भले ही कोई देश अपनी प्रतिष्ठा और वर्चस्व के लिए युद्ध का आवाहन करें, किन्तु इसके क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं, इसका अंदाजा प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद हुई प्रलय से लगाया जा सकता है.
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान तो लगभग 50 से 80 मिलियन लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी. जोकि, उस समय की विश्व जनसंख्या का तीन प्रतिशत हिस्सा थे.
इस युद्ध की पृष्ठभूमि पर ही एक और लड़ाई लड़ी गई, जिसे अटलांटिक युद्ध का नाम दिया गया. अटलांटिक युद्ध इसलिए क्योंकि यह अटलांटिक महासागर में लड़ा गया था.
चूंकि, इस जंग में एक बड़ी संख्या में लोगों की जान गयी थी, इसलिए इसके हर पहलू पर नज़र डालना वर्तमान एवं आने वाली पीढ़ी के लिए सीखने में सहायक रहेगा–
मित्र राष्ट्रों और धुरी राष्ट्रों के बीच तनातनी
‘अटलांटिक की लड़ाई’ शब्द विंस्टन चर्चिल द्वारा गढ़ा गया था, ताकि अटलांटिक के पार शिपिंग मार्गों को सुरक्षित करने के लिए मित्र राष्ट्रों द्वारा किए गए संघर्षों का वर्णन किया जा सके.
यह युद्ध द्वितीय विश्वयुद्ध में अनवरत लड़ा जाने वाला सबसे बड़ा जल सैनिक अभियान था. यह सितम्बर 1939 से 1945 में जर्मनी की हार होने तक लड़ा गया.
इस लड़ाई का मुख्य कारण, मित्र राष्ट्रों द्वारा जर्मनी के जहाज़ी मार्ग को बंद कर देना था.
बताते चलें कि विश्व युद्ध के दौरान अटलांटिक महासागर युद्ध में भाग ले रहे अधिकांश देशों के परिवहन का मुख्य मार्ग था. उन देशों को यदि सैन्य संसाधन व सैनिक उचित समय पर ना पहुंचाए जाते, तो उनकी पराजय निश्चित हो जाती. इस कारण विरोधी देश अपनी जीत सुनश्चित करने के लिए धुरी देशों तक यह संसाधन पहुंचने से रोकना चाहते थे.
बाद में जल परिवहन और परिवहन को रोकने की इसी कोशिश ने अटलांटिक महासागर को युद्ध का मैदान बना दिया.
Soldiers are Ready for Water War (Pic: 2today)
मित्र राष्ट्रों पर कहर बनकर टूटी ‘यू बोटें’!
1940 में फ़्रांस की पराजय के बाद कार्ल डोनिटज़ ने अपनी नौकाओं के संचालन हेतु बिस्के की खाड़ी में नए ठिकाने खोज लिए थे. यहीं से जर्मन की ‘यू बोटों’ ने पूरे अटलांटिक में फ़ैल कर ब्रिटिश काफिलों पर हमला शुरू कर दिया. इसी दौरान डोनिटज़ ने ‘वुल्फ पैक’ रणनीति तैयार की. इसके अंतर्गत छह ‘यू बोटों’ का एक समूह रात के समय उन सभी दिशाओं में हमले के लिए तैयार रहता था, जहां से खतरे का अंदेशा होता.
रात को हमला करने की योजना उपयोगी सिद्ध हुई. 1940-41 में ‘यू बोटों’ ने बड़ी सफलताएं हासिल कीं और मित्र राष्ट्रों की कमर तोड़ दी. इन्हीं सफलताओं के कारण ‘यू बोट’ कर्मचारियों के बीच इस अवधि को ‘हैपी टाइम’ के नाम से जाना जाने लगा.
इस अभियान में जर्मनी ने मित्र राष्ट्रों के 270 से अधिक जहाजों को तबाह किया.
ब्रिटिश सेना को समझ आ गया था कि अगर युद्ध जीतना है, तो इन ‘यू बोटों’ को तबाह करना होगा. हालांकि, यह आसान नहीं था!
फिर भी उन्होंने अपनी असफलताओं से सीखते हुए युद्ध में वापसी की. उन्होंने अपनी रणनीतियों में कई सुधार किए.
उन्होंने अपने छोटे युद्धपोतों को बढ़ावा दिया. उनका यह कदम कारगार साबित हुआ और वह जर्मनी के कब्जे वाले आईलैंड पर कब्जा करने में सफल रहे. यह डेनमार्क का हिस्सा था. ब्रिटेन की इस सफलता में शक्तिशाली मित्र राष्ट्रों का योगदान भी महत्वपूर्ण था.
मई 1941 के आसपास अमेरिकी नौसेना अटलांटिक के युद्ध में ब्रिटिश सेना की सहयोगी बन गई. हालांकि, वह पश्चिमी अटलांटिक में अनुरक्षण शुल्क लेने की शर्त पर ब्रिटेन का साथी बना था. अमेरिका को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा. जर्मनी ने उसके रूबेन जेम्स जैसे कई युद्धपोतों को पानी में डूबो दिया था.
यहां तक कि इसके बाद अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रूजवेल्ट को अपने देश में भारी विरोध का सामना करना पड़ा.
U-boats of Germany (Pic: Pinterest)
‘हवाई जहाजों’ ने जर्मनी को कमजोर किया और…
अटलांटिक की लड़ाई में जलपोतों के अतिरिक्त हवाई जहाजों की भी अहम भूमिका रही.
असल में युद्ध के शुरुआत में मित्र राष्ट्रों के सामने सबसे बड़ी समस्या यह थी कि वह मध्य अटलांटिक क्षेत्र में प्रवेश कैसे करें? यह ऐसे क्षेत्र थे, जहां सहायक विमानों द्वारा प्रवेश नहीं किया जा सकता था. यहां तक पहुँचने का सिर्फ एक ही रास्ता था, जिसके तहत समुद्र के ऊपर से उड़ कर जाना अपने गंतव्य तक पहुंचा जा सकता था.
शायद इसीलिए युद्ध के शुरुआत में हरिकेन जैसे लड़ाकू विमान मध्य अटलांटिक तक लाये गए. बाद में युद्ध के दौरान बी -24 डी ‘लिबरेटर’ जैसे लम्बी दूरी के विमानों का प्रयोग इस युद्ध में किया गया. हवाई जहाजों के आने से जर्मनी की ‘यू बोटें’ भी बेअसर होने लगीं. देखते ही देखते जर्मनी हार की ओर तेजी से बढ़ने लगा. अंत में जर्मनी सेना ब्रिटेन के सैन्य संबंधी संसाधनों की आपूर्ति को रोकने में विफल रही और उसे हार का सामना करना पड़ा.
अटलांटिक युद्ध की सबसे अंतिम कार्यवाही 7 मई 1945 को जर्मन के समर्पण से ठीक पहले पूरी की गयी. मित्र राष्ट्रों को अपनी जीत की कीमत 3500 व्यापारी जहाजों व 175 युद्धपोतों के नुकसान तथा लगभग 72,000 नाविकों के प्राणों की आहूति दे कर चुकानी पड़ी.
दूसरी तरफ जर्मनी को युद्ध में नष्ट हुए 783 ‘यू-बोट’ तथा 30,000 नाविकों के प्राणों का नुक्सान उठाना पड़ा.
अटलांटिक की लड़ाई विश्वयुद्ध के सबसे महत्वपूर्ण मोर्चों में से एक थी. इसकी सफलता मित्र राष्ट्रों के लिए बेहद महत्वपूर्ण रही. हालांकि, इसमें उन्हें जो नुक्सान हुआ था, उसकी भरपाई कभी नहीं हो सकी. कम से कम उन परिवारों के लिए तो यह लड़ाई एक काले अध्याय जैसी ही है, जिन्होंने अपनों को इसमें हमेशा के लिए खो दिया था.
Aeroplanes are Ready for Attack to Germany (Pic: japantimes)
कुल मिलाकर युद्ध छोटा हो, या बड़ा… युद्ध, युद्ध होता है. वह अपने साथ ढ़ेर सारे लोगों की मौत का फरमान लेकर आता है. फिर चाहे वह किसी भी परिस्थिति में क्यों न लड़ा गया हो.
इतिहास इस बात का साक्षी रहा है कि देश के संसाधनों का नुक्सना, सैनिकों के प्राणों के बलिदान और देश की जनता के मन में भय के अलावा युद्ध ने कभी कुछ नहीं दिया. युद्ध लोगों के लिए कुछ छोड़ जाता है, तो सिर्फ-व-सिर्फ भयावह यादें, जो अक्सर लोगोंं की आंखों को नम कर जाती हैं.
Web Title: Battle of The Atlantic, Hindi Article