2015 में द लंसेट के दिसंबर अंक में नवीनतम अनुमान के आधार पर जारी की गयी रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 15.6 मिलियन गर्भपात हुए. इन 15.6 मिलियन गर्भपातों में से 73% गर्भपात स्वास्थ्य सुविधाओं के बाहर हुए.
हालांकि देश में असुरक्षित गर्भपात में काफी कमी आई है, लेकिन ज़मीनी सच्चाई तो अब भी यही है कि लगभग आठ लाख महिलाएं अवांछित गर्भावस्था को समाप्त करने के लिए असुरक्षित साधनों का सहारा लेती हैं.
गर्भावस्था से संबंधित कारणों से भारत में लगभग हर साल 117,000 महिलाओं और लड़कियों की जान जाती है. यह दुनिया भर में मातृ मृत्यु के कुल आंकड़ों में 25% के लिए जिम्मेदार है. विश्व स्तर पर देखे तो भारत विश्व के सबसे ज्यादा एमएमआर आंकडें वाले देशों में से एक है. भारत इस मामले में पड़ोसी राज्य बांग्लादेश, चीन, नेपाल और श्रीलंका सहित 120 देशों से आगे है.
बता दें कि ये आंकड़े खुद भारत सरकार और विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा जारी किये गए हैं.
आप सोच रहे होंगे कि दो अलग-अलग दिशाओं में जाने वाले मुद्दों की बात एक साथ क्यों की जा रही है. तो आपका ये जानना ज़रूरी है कि ये मुद्दे भले ही अलग हो लेकिन ये एक बहुत ही गंभीर विषय की और इशारा करते है.
आइये जानते हैं कि ये गंभीर विषय कौन सा है, यह संसद और न्यायालय में कितनी चर्चाओं का विषय बना और किस-किस कानून की बुनियाद बना.
प्रजनन अधिकार को किया गया परिभाषित
शुरुआती समय से ही, धार्मिक और नैतिक दबाव के रहते, समाज ने गर्भपात को आपराधिक घोषित करने के लिए कई हत्कंडे अपनाए. ऐसे में अगर आम आदमी गर्भपात की तुलना पाप और अनैतिकता से करने लगे तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं.
कई धार्मिक पाठों में, गर्भपात का अभ्यास करने वाली महिला को एक वैश्या माना जाता था, जो वैश्या के रूप में ही पुनर्जन्म लेगी. समय आगे बढ़ा तो हमारे देश के कानून ने इसे भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत परिभाषित कर दिया.
दंड संहिता की धारा 312 से 316 में लिखा है कि अवैध गर्भपात करने वाले किसी भी व्यक्ति को तीन साल की कारावास और/या जुर्माना होगा. अगर महिला ने गर्भ में शिशु की हलचल को महसूस करना शुरू कर दिया है और यदि इस दौरान गर्भपात किया जाता है तो सजा सात साल तक कारावास और जुर्माने का भुगतान होगी.
साथ ही यह सजा उस महिला पर भी लागू होती है जिसने अपना गर्भपात प्रेरित किया. भारतीय दंड संहिता, 1860 का अधिनियम संख्या 45 गर्भपात की अनुमति केवल तभी दे सकता है जब यह महिला के जीवन को बचाने के उद्देश्य से किया गया हो.
अनुमान लगाया गया कि भारत में हर साल 4 से 5 मिलियन प्रेरित गर्भपात किए जाते थे. इनमें से 3 मिलियन से अधिक अवैध थे. इस हिसाब से लगभग हर सातवीं महिला गर्भपात के लिए असुरक्षित माध्यमों को अपनाती थी.
एम टी पी बिल: सशक्तिकरण की पहल या…
ऊपर लिखे आंकड़ों को मद्देनज़र रखते हुए, स्वास्थ्य मंत्रालय के केंद्रीय परिवार योजना बोर्ड ने गर्भपात के वैधीकरण पर विचार करने की सिफारिश की. इसके लिए श्री शांतिलाल एच शाह की अध्यक्षता में 29 सितंबर, 1964 को एक समिति का गठित हुई.
सरकार ये बात समझने लगी थी कि गर्भपात से जुड़े कड़े कानूनों के कारण लोग गर्भपात के अवैध माध्यमों को अपनाने लगे हैं, जिसके कारण मातृ मृत्यु दर में काफी बढ़ोतरी हुई है. उनका ध्यान इस बात की तरफ भी गया कि एक बड़ी संख्या में माताएं उस बच्चे को जन्म देने की बजाये अवैध गर्भपात से गुजरकर अपनी जान को जोखिम में डालने के लिए तैयार है.
अब वो महिलाओं की नजरों से भी समस्या को समझने के लिए तैयार थे.
शांतिलाल शाह समिति ने सिफारिश दी कि गर्भपात की अनुमति केवल गर्भवती महिला की जान बचने के लिए ही नहीं, बल्कि गर्भवती महिलाओं के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को किसी गंभीर अवस्था से बचाने के लिए भी दी जानी चाहिए, जो बलात्कार आदी घटनाओं का परिणाम हो सकती है.
समिति ने मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी बिल (एम टी पी) 1969 का पहला ड्राफ्ट बिल 17 नवम्बर, 1969 को राज्य सभा में पेश किया. उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी, लेकिन इमरजेंसी के प्रभावों और पार्टी के अंदरूनी मतभेदों के चलते पार्टी लोक सभा में बहुत कमज़ोर पड़ चुकी थी.
इन कारणों से सरकार ने तय किया कि एम टी पी बिल को अभी पास नहीं किया जाएगा. 2 अगस्त 1971 को एम टी पी बिल, 1970 लोक सभा में पेश किया गया, जिसके बाद संसद में इस बिल को पास कर दिया गया. इसे मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ़ प्रेगनेंसी अधिनियम 1971 का नाम दिया गया. आखिरकार इसे 1 अप्रैल 1972 से लागू कर दिया गया.
बताते चले कि एम टी पी अधिनियम, ब्रिटिश गर्भपात अधिनियम, 1967 पर आधारित है.
अधिनियम की धारा 3 के अनुसार अवैध यौन संबंध से होने वाली गर्भावस्था में यदि गर्भपात किया जाये तो ऐसे में भारतीय दंड संहिता की धारा 312 के तहत महिला दंड की भागी होगी.
साथ ही धारा 3 यह भी स्पष्ट करती है कि केवल पंजीकृत चिकित्सक ही ग्राभ्पात कर सकते हैं, जिनके योग्य होने की शर्तें इंडियन मेडिकल काउंसिल अधिनियम, 1956 में प्रभाषित की गयी है.
हालांकि, सिर्फ चिकित्सक का पंजीकृत होना ही काफी नहीं है, गर्भपात के लिए और भी शर्तों का पूरा होना ज़रूरी है.
इसकी सबसे ख़ास शर्त यह है कि यदि गर्भावस्था को 20 हफ़्तों से ज्यादा हो चुके हैं. तो ऐसे में अधिनियम की धारा 5 लागू हो जाती है, जिसके तहत गर्भपात नहीं किया जा सकता.
कानून तय करेगा महिला की कोख पर उसका अधिकार?
यहीं से इस अधिनियम की त्रुटियाँ सामने आने लगती हैं. गर्भावस्था के किसी भी चरण पर एक महिला अपनी इच्छा से गर्भपात नहीं करा सकती. इसे महिलाओं की शारीरिक अखंडता के अधिकार का हनन माना गया है. साथ ही गर्भपात को डॉक्टर-केंद्रित बना दिया गया यानि एक महिला के शरीर पर डॉक्टरों का ही अंतिम विवेकाधिकार होता है.
इसके अलावा कानून केवल चिकित्सा जोखिमों को गर्भपात का आधार मानता है, बाकि कारणों को नकार दिया जाता है, जिसमे वैवाहिक बलात्कार जैसे मुद्दे भी शामिल है. खासकर 20 हफ़्तों की गर्भावस्था के बाद यदि महिला की जान को कोई बड़ा जोखिम हो तभी उसे गर्भपात की अनुमति दी जा सकती है.
एम टी पी अधिनियम के इन्हीं पहलुओं को लेकर कई विरोध हुए, जिसके कारण अक्टूबर 2014 में एक संशोधन बिल संसद में पेश हुआ. इसके तहत गर्भपात की समय सीमा 20 हफ़्तों से बढ़ाकर 24 हफ्तें कर दी गयी.
साथ ही संशोधन के अनुसार पंजीकृत हेल्थकेयर सेंटर भी गर्भपात कर सकते हैं, जिनमें आयुर्वेद और होम्योपैथी चिकित्सकों सहित नर्स और सहायक मिडवाइव भी शामिल है.
"सूचनात्मक गोपनीयता" भी इस संशोधन का एक अहम पहलू माना गया. कोई भी पंजीकृत हेल्थकेयर प्रदाता उस महिला का नाम और अन्य विवरणों की जानकारी किसी को नहीं दे सकता.
संसद में संशोधनों की लंबी सूची प्रस्तुत की गयी, लेकिन यह बिल संसद में पास नहीं हो पाया. ऐसे में सिक्के का दूसरा पहलू जानना भी उतना ही ज़रूरी है और शायद आपको यह विरोधात्मक भी लग सकता है. मानवाधिकार कानून और भारत के संविधान के अनुच्छेद 51 (सी) के अनुसार भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय कानून का सम्मान करते हुए प्रजनन के अधिकार का सम्मान, संरक्षण और पूर्ति करने के लिए बाध्य है.
प्रजनन अधिकारों पर आगे बात करने से पहले आइये बात करते हैं कुछ ऐसी घटनाओं के बारे में जो एम टी पी अधिनियम पर कई सवाल उठाती हैं :
1. मई, 2017 : पटना, बिहार की एक 35 वर्षीय महिला के साथ बलात्कार हुआ. जब उसे सरकारी हस्पताल में दाखिल कराया गया तब उसे पता चला कि वह 17 सप्ताह की गर्भवती थी और साथ ही एड्स की मरीज़ भी.
हालांकि, एम टी पी अधिनयम के अंतर्गत प्रेगनेंसी के 20 हफ़्तों तक गर्भपात कराया जा सकता है, लेकिन इस महिला को गर्भपात का अधिकार नहीं मिला. कार्यवाही पूरी होते होते देर हो गयी. अब 26 हफ़्तों की गर्भावस्था में वो गर्भपात नहीं करा सकती थी. एड्स की बीमारी के साथ ही उसे एक अवैध बच्चे को जन्म देना पड़ा.
2. अगस्त, 2017 : एक 10 साल की बच्ची अपने ही रिश्तेदार के हाथों बलात्कार की शिकार बनी. हस्पताल में पता चला कि वह 30 सप्ताह की गर्भवती है. अदालत में उसके माँ बाप द्वारा दर्ज की गयी अपील को ख़ारिज कर दिया गया. 10 साल की उम्र में उस बच्ची ने सीजेरियन सेक्शन से एक बच्चे को जन्म दिया. बच्ची को बताया गया कि उसका पथरी का ऑपरेशन हुआ है.
निजता का अधिकार बना नयी रोशनी
अब बढ़ते हैं उस तारिख की तरफ जो प्रजनन अधिकारों के क्षेत्र में एक मील का पत्थर साबित हुई.
24 अगस्त, 2017 को भारत के उच्च न्यायालय की नौ न्यायाधीशीय बैठक में एकान्तता के अधिकार को संविधान के तहत एक मौलिक अधिकार का दर्जा दे दिया गया. न्यायाधीश के. एस. पुट्टस्वामी निर्णय ने प्रजनन चुनाव के संवैधानिक अधिकार को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा होने का दर्जा दिया है.
एकान्तता के अधिकार को एम टी पी अधिनियम संशोधन बिल के संसद में पास होने की राह में एक बड़े कदम के रूप में देखा जा रहा है. एकान्तता अधिकार, जिसमे वैश्विक स्तर पर कई तुलनात्मक कानूनी ढांचों की लंबी चर्चा शामिल है.
इसमें ही अमेरिका के ‘रो बनाम वेड’, 1973 का ऐतिहासिक निर्णय भी शामिल है. इस निर्णय में यह साफ़ कर दिया गया कि एक महिला की गर्भपात करने की मर्ज़ी उसके और डॉक्टर के बीच निजी निर्णय के अंतर्गत संरक्षित है.
भारतीय कानून ने प्रजनन अधिकारों के सशक्तिकरण की तरफ कदम तो उठा लिए हैं, लेकिन ये कदम कितनी दूर तक इस अधिकार के संरक्षण के लिए कारगर साबित होंगे ये देखना अभी बाकि है.
इन अधिकारों की वैधता के बारे में आप क्या सोचते हैं, नीचे कमेंट बॉक्स में लिखना न भूलें.
Web Title: Does the Law Control A Woman’s Womb?, Hindi Article
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