जुनून और जिज्ञासा इंसान से कई बार वह कारनामा करवा देती है, जिसके कारण मरणोपरांत भी इतिहास सैकड़ों वर्षों तक उस इंसान को भुला नहीं पाता. इब्र बतूता ऐसे ही एक नाम हैं, जिन्होंने अपनी जिज्ञासा और जुनूनी के दम पर अपने क़दमों से आधी से ज़्यादा दुनिया नाप दी.
आज के समय में लोगों के पास अपार धन है, संसाधन हैं इस कारण से दुनिया घूमना शायद उतनी बड़ी बात ना हो, किन्तु अगर हम बात करें 13वीं शताब्दी की… जब ना लोगों के पास इतना धन था और ना ही संसाधन!
जाहिर तौर पर उस समय में दुनिया घूमना एक कोरी कल्पना से ज़्यादा और कुछ ना रहा होगा, लेकिन इब्न बतूता ने इस कल्पना को वास्तविकता में बदल दिया था.
आइये जानते हैं कि कैसे अपनी हज करने की चाह को पूरा करने के लिए अपना सफ़र शुरू करने वाले बतूता ने यह कैसे किया–
धर्म से अत्यधिक जुड़ाव था, इसलिए…
इब्न बतूता का जन्म 24 फरवरी 1304 को उत्तर अफ्रीका में मोरक्को प्रदेश के प्रसिद्ध शहर तांजियार में हुआ. बतूता काज़ियों के परिवार से सम्बन्ध रखते थे. इब्न बतूता का पूरा नाम ‘इब्न बतूता मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन मुहम्मद बिन इब्राहीम अललवाती अलतंजी अबू अब्दुल्लाह’ था. उनके नाम को एक बार में याद कर पाना बेहद कठिन है, इसीलिए वह केवल इब्न बतूता के नाम से बुलाये जाने लगे.
ऐसा माना जाता है कि इब्न बतूता ने सूनी मलिकी माध’हब से अपनी शिक्षा प्राप्त की. शिक्षा के उपरांत उनसे वहां के काज़ी का पदभार सम्भालने की विनती की गई, किन्तु उनके भाग्य में न्याय करना नहीं, अपितु दुनिया घूमना लिखा था.
बचपन से ही अपने धर्म में उनका अत्यधिक नेह था. इसी नेह के कारण उनके मन में अपने धर्म और उनके धर्म से जुड़े देशों के बारे में जानने की तीव्र इच्छा हुई.
कौन जानता था कि उनकी ये इच्छा इतनी प्रबल है कि उनका नाम इतिहास के पन्नों पर हमेशा के लिए अंकित हो जायेगा… वह भी उस दौर में जब लोग इसकी कल्पना तक करने से बचते थे!
Ibn Battuta (Pic: ledesk)
पहली यात्रा में दस बच्चों की मां से शादी
बतूता को भी इस असम्भव कार्य को सम्भव करने के लिए एक मौके की तलाश थी, जो उसे जून 1325 में 21 साल की आयु में तब मिला, जब उसे हज करने के लिए मक्का जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.
मान्यताओं के अनुसार मुस्लिमों के लिए उनके जीवन एक बार हज करना अनिवार्य है, बतूता भी अपने धर्म को निभाने हज करने के लिए निकल पड़े!
किन्तु उन्हें क्या खबर थी कि वो एक नया इतिहास ही लिखने जा रहे हैं.
उन दिनों बतूता की जन्मभूमि से हज यात्रा के लिए सोलह महीनों का समय लगता था और इतने ही समय का अनुमान लगाकर बतूता घर से चले थे, मगर सफ़र के रोमांच और दूसरे देशों की संस्कृति को जानने की ललक ने उन्होंने लगभग 30 वर्षों के लिए ख़ानाबदोश बना दिया.
बतूता ने अपनी यात्रा एक खच्चर की सवारी के साथ अकेले ही शुरू की, किन्तु जल्दी ही साथ के लिए उन्हें उत्तरी अफ्रीका से पूर्व की ओर जाने वाले यात्रियों का कारवां मिल गया. रास्ता बीहड़ तथा डकैतों के आतंक से ग्रसित था. इसी बीच बतूता को बुखार भी हो गया, जिस कारण उन्हें गिरने से बचने के लिए खुद को काठी से बांध कर यात्रा करनी पड़ी.
तमाम मुश्किलों के बाद भी वह आगे बढ़ते रहे. इसी यात्रा के दौरान उन्होंने एक महिला से शादी की, जिसके पहले से दस बच्चे थे. अपनी यात्रा के दौरान रचाई गयी 10 शादियों में यह उनकी पहली शादी थी.
संतों की भविष्यवाणी
सन 1326 की शुरुआती बसंत में इब्न बतूता लगभग 3500 किलोमीटर की यात्रा करने के बाद अलेक्ज़ेन्ड्रिया पहुंचे. वहाँ उनकी मुलाकात क्रमशः दो ज्ञानी संतों से हुई. उनमें पहले थे शेख़ बुरहानुद्दीन, जिन्होंने इब्न बतूता को देखते ही यह भविष्यवाणी की कि ‘ऐसा जान पड़ता है कि तुम विश्व भ्रमण के लिए ही पैदा हुए हो’. इसी के साथ शेख ने उन्हें बताया कि जब वह भारत जाएँ तो, उनके भाई फरिद्दुदीन, सिंध में रुकुनुद्दीन तथा चीन में बुरहानुद्दीन को उनकी तरफ से दुआ सलाम पेश करें.
इसी दौरान इब्न बतूता ने यह सपना देखा कि एक बड़े से पक्षी ने उन्हें अपने पंखों पर बिठा कर पूरब की ओर एक लम्बी उड़ान भरी है. बाद में उन्हें मिलने वाले दूसरे सूफ़ी संत शेख मुर्शिद ने इस सपने का मतलब समझाते हुए, उनसे कहा कि उन्हें विश्व की यात्रा करनी है.
इन दो भविष्यवाणियों ने बतूता के मन में दुनिया घूमने की लालसा को और बढ़ा दिया. इस जगह पर कुछ हफ़्ते रुकने के बाद बतूता ने काहिरा का रुख किया, जहाँ से उसे मक्का पहुँचने के लिए तीन मार्गों में से एक का चुनाव करना था.
बतूता ने नील नदी पार करते हुए लाल सागर के तट से होकर जाने वाले मार्ग को चुना तथा आगे बढ़ा, किन्तु सफ़र के बीच एक शहर में पहुँचने के बाद, वहां चल रहे स्थानीय विद्रोह के कारण उन्हें वापिस लौट आना पड़ा. वहाँ से उन्होंने एक कारवां के साथ सीरिया से होकर जाने वाले मार्ग को चुना, और मक्का की यात्रा पुनः आरंभ की.
तमाम मुश्किलों को पार करते हुए इब्न बतूता ने अपने पहले लक्ष्य को प्राप्त कर लिया. मक्का में अपना हज करने के बाद बतूता ने इराक, उत्तरी ईरान, तथा बगदाद जाने के लिए अरब के रेगिस्तान को पार किया. इसी दौरान बतूता ने मंगोलों के अंतिम खान अबू सईद से मुलाकात भी की.
माना जाता है कि बतूता तीन वर्षों तक मक्का और मदीना के बीच रहे. इस दौरान उन्होंने दो बार हज किया तथा नयी जगहों का भ्रमण किया.
Ibn Battuta Sketche (Pic: LinkedIn)
…जब भारत पहुंचे इब्न बतूता
मक्का में उन्होंने कई लोगों से पूरब के देशों खास कर भारत के बारे में बहुत कुछ अच्छा सुना. इस कारण उन्होंने घर लौटने की अपेक्षा सफ़र को आगे बढ़ाना सही समझा. आगे बतूता छोटी-बड़ी कठिनाइयों को पार करते हुए 1334 ई अफ़गानिस्तान से होते हुए हिन्दू कुश के रास्ते दिल्ली पहुंचे.
उस समय वहाँ मुस्लिम शासक मोहम्मद बिन तुगलक़ का शासन था.
बीते वर्षों में 21 साल का नौजवान बतूता अब एक जाने-माने तजुर्बेकार यात्री की ख्याति पा चुके थे. इसी कारण मोहम्मद तुगलक़ उनके बारे में पहले भी सुना था. दिल्ली पहुँचते ही तुगलक़ ने गर्मजोशी के साथ बतूता का स्वागत किया.
तुगलक़ इब्न बतूता से इतना प्रभावित हुआ कि उन्हें अपने दरबार में काज़ी नियुक्त कर लिया.
कुछ वर्षों तक बतूता यहाँ अपनी शाही नौकरी के मज़े लेते हुए बड़े आराम से रहे, किन्तु कुछ ही वर्षों में वो शहंशाह के रवैये से भयभीत हो गए. असल में वह हमेशा ही मरने, मारने की बातें करता था. साथ ही वह अपने दुश्मनों को भयावह तरीके से मौत के घाट उतरते के लिए कुख्यात था.
भारत की यात्रा के आगे क्या!
बतूता का मन यहाँ से भर चुका था, किन्तु उसका यहाँ से जाना आसान नहीं था. वह लगातार वहां से निकलने की जुगत में रहते थे. इसी बीच उसे वहां से बच निकलने का बड़ा मौका मिल गया. मोहम्मद बिन तुगलक़ ने उन्हें अपना दूत बनाकर चीन के लिए रवाना किया.
बतूता में अभी यात्रा की भूख बाक़ी थी, इसीलिए वह तुगलक़ द्वारा चीन के राजा के लिए दिए गए उपहारों को साथ लेकर चीन की तरफ रवाना हो गया. हालांकि, उनका रास्ता आसान नहीं था. रास्ते में डाकुओं के समूह ने उन पर हमला भी कर दिया.
हमले के दौरान चीन ले जाने वाले सभी उपहारों को लूट लिया गया तथा बतूता भी बाल-बाल ही बचे. हमले से भयभीत होकर कारवां के बाक़ी लोग अपनी-अपनी जान बचा कर भाग खड़े हुए. जैस तैसे बतूता ने खुद को बचाया और कुछ दिनों में दोबारा अपने कारवां के लोगों को खोज कर यात्रा फिर से आरंभ की.
यात्रा को आगे बढ़ाना उनकी मजबूरी बन चुकी थी, क्योंकि उन्हें यकीन था कि अगर वो इस हाल में वापिस दिल्ली गये तो उन्हें तुगलक़ के क्रोध का प्रकोप झेलना पड़ेगा.
ऐसे में मुसीबतों के दौर में वह आगे बढ़ते रहे. कालीकट के तट से बतूता अपने साथियों के साथ समन्दर मार्ग से आगे बढे. यहाँ भी उन्हें तूफ़ान का सामना करना पड़ा तथा उसके कई साथी मारे गए.
इसी तरह की परेशानियों का सामना करते हुए बतूता श्रीलंका से होते हुए बंगाल की खाड़ी के रास्ते जैसे तैसे चीन पहुंचे.
इब्न बतूता की घर-वापसी और मृत्यु
लगभग तीस वर्षों में 120000 किमी की लम्बी यात्रा करने के बाद इब्न बतूता ने घर लौट जाने का मन बनाया. अंततः 1353 ई. में वह मोरक्को लौट आये.
इतने वर्षों में इब्न बतूता की ख्याति हर जगह फ़ैल चुकी थी. ऐसा कारनामा वहां पहले किसी ने करने का सोचा तक नहीं था… इसी कारण उनके वापिस आने पर उनका बड़े जोर-शोर से स्वागत हुआ. निःसंदेह यह पल उनके लिए बहुत ख़ुशी का रहा होगा, किन्तु इससे बड़ा दुःख उनके लिए यह था कि उनके माता-पिता अब जीवित नहीं थे. उन्हें गुज़रे हुए 15 साल बीत चुके थे.
मोरक्को पहुँच कर जब इब्न बतूता ने वहां के सुल्तान अबू इनन को अपना यात्रा वृतांत सुनाया, तब सुल्तान ने बतूता से इस यात्रा वृतांत को किताब का रूप देने का आग्रह किया.
सुल्तान की बात का सम्मान करते हुए इब्न बतूता ने सुल्तान के दरबारी लेखक इब्न जुजैय को अपना यात्रा वृतांत सुनाया तथा जुजैय ने उसे कलमबद्ध किया. इस किताब को रिहला नाम दिया गया.
इब्न बतूता ने अपना अंतिम समय अपनी मातृभूमि तंजियार में ही बिताया. बाद में वहीं 1368 ई के आसपास उनका देहांत हो गया.
Ibn Battuta Statue (Pic: Azeem)
मृत्यु वह लक्ष्य है, जो हर जीव जंतु अथवा मनुष्य के लिए उसके जन्म के साथ ही सुनिश्चित होती है. किन्तु असल जीवन वही जीते हैं, जो मरकर भी हमेशा के लिए अमर हो जाते हैं.
इब्न बतूता ऐसे ही लोगों में एक थे, जिन्होंने अपने समय में एक अद्भुत कारनामा कर के अपना नाम इतिहास के पन्नों पर अमर कर लिया.
इतिहास उन्हें कभी नहीं भुला पाएगा.
Web Title: Great Traveller Ibn Battuta, Hindi Article
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