पृथ्वी और जिंदगी को लेकर कई राज हैं, जिन पर से पर्दा हटा दिया गया है, तो कई अभी भी अनसुलझे हैं. वहीं इंसान की जिंदगी से जुड़े कई ऐसे रहस्य भी हैं, जिन पर से पर्दा हटने के बाद उन्हें सच मानने में काफी समय लगा.
इनमें से एक है इंसानों और जीव जंतुओं की उत्पत्ति का सच, आज यदि इंसानों के इतिहास के बारे में पूछा जाए तो हम झट से चार्ल्स डार्विन की थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन को आधार मानते हुए कह देते हैं कि हमारे पूर्वज बंदर थे.
समय-समय पर हुए प्राकृतिक बदलाव के साथ वर्तमान इंसान की उत्पत्ति हुई. किन्तु, क्या आप जानते हैं कि जिस समय डार्विन ने ये सिद्धांत दिया, उस समय इसे बड़ी आलोचनाओं से होकर गुजरना पड़ा.
तो आईए जानें कैसी थी डार्विन और उनके सिद्धांत की कहानी-
परिवार के महौल से मिली सोचने की शक्ति!
कोई भी काम महान तब हो जाता है, जब उसे करने में कड़ी चुनौतियों का सामना किया गया हो. यह भी एक बड़ी वजह है कि आज चार्ल्स डार्विन और उनके काम को इतना सराहा जाता है.
चार्ल्स डार्विन ने जो काम किया और जो उपलब्धियां हासिल की, उसमें उनकी खुली सोच ने अहम भूमिका निभाई थी. यह खुले विचार और लीग से हटकर सोचने की क्षमता उन्हें अपने परिवार से ही विरासत में मिली थी.
डार्विन का जन्म इंग्लैंड के एक विचारों से संपन्न आजाद खयाल प्रिय घर में हुआ था. उनके दादा इरासमस डार्विन अपनी किताब जुमोनिया में इंसान को लेकर की गई पुष्टियों से पहले ही आलोचनाओं का शिकार हो चुके थे.
दरअसल यूरोप में यह वक्त पुनर्जागरण का था. उस दौर में चर्च के खिलाफ उठने वाली आवाजों को दबा दिया जाता था! कोई भी यदि चर्च द्वारा दिए गए वक्तव्य के खिलाफ कोई राय मशवरा करता, तो उसके लिए कड़ी सजा का प्रावधान किया जाता.
इसका उदाहरण है, कोपरनिकस!
उन्हें यह बताने के लिए सरेआम मौत के घाट उतार दिया गया था कि सूर्य, पृथ्वी के नहीं बल्कि पृथ्वी, सूर्य के चक्कर लगाती है. इस काल में यह कह देना कि इंसान की उत्पत्ति किस शक्ति द्वारा एडम और ईव से ना होकर एक सिद्धांत के आधार पर हुई है, तो यह सीधा चर्च और उसके धार्मिक कट्टरपंथ को टक्कर देना था.
शुरुआत में डार्विन हिचकिचाए, लेकिन ज्यादा समय तक खुद को रोक नहीं सके और इसे सही साबित करने में जुट गए.
समुद्री यात्रा ने दी जिंदगी को एक नई दिशा
अपने पिता और दादा की तरह चार्ल्स डार्विन को भी चिकित्सा में पढ़ाई का मौका दिया गया. उन्हें एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में भर्ती करवाया गया था. माना जाता है कि यह विश्वविद्यालय उस समय की कैंब्रिज और ऑक्सफोर्ड की तुलना में आजाद ख्यालों को ज्यादा महत्व देता था.
किन्तु, डार्विन को यह फील्ड जमा नहीं. डार्विन उसे छोड़ चर्च में कैरियर बनाने के लिए कैंब्रिज में डिविनिटी की पढ़ाई शुरू कर दी. इसी दौरान खाली समय में वह तरह-तरह की कीड़ों (बीटल्स) को पकड़ने में व्यस्त रहते.
प्रकृति के प्रति उनका प्रेम देखते हुए ही कैंब्रिज में उनके एक शिक्षक ने उन्हें एम एच बीगल पर एक समुद्री यात्रा पर जाने का न्योता दिया. डार्विन की यही यात्रा उनकी जिंदगी में एक बड़े बदलाव लाने वाली थी.
1831 में मात्र 22 साल की उम्र में बीगल नामक एक जहाज पर उन्हें कई महाद्वीपों का भ्रमण करने का मौका मिला. इस यात्रा के बारे में उन्होंने कहा, 'बीगल द्वारा की गई समुद्री यात्रा मेरी जिंदगी की अहम घटना है. उसने मेरे करियर को नया आयाम दिया.”
5 साल की यात्रा के दौरान डार्विन ने इंसान और पेड़ पौधों की जीवन को लेकर कई तरह की जानकारी और तथ्य एकत्रित किए. आगे वे वापस लौटे, तो अपने साथ लगभग 1500 प्रजातियों से जुड़ी जानकारियां साथ लेकर आए.
एम एच बीगल रॉयल नेवी का 27 मीटर लंबा जहाज था, जिसने 5 साल में लगभग 4 महाद्वीपों का भ्रमण किया था. हालांकि, इस भ्रमण से उनकी सेहत पर बुरा असर पड़ा था. यहां से शुरू हुई उनकी खराब हालत का असर उनकी जिंदगी के अंत तक रहा.
सफर में कई तरह के टापू पर रहकर कई तरह के वातावरण और वहां रहने वाले जीव जंतुओं को ध्यान में रख डार्विन ने इंसान और अन्य जीव जंतुओं की उत्पत्ति के बारे में कई रोचक बातें सामने रखी.
अपने साथी जीव वैज्ञानिकों से सलाह कर अपने अनुभवों और प्रमाणों से वह इवोल्यूशन के सिद्धांत के करीब पहुंच रहे थे.
'थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन' के लिए झेली आलोचना
अपने दादा द्वारा शुरू किए गए बदलाव के सिद्धांत को डार्विन आगे ले जा रहे थे, लेकिन एक डर के साथ. वह समय के साथ इंसान और अन्य जीव जंतुओं में हुए बदलाव से रूबरू हो चुके थे.
वह जान चुके थे कि खुद को किसी वाताण के अनुकूल ढ़ाल लेना. खुद को ज्यादा समय तक जीवित रखने का एक तरीका है. इन सभी को ध्यान में रखते हुए डार्विन ने यात्रा के समय हुए अपने अनुभवों को एक किताब का रूप दे दिया.
काफी समय तक डार्विन अपने सिद्धांतों को खुद तक ही सीमित रखते गए, लेकिन उससे पहले कोई उनके सिद्धांतों और खोजों को दुनिया के सामने ला देता, इस बात के डर ने उन्हें अपने काम को सार्वजनिक करने पर विवश कर दिया.
बता दें कि डार्विन के साथ-साथ उन से प्रेरित होकर अल्फ्रेड रसेल वॉलेस ने बदलाव और अपनी नेचुरल सिलेक्शन के सिद्धांत को प्रकाशित करने के लिए डार्विन को एक पत्र लिखा था. उसके बाद डार्विन ने अपने सिद्धांतों को सार्वजनिक कर दिया.
खास बात तो यह थी वह वॉलेस को भी सम्मान देना नहीं भूले. उनके सिद्धांतों और विचारों को भी इंग्लैंड की लीनियन सोसाइटी के सामने प्रस्तुत करने का फैसला किया. हालांकि, डार्विन खुद उन सिद्धांतों को प्रस्तुत नहीं कर पाए.
असल में उस दिन उनके 20 वर्षीय बेटे का निधन हो गया था.
आखिरकार, जब उन्होंने अपनी थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन को प्रकाशित किया तो चर्च ने ठीक उसी तरह का व्यवहार किया, जिसकी उससे उम्मीद की जा रही थी. चर्च ने जमकर डार्विन के सिद्धांत की आलोचना की थी.
वैज्ञानिक के साथ एक अच्छे पिता भी थे डार्विन
डार्विन वैज्ञानिक बनने तक ही सीमित नहीं थे, बल्कि वह जिंदगी के हर पहलू में संजीदगी रखते थे. वह अपने बच्चों के भी बेहद करीब थे. अपने 10 बच्चों में से सबसे प्रिय बेटी ऐना से वह बहुत प्यार करते थे. वह अपनी बेटी के कितने करीब थे, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 10 वर्ष की उम्र में हुई उसकी मौत के बाद डार्विन भी खुद बीमार रहने लगे थे.
वहीं जब बाद में उनके एक दूसरे बेटे और बेटी की मौत हुई, तो डार्विन ने उस समय के ईसाई समाज में अपने ही परिवार में होने वाली शादी के खिलाफ आवाज उठाना शुरू कर दिया. बता दें कि उस समय के इंग्लैंड के समाज में अपने ही परिवार के लोगों से शादी करना आम बात थी. खुद डार्विन की शादी भी अपनी चचेरी बहन से हुई थी.
डार्विन अपने बच्चों की मौत का जिम्मेदार इस तरह होने वाली शादी को ही मानते थे. उनके मुताबिक यह जेनेटिक बीमारियों को बढ़ावा देता था. उस समय सामान्य घरानों में ही नही बल्कि राज घराने के लोग भी इसे मानते थे. इस रिवाज के खिलाफ आवाज उठाते हुए डार्विन ने एक बार फिर चर्च और समाज में प्रचलित मान्यता को ललकारा था.
डार्विन के व्यवहार में चर्च में पादरी बनने चाह रखने से लेकर थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन लिखने तक कई बदलाव आ चुके थे. उनका काम केवल एक सिद्धांत पर नहीं रुका. बल्कि, कड़ी आलोचना और विरोध के बावजूद उन्होंने ‘ओरिजिन ऑफ स्पीसीज’ और ‘डिस्केंट ऑफ अ मैन’ लिखी.
आज जब हम डार्विन को समझने की कोशिश करते हैं, तो या तो उन्हें आस्तिक या नास्तिक होने के तराजू में तोलते रहते हैं. लेकिन डार्विन का नजरिया धर्म और आस्था को लेकर समय और अनुभवों के अनुसार बदलता रहा. उन्होंने कभी किसी की आस्था और विश्वास का मखौल नहीं किया. साथ ही उन्होंने कभी विज्ञान के प्रति अपनी आस्था और विश्वास को भी नहीं त्यागा.
Web Title: Charles Darwin, The Man Who Give us The Theory of Evolution, Hindi Article
Feature Image Credit: ThoughtCo