आम नजरों से अलग पर्यटकों और तीर्थयात्रियों के चश्में से देखा जाने वाला वो शहर जो मशहूर है अपने घाटों के लिए, शिव पूजा के लिए, स्वादिष्ट पान-बेर के साथ रंगीन साड़ियों के लिए और सुबह की गंगा आरती के लिए भी…
यूं तो बनारस अब वाराणसी हो चुका है और नाम बदलने के साथ ही इसकी सूरत बदलने की कोशिश बदस्तूर जारी है. मॉर्डन होते इस शहर की गलियां अब भी ‘मॉर्डनिज्म की चकाचौंध’ से दूर हैं. यही कारण है कि देखने वाले लोग इस शहर को आस्था से ओतप्रोत पाते हैं.
बस बात नहीं होती है, तो केवल बनारस की विधवाओं की! साल 2011 की रिपोर्ट के अनुसार बनारस में 38000 से ज्यादा विधवाएं रह रही हैं. कहते हैं मोक्ष की आड़ में यहां सदियों से छोड़ी जा रही ये विधवाएं किसी तरह खुद को जिंदा रखने की मशक्कत कर रही हैं.
ऐसा क्यों आईए जानते हैं—
कुप्रथाओं ने तैयार किया रास्ता!
बनारस पहुंचते ही कई लोग गंगा में डुबकी लगाते दिखते हैं और कुछ घाटों पर चिता जलाते. लोग यहां केवल पुण्य स्नान के लिए नहीं आते, बल्कि प्रियजनों को मोक्ष का द्वार दिखाने के लिए भी लाते हैं. कुछ लोग मुर्दों को लाते हैं और कुछ जीते जी उन्हें यहां के घाटों पर छोड़ जाते हैं.
बनारस में विधवाओं का आना भी कुछ ऐसा ही है!
इसकी शुरूआत तब हुई जब भारत में सती प्रथा का पुरजोर विरोध शुरू हुआ. हिंदू विवाह में विधवाओं के लिए कड़े नियम थे, पर इन नियमों से अलग समाज में सती प्रथा का चलन था.
पति की मौत के बाद उसकी विधवा को इच्छा के विरूध पति की चिता के साथ ही आत्मदाह करना पड़ता था. समाजसेवक राजा राममोहन राय ने सती प्रथा को मिटाने के लिए भी प्रयत्न किया और कई आंदोलन चलाए. सामाजिक स्तर पर उनका विरोध भी हुआ. जिसके कारण लार्ड विलियम बैंटिक ने 1829 में सती प्रथा को बन्द कराने का निर्णय लिया.
‘प्रिवी कॉउन्सिल’ ने भी निर्णय को स्वीकार किया और भारत के हर समाज, जाति आदि से सती प्रथा खत्म कर दी गई. जब सती प्रथा को खत्म करने की जंग चल रही थी, तब ही विधवाओं की दूसरी शादी के बारे में भी विचार हो रहा था.
इस विचार को बल दिया ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने. सती प्रथा बंद होने के बाद भी ब्राह्मण, उच्च राजपूत, महाजन, ढोली, चूड़ीगर तथा सांसी जातियों में विधवा विवाह को मान्यता नहीं मिली.
Sati Ceremony (Pic: stmuhistorymedia)
कठिन नियम बने ‘कैटलिस्ट’
सामाजिक स्तर पर विधवा विवाह के लिए बनाएं गए नियम काफी कठिन थे. इनके अनुसार विधवा विवाह को ‘नाता’ कहा जाता था और इसके लिए विधवा को विवाह करने से पूर्व मृतक पति के घर वालों से ‘फारगती’ (हिसाब का चुकाना) करना पड़ता था.
इसके लिए मालियों में 16 से 50 रुपए तक एवं भाटों में 50 रुपए देने का रिवाज था. ऐसा नहीं करने पर पंचायत विधवा पर भारी जुर्माना लगाती थी.
ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने इन सामाजिक नियमों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया और आखिर 1856 में अंग्रेज़ी सरकार ने विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित कर दिया. यहां तक की ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने अपने बेटे का विवाह भी एक विधवा से करवा.
किन्तु, यह सारे प्रयास विधवाओं के जीवन पर खास प्रभावी नहीं हुए.
सती प्रथा बंद होने के बाद विधवाओं का जीवन कठिन हो गया. लोगों ने कानून के डर से विधवाओं को जलाना तो बंद कर दिया था पर उन्हें स्वीकार करना शुरू नहीं किया. नतीजतन विधवाओं के पास रहने के ठिकाने नहीं बचे.
ऐसे में कुछ मंदिरों की चौपालों पर, तो कुछ जंगलों में भटकती रहीं.
शास्त्रों में विधवाओं के जीवन के नियम निर्धारित थे और इन्हीं नियमों का वास्ता देकर गांवों से विधवाओं को बनारस भेजा जाने लगा. 1829 से ही विधवाओं की बड़ी संख्या बनारस पहुंचने लगी. इनमें बाल विधवाएं भी शामिल थीं. बनारस आने वाली अधिकांश विधवाएं बंगाल और नेपाल से आईं, क्योंकि यहां की उच्च जातियों में विधवाओं की स्वीकार्यता कम ही थी.
घाट, फिर मंदिर और अब आश्रम
विधवाओं के बनारस पहुंचे की कोई विशेष तारीख इतिहास में दर्ज नहीं है. पर माना जाता है कि इस की शुरुआत 1829—30 के दरमियान ही हुई. हालांकि, इसके पहले भी बनारस में बेसहारा विधवाएं थीं, पर वे अधिकांशत: शहर के आसपास के गांवों से आई हुई थीं.
इन विधवाओं के लिए बनारस में जीवन भी आसान नहीं था.
नियमानुसार वे शिवालयों में प्रवेश नहीं कर सकती थी. उनके लिए सफेद रंग की साड़ी पहनना अनिवार्य था. बंगाली विधवाओं के सिर मुंडे हुए रहते थे. इन्हें जीवन पर्यंत कच्चा भोजन ही खाना था. यहां तक कि विधवाएं किसी शुभ कार्य का हिस्सा नहीं बन सकती थी.
ऐसे कठोर नियमों के कारण विधवाओं को बनारस के घाटों पर शरण लेनी पड़ी.
हर उम्र की विधवा बनारस के मणिकर्णिंका और ललिता घाट के किनारे रहती थी. तेज बारिश और ठंड के दिनों में इन्हें मंदिर के पिछले हिस्सों या गाय के सराय में आसरा मिल जाता था, पर भोजन की समस्या जस की तस थी. ऐसे में वे पेट पालने के लिए मंदिर से मिलने वाले दान पर निर्भर थीं. या गंगा किनारे अंत्येष्टि करने वालों से मिलने वाले भोजन से दिन का गुजारा करती.
कहते हैं जैसे-जैसे बनारस में विधवाओं की संख्या बढ़ती गईं, वैसे-वैसे दानदाताओं के हाथ कम पड़ते गए. इस कारण विधवाओं ने घाटों से उठकर घर-घर जाकर भिक्षा मांगना शुरू कर दिया.
Widows in Vanaras (Pic: IBTimes)
‘विधवा पुन:विवाह’ से भी नहीं बनी बात
जैसा कि ऊपर जिक्र किया गया था कि बनारस में बंगाली और नेपाली विधवाओं की संख्या ज्यादा थी, इसलिए वे खेमे में बंट चुकी थी. इनमें तीसरा खेमा उनका था, जो अन्य राज्यों से यहां पहुंची, लेकिन बनारस में हमेशा से बंगाली विधवाओं का दबदबा रहा.
बंगाल से आने वाली हर जाति की विधवा उन्हीं के खेमे में जाती. हर खेमे की सबसे बूढी विधवा उसकी मुखिया होती, जिसके पास दिनभर की भिक्षा जमा की जाती थी. फिर उस भिक्षा का बराबरी से बंटवारा होता था.
इस व्यवस्था से विधवाओं को सुरक्षा तो मिली पर खेमे अलग-अलग होने से नुकसान भी कम नहीं थे. विधवा पुन:विवाह के प्रति जागरूकता आने के बाद भी यहां के हालात बेहतर नहीं हुए. 1856 आते तक बनारस में लगभग 11 हजार विधवाएं पहुंच चुकी थी.
आगे करीब 50 साल विधवाओं के लिए बहुत कठिन रहे.
इस दौर में उन्होंने भुखमरी से लेकर असुरक्षा तक हर समस्याओं का सामाना किया. सबसे बड़ी समस्या बाल और जवान विधवाओं की थी.
बहरहाल 1900 तक बनारस का विस्तार शुरू हो चुका था और यहां कई सामाजिक संस्थाओं ने ट्रस्ट स्थापित कर मंदिरों का निर्माण कर लिया था. ब्रिटिश सरकार विधवाओं के पुर्नवास को लेकर चिंतित थी, इसलिए उन्होंने मंदिरों को अतिरिक्त भूमि देने का वायदा किया. यह वायदा इस शर्त पर था कि वह भूमि के एक हिस्से में विधवाओं के रहने की व्यवस्था करेंगे.
जिसके बाद से बनारस में विधवा आश्रमों का निर्माण शुरू हुआ. नेपाल की महिलाओं के लिए पशुपति नाथ मंदिर ट्रस्ट की ओर से विधवा आश्रम शुरू किया. बंगाली विधवाओं के लिए दुर्गा कुंड विधवा आश्रम की शुरुआत हुई. हालांकि, आश्रम सभी विधवाओं के लिए थे और इसमें जाति का बंधन नहीं था. किन्तु दबदबे के कारण यहां सभी विधवाओं को जगह नहीं मिली.
ब्रिटिश सरकार की जमीन देने की योजना का फायदा उठाने के लिए बाद में कई और छोटे आश्रम क्षेत्र के जमींदारों ने शुरू किए. इस तरह कम से कम विधवाओं को रहने के लिए सुरक्षित अशियाना मिल गया.
जब बोझ हो गईं विधवाएं
1947 से 1955 तक बनारस में माता आनंदमयी आश्रम, बिडला विधवा आश्रम, आशा भवन, ललिता घाट विधवा आश्रम समेत करीब 1 दर्जन विधवा आश्रमों की स्थापना हो गई थी. हालांकि, यहां रहने के भी अपने नियम थे. जैसे विधवाओं को दो ही साड़ियां मिलती थीं. इन्हें वे तब तक पहनती थीं, जब तक कि वह पूरी तरह फट न जाए.
बहरहाल, खाने का इंतजाम भिक्षा मांगकर ही करना होता था.
कुछ आश्रमों ने विधवाओं को अनुमति दी कि वे गली-मोहल्ले में जाकर भजन गाएं और उसके बदले मिलने वाली राशि से जीवनयापन करें. हालांकि, यह भोजन व्यवस्था का स्थायी समाधान नहीं था, पर इससे भिक्षा मांगने जैसी अपमानजनक स्थिति से छुटकारा मिल गया.
भजन गाने और प्रभात फेरियां निकालने की नई परंपरा बनारस में विधवाओं ने ही शुरू की. शुरुआत के कुछ सालों में इस काम से फायदा हुआ और कम से कम एक वक्त की रोटी का इंतजाम होने लगा.
दिलचस्प बात तो यह है कि आज भी कई विधवा संगठन हैं, जो बनारस में भजन गाने और फेरियां निकालने का काम करते हैं, पर कहते हैं कि जब से रामायण मंडलियों ने साजो-सामान के साथ अपनी पैठ जमानी शुरू की है, इनका यह रोजगार छिन सा गया है.
अब भजन गाने के बदले एक आदमी से मुश्किल से उन्हें 2 से 5 रुपए ही मिल पाते हैं!
इस तरह जिन आश्रमों में विधवाएं भोजन का इंतजाम कर पाने में नाकाम होती वे वहां केवल बोझ थीं. यहां सबसे ज्यादा उन विधवाओं की परेशानी थी, जो शारीरिक रूप से अक्षम हैं या उम्र के आखिरी पडाव पर हैं. 2011 की जनगणना के आंकड़े और सर्वे बताते हैं कि विधवाएं अपने परिवारों के लिए आज भी किसी बोझ से कम नहीं है. यहां के आश्रमों में ऐसी सैंकड़ों विधवाएं हैं, जो अपने बेटों और रिश्तेदारों के साथ गंगा स्नान करने आईं थी और फिर यहीं छोड़ दी गईं.
1980 के बाद धीरे-धीरे विधवा आश्रमों ने वृद्धाश्रमों का रूप ले लिया है.
साल 2015 में हुए एक सर्वे के अनुसार बनारस में 38 हजार विधवाएं थी और हर साल इनकी संख्या में 2 प्रतिशत की वृदिृध हो रही है. यह दो प्रतिशत उन विधवाओं का है, जो जीवन के अंतिम समय में अपने सुहाग को खो बैठी है और परिवार के लिए बोझ बन गईं.
Widows in Vanaras City (Pic: nandishiva)
क्या इतना काफी है!
ऐसा नहीं है कि सरकार ने विधवाओं के पुर्नवास के लिए प्रयास नहीं किया हो!
पिछले वर्ष ही पीएम नरेन्द्र मोदी ने बनारस में नए विधवा आश्रम की स्थापना करने की घोषणा की थी, जिसमें 1 हजार विधवाएं एक साथ रह सकती हैं. इसके अलावा स्वयंसेवी संस्था सुलभ इंटरनेशनल ने बनारस के कुछ विधवा आश्रमों को गोद ले लिया है और उनकी मदद से आश्रमों में भोजन का इंतजाम किया जा रहा है.
साल 2015 में एक बड़ा बदलाव देखने मिला जब बनारस में पहली बार विधवाओं ने होली खेली और आश्रमों के बाहर दीपावली पर दियों की रौशनी हुई. इसके बाद उम्मीद की जा रही थी कि उनके सामाजिक स्तर में बदलाव आएगा पर दो साल गुजर जाने के बाद भी यहां लगातार विधवाओं की संख्या बढती जा रही है.
आंकड़ों के अनुसार अकेले भारत में लगभग 4 करोड़ विधवाएं है. इनकी बदहाली को सुधारने के नज़रिये से संपूर्ण राष्ट्र ने 2011 से 23 जून को अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस मनाना शुरू किया.
पर सवाल यह है कि क्या इतना काफी है!
आश्रम के अंधेरे कमरों मेंं रौशनी डाली जाए तो चारों ओर केवल वृद्ध महिलाएं दिखती है, जो झुकी कमरों से चौका चूल्हा संभाल रही होती हैं, कुछ आंगन के ठिए से टिकी चुपचाप बस शून्य को देखे जा रही है और कुछ गठरी सी बनी चारपाई पर लेटी है.
सबेरा ऐसे ही होता है और शाम भी ऐसे ही गुजर जाती है.
शाम को पास के काशी विश्वनाथ मंदिर से आती घंटों की आवाजों से उनका ध्यान टूटता है, वे किसी तरह खुद को समेंटती हैं और गंगा की ओर मुंह करके मिच मिचाई आँखों से आरती को निहारती हैं और एक ही प्रार्थना करती हैं कि बाबा जल्दी वापस बुलाओ!
बनारस में इतने सालों में यूं तो बहुत कुछ बदल चुका है. ‘बनारस केवल घाट नहीं है, बल्कि इससे बढ़कर भी बहुत कुछ है’…और इस बहुत कुछ के केन्द्र में हैं मोक्ष की भीख मांगती विधवाएं!
आपकी क्या राय है?
Web Title: City of Widows Varanasi, Hindi Article
Feature Image Credit: Reuters