इतिहास की तरह फैशन के बारे में भी कहा जाता है कि वह खुद को दोहराता है.
ये आपने आज के दौर में भी देखा ही होगा. पोल्का डॉट्स का फैशन जो एक समय पर उफान पर था, अब फिर से मार्किट में अपना दबदबा बनाये हुए है, लेकिन कुछ फैशन ट्रेंड ऐसे भी होते हैं, जिनके बारे में ये कहना गलत नहीं होगा कि वह कभी लौटकर न आए.
सही भी तो है. जो फैशन ट्रेंड हजारों लोगों की मौत का कारण बन जाए, उसे फिर से दोहराना भी कौन चाहेगा. जी हाँ, हम बात कर रहे हैं ‘क्रिनोलिनमेंनिया’ फैशन ट्रेंड की.
बस समझ लीजिए कि जितना अजीब इसका नाम है, ये फैशन ट्रेंड उससे भी दस कदम आगे है. ऐसे में इसके बारे में नज़दीक से जानना दिलचस्प रहेगा.
तो चलिए आपको ले चलते हैं 19वीं शताब्दी के इंगलैंड की सड़कों पर, जहाँ इस अजीब और गरीब फैशन ने पहली बार अपने कदम रखे थे-
कई देशों के सफ़र के बाद पहुंचा इंग्लैंड
क्रिनोलिन के फैशन को देख कर सबसे पहला ख्याल जो आपके दिमाग में आएगा वो यही होगा कि कोई पैराशूट जैसे दिखने वाले कपड़े क्यों पहनेगा.
इतिहास गवाह है कि फैशन और कम्फर्ट के बीच शुरू से ही छत्तीस का आंकड़ा रहा है. इन दोनों को आपने शायद ही कभी एक ही कमरे में गुफ्तगू करते देखा होगा.
क्रिनोलिन इसी का एक उदाहरण है. कहा जा सकता है कि यह एक तरीका था जिससे सबकी नज़रें आप पर ही रहेंगी भले फैशन का फंदा आपकी कमर को कितना ही क्यों न झंझोड़ रहा हो.
19वीं शताब्दी विक्टोरियन युग की बात है. क्रिनोलिन प्रचलन में आई. यह महिलाओं के गाउन के नीचे पहनी जाने वाली एक ठोस अंडरस्कर्ट थी, जो ज़्यादातर घोड़े के बालों, लिनन और कपास से बनाई जाती थी.
असल में इसका आविश्कार 1840 के दशक में हुआ था. हालांकि, कुछ फैशन इतिहासकारों का कहना है कि 16वीं शताब्दी के स्पेनिश "फार्थिंगेल" से प्रेरणा लेकर ही इसे बनाया गया था.
समय में थोड़ा और पीछे जाए तो, 15वीं शताब्दी में भी इस तरह की बड़ी-बड़ी और फूली हुई स्कर्ट स्पेन की महिलाओं की ख़ास पसंद थी. इसके बाद तो यह फैशन स्पेन से शुरू होकर, पुर्तगाल के रास्ते इंग्लैंड जाकर ही रुका. कैथरीन ऑफ़ एरागोन, जो हेनरी VIII की पहली पत्नी थी, ने पहली बार इंग्लैंड को इस फैशन से अवगत कराया.
1800 का दशक आते-आते ये घागरे और बड़े होने लगे, साथ ही इनका घेराव और गोलाई में भी बढ़ोतरी हुई.
महिलाएं अपने घागरे को आकर में और बड़ा दिखाने की कोशिश में उसके नीचे पेटीकोट की कई परत पहनने लगी. इन्हें पहन कर महिलाएं ज्यादा हिलडुल नहीं पाती, आराम और सहूलियत की बात तो उनके घागरे की मोहरी तक आकर ही अटक जाती थी. जितनी मेहनत इतने कपड़ों को ढ़ोने में लगती थी, उतनी ही इन्हें पहनने में भी. अमीर घराने की औरतें तो अपनी दासियों की मदद से ही तैयार हो पाती थी. दिन में 2 से 3 बार कपड़े बदलने की परंपरा उनकी मुश्किलें और बढ़ा देती थी.
इन्ही पहलुओं को लेकर उस दौरान इस फैशन का खूब मज़ाक भी बना. उसी समय प्रकाशित होने वाली “पंच” नाम की एक मैगज़ीन ने भी इसकी खूब हंसी उड़ाई और इसकी निंदा करते हुए कार्टून चित्र और व्यंग्यात्मक लेख भी प्रकाशित किए.
इस जत्तोजहत के बीच जब क्रिनोलिन का आविष्कार उनके सामने आया, तो उन्होंने राहत की सांस ली. यह पुरानी स्कर्ट से वजन में ज्यादा हलकी और पहनने में ज्यादा आसान थी. हालांकि इससे उनके द्वारा पहनी गयी पेटीकोट की परतें तो कम नहीं हुई, लेकिन इसने पेटीकोट के वजन को ज़रूर संभाल लिया.
बना सामाजिक वर्गीकरण की नीव
इसकी लोकप्रियता का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि "फार्थिंगेल" और “पैनीय्र्स” आदि पुरानी पौशाकों से अलग हटकर, क्रिनोलिन को समाज के हर तबके की महिलाएं पहना करती थी.
अब सोचने वाली बात यह है कि इंग्लैंड का समाज, जिसकी नीव ही वर्गीकरण पर टिकी है, वहां समाज के अलग-अलग तबके कैसे एक ही सूरत में रह सकते हैं. बस यहीं से क्रिनोलिन का वर्गीकरण भी शुरू हो गया.
ये फैशन तेजी से पश्चिमी मीडिया के बीच गहन निंदा का विषय बन गया. 1875 में प्रकाशित एक शिष्टाचार पुस्तिका में जॉर्ज रूटलेज ने नौकरों द्वारा क्रिनोलिन पहनने और इसी से संबंधित सामाजिक चिंताओं पर प्रश्न उठाए. उन्होंने ख़ास तौर पर नौकरानियों द्वारा, लंदन के बड़े घरों में काम पर आते वक़्त, ऐसी पौशाक पहनने पर आपत्ति जताई.
रूटलेज का कहना था कि नौकर अपने फैशनेबल कपड़ों को अपने खाली समय के लिए बचाकर रखें और अपने काम के हिसाब से कपड़े पहन कर आए.
यहीं से क्रिनोलिन को सामाजिक पहचान के संकेतक के रूप में माना जाने लगा. ये दिलचस्प है कि कार्टूनों के लिए यह एक लोकप्रिय विषय था. इनमें नौकरानियों को क्रिनोलिन पहने हुए दर्शाया जाता था और इन्हें देख कर उच्च श्रेणी की महिलाओं की नाखुश प्रतिक्रिया भी कार्टून के द्वारा दिखाई जाती थी.
बना महामारी से भी घातक मौत का हथियार
जहाँ एक तरफ क्रिनोलिन को रोज मर्रा की जिंदगी में वर्गीकरण की आग लगाने के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है, वहीं दूसरी ओर इसके जल्दी आग पकड़ने के कारण इसे हजारों लोगों की मौत का कारण भी माना जाता है.
क्रिनोलिन की ज्वलनशीलता की एक बड़े पैमाने पर रिपोर्ट सामने आने लगी. अनुमान लगाया जाता है कि 1850 और 1860 के दशक के दौरान इंग्लैंड में क्रिनोलिन पहनने से 3000 महिलाओं की मृत्यु हो गयी थी.
आपको जान कर हैरानी होगी कि इससे होने वाली मौतों की संख्या एक समय पर इतनी बढ़ चुकी थी कि इसे सती प्रथा से भी ज्यादा जानलेवा और खतरनाक समझा जाता था. 1864 में स्लेविकोव नामक एक व्यक्ति ने अपने शोध से यह बताया था कि पिछले 14 वर्षों (1850-1864) में, दुनिया भर में कम से कम 39,927 महिलाओं की मृत्यु क्रिनोलिन से सम्बंधित आग में हो चुकी है.
आपको बताते चले कि इस स्कर्ट को बनाने के लिए लौ-प्रतिरोधी कपड़े भी उपलब्ध थे, लेकिन उन्हें महिलाओं के बीच इतना पसंद नहीं किया गया, जिसके कारण वो कभी प्रचलन में भी नहीं आ पाए.
क्रिनोलिन पहनने का खतरा आग तक ही सीमित नहीं था. इससे जुड़े और भी कई जोखिम थे. जैसे कि यह अन्य लोगों के पैरों, गाड़ी के पहियों या फर्नीचर आदि में फस जाता था. शुरूआती दौर में जब निचले तबके की महिलाएं इसे पहन कर फैक्ट्री में काम करने जाया करती थीं, तब भी इससे जुड़े कई मामले सामने आए, जिनमे इनकी स्कर्ट मशीन में फस जाया करती थी.
इसके अलावा यदि कभी तेज़ हवा का झोका आ जाए तो क्रिनोलिन पहनने वाली महिलाएं खुद को ही संभाल नहीं पाती थी.
क्रिनोलिन के कारण मौत होने के आंकडें इतने बढ़ चुके थे कि 1858 में, न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपनी रिपोर्ट में यह लिखा कि क्रिनोलिन से प्रति सप्ताह औसतन तीन मौतें होती हैं. इसे मद्देनज़र रखते हुए महिलाओं को इसे लेकर विचार करना चाहिए.
...लेकिन, लोकप्रियता में नहीं आई कमी
महिलाओं को अपने पिछले स्तरित पेटीकोट की जगह क्रिनोलिन तुलना में ज्यादा हल्का लगता था, जिसके कारण वो इसकी खूब तारीफ किया करती थीं. इन सकारात्मक समीक्षाओं ने न्यूयॉर्क में सबसे सफल निर्माता, डगलस और शेरवुड की हूप स्कर्ट फैक्ट्री को क्रिनोलिन को बड़े पैमाने पर बनाने के लिए प्रोत्साहित किया.
क्रिनोलिन की लोकप्रियता को देख कर व्यंग्यात्मक पत्रिका ‘पंच’ ने क्रिनोलिनमेनिया का वर्णन करते हुए लिखा कि कुछ स्टील कारखानों ने विशेष रूप से क्रिनोलिन बाजार में प्रवेश किया, जो हर दिन लगभग 3,000 क्रिनोलिन बनाया करते थे. इतना ही नहीं, क्रिनोलिन को ख़ासा पसंद करने वाले ग्राहकों तक पहुँचने के लिए ऐसी दुकाने खोली गयी जो केवल इसी में व्यापार करती थी.
बड़े पैमाने पर इसके उत्पादन ने सामाज के विभिन्न स्तरों से आने वाली महिलाओं के लिए क्रिनोलिन को सस्ती बना दिया था. दैनिक अवसरों पर, ज्यादातर महिलाओं ने छोटे क्रिनोलिन प्रारूप पहनने शुरू कर दिए, जबकि बड़े अवसरों पर बड़े आकर वाली क्रिनोलिन पहनी जाती थी, जिनका व्यास 6 फीट तक होता था. क्रिनोलिनेट नामक इस छोटी स्कर्ट की बढ़ते प्रचलन और आरामदायक बनावट के साथ क्रिनोलिन की मांग महिलाओं के बीच घटने लगी.
वैसे तो यह फैशन 1860 के दशक तक ही चला, लेकिन समय-समय पर इसने लोगों के बीच फिर से अपनी मौजूदगी दर्ज की. द्वितीय विश्व युद्ध एक ऐसा ही समय था, जब इसे क्रिश्चियन डायर की नई लुक के हिस्से के रूप में पहना जाता था.
इतना तो कहा जा सकता है कि इस फैशन के आज के दौर में लौटने की उम्मीद और ज़रुरत कम ही है.
आपको ‘क्रिनोलिनमेंनिया’ फैशन ट्रेंड से जुड़ी ये जानकारी कैसी लगी, नीचे कमेंट बॉक्स में लिखना न भूलें.
Web Title: Crinolinemania: Fashion Trend Which Killed Thousands Of Women, Hindi Article
Feature Image Credit: pinterest