्तानी सैनिकों ने बलपूर्वक आजादी की इस मांग को दबा तो दिया, लेकिन एक बार फिर 25 मार्च 1971 को 'बंगबंधु' के नाम से विख्यात 'शेख मुजीब' ने हुंकार भरी.
उन्होंने कहा कि "मैं बांग्लादेश के लोगों का आह्वान करता हूं, कि वह जहां भी हों और जो भी उनके हाथ में हो, उससे पाकिस्तानी सेना का प्रतिरोध करें. आपकी लड़ाई तब तक जारी रहनी चाहिए, जब तक पाकिस्तानी सेना के एक-एक सैनिक को बांग्लादेश की धरती से निकाल नहीं दिया जाता."
संघर्षों का एक लंबा दौर चला और फिर दिसंबर 1971 में भारत के सैन्य हस्तक्षेप के बाद बांग्लादेश को पाकिस्तान से आजादी मिली.
खुद को आजीवन राष्ट्रपति बनाने की घोषणा
अब बांग्लादेश आज़ाद हो चुका था, लेकिन मुजीब पाकिस्तान की गिरफ्त में थे.
इसी बीच 8 जनवरी 1972 को पाकिस्तान ने मुजीबुर रहमान को रिहा कर दिया. मुजीब वहां से लंदन गए और फिर 9 जनवरी की शाम दिल्ली होते हुए ढाका पहुंचे. बांग्लादेश पहुंचते ही उन्होंने खुद को राष्ट्रपति घोषित कर दिया.
अगले कुछ वर्षों तक सब कुछ ठीक चला.
लेकिन पूरे मुल्क को अपनी मुट्ठी में रखने का प्रयास करना किसी भी नेता के लिए जानलेवा हो जाता है. और कुछ ऐसा ही प्रयास मुजीब ने भी किया.
मुजीब ने देश में एकदलीय शासन प्रणाली लागू कर दी. इतना ही नहीं, सरकारी अखबारों के प्रकाशनों को छोड़कर सभी अखबारों पर प्रतिबंध लगा दिया गया. मुजीब ने हद तो तब कर दी जब 1975 में एक संवैधानिक संशोधन किया गया, जिससे बांग्लादेश में आपातकाल जैसी स्थिति हो गई.
यह सब कुछ देश के और नेताओं और सेना के एक तबके को नागवार गुजरा.
आने वाले समय में इसका नतीजा इतना बुरा होगा कि शेख साहब ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा.
कत्लेआम की 'काली रात'
15 अगस्त 1975 की सुबह ढाका के धनमंडी में राष्ट्रपति शेख मुजीबुर रहमान के मकान को बांग्लादेश के कुछ बागी सेना के अफसरों ने सैनिकों के साथ मिलकर घेर लिया. उस समय वह अपने परिवार के सदस्यों के साथ सो रहे थे.
उस दिन मुजीब के निजी सचिव एएफएस मोहितुल इस्लाम रात लगभग एक बजे सोने ही गए थे कि अचानक उन्हें शेख मुजीब का फोन आया.
उन्होंने उनसे पुलिस कंट्रोल रूम में फोन लगाने को कहा. उन्हें सूचना मिली थी कि उनके साले के घर पर हमला किया गया है. उन्होंने पुलिस से संपर्क की कोशिश की लेकिन लाइन नहीं मिली. इसके बाद फिर कई जगहों पर कई बार कॉल किया गया लेकिन कोई फोन नहीं लगा.
शेख साहब माजरा समझ पाते इससे पहले ही गोलियों की बौछार शुरू हो गई और कमरे की सभी खिड़कियों के सारे शीशे टूट कर बिखर गए.
...और मार डाला शेख साहब को
अपनी हुकूमत से बगाबत कर चुके हथियारबंद सैनिक उनके घर में दाखिल हुए और फिर उस घर पर ऐसा कहर बरपा, जिसे जानने के बाद लोगों की रूह आज भी कांप जाती है.
शेख मुजीबुर रहमान को इस बात का बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था कि सेना के बागी सिपाही उनकी हत्या के लिए ऐसे साजिश रचेंगे.
घर में घुस चुके सैनिक हर कमरे की तलाशी ले रहे थे और जो भी कोई सामने आया, उसे मौत की नींद सुला दिया.
बड़े बेटे और सुरक्षाकर्मियों को मारने के बाद सैनिक ऊपर सीढ़ी चढ़ने लगे. तभी उन्हें सफेद लिबास पहने शेख साहब दिखाई दिए.
वे आगे बढ़े, उधर से मेजर नूर ने पूरी स्टेन गन मुजीबुर रहमान के ऊपर खाली कर दी.
मुजीब की हत्या की साजिश रचने के पीछे सबसे बड़ा हाथ खांडेकर मोशताक का था. जो मुजीब का करीबी रिश्तेदार भी था और हत्या के बाद बांग्लादेश का राष्ट्रपति भी बना.
परिवार का खात्मा!
बांग्लादेश के राष्ट्रपति शेख मुजीबुर रहमान की हत्या हो चुकी थी.
इसके बाद सैनिक दूसरे कमरे की ओर बढ़े और वो उनकी पत्नी के पास पहुंच गए. सैनिक उन्हें नीचे ले जाना चाहते थे, लेकिन अपने पति की लाश देख फजीलातुन्निसा वहीं रुक गई और सैनिकों से कहा कि उन्हें भी यहीं पर गोली मार दी जाए.
इसके लिए सैनिक पहले से तैयार थे और उन्होंने उन्हें गोली मार दी. इसके बाद शेख साहब के 10 साल के बेटे रसेल की भी हत्या कर दी गई.
उस घर में मौजूद परिवार के सभी सदस्यों की हत्या हो चुकी थी, लेकिन शेख साहब की दो लड़कियां अभी भी जिंदा थीं.
बागी सैनिकों ने जीत का जश्न मनाया, लेकिन उन्हें नहीं पता था कि उनकी बेटियों में से एक आगे प्रधानमंत्री बनेगी और उन्हें अपने कर्माें का फल भुगतना होगा.
शेख मुजीबुर रहमान की दो बेटियां शेख हसीना और शेख रेहाना संयोगवश घटना के समय देश से बाहर थीं, घटना के तुरंत बाद दोनों जर्मनी पहुंचीं.
शेख हसीना अपने पिता की हत्या के बाद ब्रिटेन में रहने लगी थीं. उन्होंने यहीं से बांग्लादेश के नए शासकों के खिलाफ अभियान चलाया और 1981 में बांग्लादेश लौटीं, जहां सर्वसम्मति से अवामी लीग की अध्यक्ष चुन ली गईं.
1996 में हुए चुनावों में शेख हसीना बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनीं. इसके बाद फ़ारूक रहमान और उनके पांच साथियों को शेख मुजीबुर रहमान की हत्या के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया.
कई साल चले मुकदमे के बाद आरोपियों को 27 जनवरी 2010 को फांसी दे दी गई.
Web Title: Assassination of The President of Bangladesh Sheikh Mujibur Rahman, Hindi Article
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