विश्व इतिहास एक ऐसा अंतहीन सागर है, जिसमें समाया तथ्य व रहस्यों को कोई नहीं समझ पाया है.
हर एक ऐतिहासिक घटना के साथ कोई न कोई ऐसी कहानी व तथ्य जुड़े हुए हैं, जो उस घटना के महत्व को बढ़ा देते हैं. ऐसी ही एक घटना वाटरलू की लड़ाई के दौरान हुई.
यह युद्ध नेपोलियन और ब्रिटिश-पर्शियन की संयुक्त सेना के मध्य हुआ था. यह नेपोलियन की सबसे बड़ी हार मानी जाती है.
युद्ध में नेपोलियन की हार के कारणों को तलाशने के लिए बहुत से इतिहासकार कई सालों तक अध्ययन में लगे रहे. जिसके बाद यह साक्ष्य सामने आए कि नेपोलियन की हार की असली वजह माऊंट तमबोरा का ज्वालामुखी था, जोकि युद्ध से ठीक 2 महीने पहले फटा था.
क्या आप इस साक्ष्य से अवगत हैं, अगर नहीं तो आइए जानते हैं इस घटना के बारे में –
युद्ध से पूर्व हुआ ज्वालामुखी विस्फोट
साल 1815 में वाटरलू (आज का बेल्जियम) की धरती पर नेपोलियन बोनापार्ट और ब्रिटिश सेना के बीच एक घमासान युद्ध हुआ था. इस युद्ध में नेपोलियन को करारी शिख्सत मिली थी.
काफी समय तक इस जीत का श्रेय ब्रिटिश सेना के बहादुर सैनिकों को जाता रहा था. मगर बीते कुछ वर्षों में इस पर हुई रिसर्च में यह सामने आया कि नेपोलियन की हार का कारण केवल ब्रिटिश सैनिकों का शौर्य ही नहीं, बल्कि प्रकृति की मार भी था.
हार के कारणों पर हुए शोध से पता चला की नेपोलियन के युद्ध से 2 माह पूर्व वाटरलू से 13,000 किलोमीटर दूर स्थित मांऊट तमबोरा तट के ज्वालामुखी में एक भयंकर विस्फोट हुआ था. इस विस्फोट में करीब 1,00,000 लोगों की जान चली गई. जिसके चलते ज्वालामुखी त्रासदी के इतिहास में इसे एक बड़ी दुर्घटना माना जाता है.
इस ज्वालामुखी के फटने से वातावरण में भी बड़ा बदलाव आया था.
विस्फोट ने बदल दी युद्ध की तस्वीर
ज्वालामुखी की घटना से पूर्व यूरोप में भारी बारिश के कारण बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गई थी. लगातार होने वाली बारिश के कारण जमीन की मिट्टी काफी चिकनी हो गई.
नेपोलियन की युद्ध योजना के मुताबिक, अंदाजा लगाया गया था कि युद्ध से पूर्व सतह की नमी खत्म हो जाएगी. मगर उनका यह अंदाजा गलत रहा.
दरअसल, जब ज्वालामुखी में विस्फोट हुआ, तो उसमें से निकले धुल मिट्टी के कण गैसों के सहारे वातावरण में फैलने लगे. इन कणों का आकार बहुत छोटा था. इससे यह आसानी से हमारे वातावरण की दूसरी सुरक्षा परत स्ट्रेटोस्फेयर में जाकर समा गए. जो कि सतह से 32 मील की ऊंचाई पर मौजूद होती है.
कुछ समय बात यह कण बादल का आकार लेकर ऊपरी वातावरण में पहुंच गए. जिन्होंने सूर्य की गर्मी को सतह तक पहुंचने नहीं दिया.
इस तथ्य की पूरी खोज इंपीरियल काॅलेज ऑफ लंदन के सीनियर लैक्चरार मैथ्यू गेंज द्वारा की गई थी. उन्होंने अपनी इस रिसर्च को ऑनलाइन पब्लिश किया था.
प्रोफेसर गेंज ने अपनी रिसर्च में बताया कि अगर वातावरण में स्वतंत्र इलैक्ट्रिक्ली चार्ज़ड अणुओं की मात्रा बढ़ जाए, तो वह वातावरण की स्थिति को प्रभावित करते हैं. और ऐसा ही कुछ उस युद्ध के दौरान भी हुआ था.
वातावरण में आए इस बदलाव ने कठोर सतह को दलदली बना दिया, जिसके चलते नेपोलियन की सेना घुटनों पर आ गई.
वातावरण को नजरअंदाज करना पड़ा महंगा
माऊंट तमबोरा पर हुए इस भयंकर ज्वालामुखी विस्फोट की शुरुआत 5 अप्रैल 1815 को हुई. ज्वालामुखी के फटने से उठी धुल ने तट की पूरी जमीन और आसपास की सभी इमारतों को ढंक दिया था.
विस्फोट में मरने वालों की गिनती एक लाख के आसपास रही. इसकी पुष्टि नेशनल सेंटर फॉर एटमोस्फेयर रिसर्च ने की थी. यह आंकड़ा विभाग के वैज्ञानिकों द्वारा एक लंबे अध्ययन के बाद तैयार किया गया.
वैज्ञानिकों के मुताबिक इस दौरान आए वातावरणीय बदलाव के चलते यूरोप और उत्तरी अमेरिका के लोगों को इस साल गर्मियों से वंचित रहना पड़ा था. इसके चलते 1816 को “दा विदआउट ए समर” नाम दिया गया.
नेपोलियन ने 18 जून 1815 को जब 72,000 सैनिकों के साथ बेल्जियम पर कूच किया, तो उसने वातावरण के प्रभाव को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया.
वह इस सोच में था कि उसके 72,000 सैनिक 68,000 ब्रिटिश सैनिकों की तुलना में काफी अधिक हैं. इसका फायदा लेते हुए वह युद्ध में आसानी से जीत हासिल कर लेगा.
ज्वालामुखी के विस्फोट से आए बदलाव ने युद्ध में नेपोलियन की स्थिति को कमजोर कर दिया.
इस युद्ध में नेपोलियन की सेना के 33,000 सैनिक घायल हुए या मारे गए, जबकि ब्रिटिश सेना को 22,000 सैनिकों की क्षति हुई. यह हार नेपोलियन की आखिरी हार साबित हुई, जिसने उसे और उसके रुतबे को हमेशा के लिए खत्म कर दिया.
... तो युद्ध के नतीजे कुछ और होते!
इस विषय पर साल 2005 में रॉयल मैट्रोलॉजिकल सोसायटी द्वारा की गई रिसर्च में बताया गया कि वातावरण का प्रभाव दोनों ही पक्षों पर पड़ा था.
उनके मुताबिक नेपोलियन की हार का कारण केवल वातावरण प्रभाव ही नहीं था, बल्कि इसके साथ-साथ युद्ध के दौरान खराब युद्धनीति, गलत फैसले इत्यादि भी जिम्मेदार थे.
रिसर्च करने वाले विशेषज्ञों का मत था कि इस युद्ध का नतीजा कुछ और हो सकता था, अगर युद्धभुमि सुखी व कठोर होती.
इसके पीछे तर्क दिया जाता है कि ब्रिटिश सेना की तुलना में नेपोलियन के पास अधिक सैन्य बल था. यकीनन इसका फायदा उसे मिलता.
अगर मैथ्यू गेंज की थ्योरी की बात करें, तो वह महज एक परिकल्पना मात्र है. बावजूद इसके उनके द्वारा दिए गए तथ्यों को झुठलाया नहीं जा सकता.
उनके तथ्य इस बात का प्रमाण हैं कि युद्ध से दो माह पूर्व हुए ज्वालामुखी विस्फोट ने वातावरण को प्रभावित किया था. इसके दूरगामी प्रभाव युद्ध में नेपोलियन व उसकी सेना को भुगतने पड़े थे.
बहरहाल, यह थी इतिहास की एक ऐसी घटना, जिसने यूरोप में बड़ा बदलाव किया था और एक विजेता को अपना सर्वस्व गंवाने पर मजबूर कर दिया.
यदि ब्रिटिश सेना पर प्रकृति मेहरबान न होती, तो यकीनन नेपोलियन वाटरलू के युद्ध में विजयी रहता. ऐसे में यूरोप की वर्तमान स्थिति कैसी होती, आप सोच सकते हैं.
Web Title: Battle of Waterloo That Ended Napoleon's Empire, Hindi Article
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