सोचिए अगर ऐसा होने लगे कि जितना ज्यादा आप काम करते हैं, दूसरों के मुकाबले आपकी तनख्वाह उतनी ही कम होती जाती है!
इसके होने की अब कल्पना मत कीजिए क्योंकि ये अभी भी हो रहा है.
मोंस्टर सैलरी इंडेक्स डाटा ने यह खुलासा किया कि भारत में लिंग वेतन अंतर कार्य अनुभव के साथ बढ़ता है. इसे आसान शब्दों में कहें तो, जितने लंबे समय तक भारतीय महिलाएं काम करती हैं, उनका उतना ही अधिक वेतन पुरुष सहकर्मियों से कम होता जाता है.
इसके अलावा पढ़े लिखे तबके की नौकरी के साथ लिंग वेतन अंतर का आंकड़ा भी बढ़ने लगता है.
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ग्लोबल लिंग अंतर इंडेक्स 2017 की रिपोर्ट के अनुसार भारत विश्व भर में 108वें स्थान पर रहा. वहीं अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन वैश्विक मजदूरी रिपोर्ट 2016-17 के अनुसार भारत में लिंग मजदूरी असमानता विश्व के सबसे खराब स्तरों में से एक है.
निष्कर्ष यही निकलता है कि हालात गंभीर हैं!
आइये, इस मुद्दे की गंभीरता को समझने के लिए, इसके कुछ अहम पहलुओं पर नज़र दौड़ातें हैं और इसे भारत के संदर्भ में देखने की कोशिश करते हैं-
बराबरी करने के लिए करना पड़ेगा 100 साल का इंतज़ार!
सबसे पहले जानने की कोशिश करते हैं कि लिंग वेतन अंतर आखिर है क्या.
यह देश में लिंग असमानता के कई संकेतकों में से एक है. इससे श्रम भागीदारी को लिंग के संदर्भ में समझा जा सकता है. यानि वेतन निर्धारित करते समय लिंग एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है.
इसी कड़ी में कुछ और आंकड़ों की तरफ नज़र दौड़ाते हैं. भारत में महिलाएं पुरुषों की तुलना में 20 प्रतिशत कम कमाती हैं. हालांकि यह आंकड़ा पिछले साल की तुलना में 5 प्रतिशत कम है. लेकिन, यह अंतर विश्व स्तर पर भारत की तस्वीर नहीं बदल सका.
वहीं 2017 में एक्सेंचर द्वारा वैश्विक सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में महिलाएं पुरुषों की तुलना में 67% कम कमाती हैं. साथ ही यह अनुमान लगाया गया है कि इस अंतर को भरने में 100 से अधिक वर्षों का समय लगेगा.
आपको ये जानकर हैरानी होगी कि मनोरंजन उद्योग(हमारा फिल्म जगत) और सूचना और संचार प्रौद्योगिकी सेवाओं में यह अंतर सबसे बड़ी मात्रा में देखा गया है. संचार प्रौद्योगिकी सेवाओं में जहां यह अंतर 38.2% रहा वहीं हमारी बॉलीवुड इंडस्ट्री भी इस बड़े अंतर से बच नहीं पाई हैं.
महिलाओं का अस्वीकृति से हिचकिचाना है एक बड़ा कारण!
शिक्षा में सुधार और अधिक काम के अवसरों जैसी हालिया सफलताओं के बावजूद, सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दे अक्सर महिलाओं को अपने करियर के महत्वपूर्ण चरणों पर कदम पीछे लेने को मजबूर करते हैं. इससे अंतर को भरना मुश्किल हो जाता है.
लिंग वेतन अंतर के कई कारण हो सकते हैं, जो अलग-अलग देशों की संस्कृति से लेकर अर्थव्यवस्था तक कई पैमानों पर निर्भर करता है. इनमें से एक बड़ा कारण हो सकता है उस समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक मान्यताएं, जो एक पुरुष प्रधान समाज के अनुकूल चलती हैं.
साथ ही, किये गए शोध से यह सामने आया है कि भले ही एक पुरुष की योग्यता नौकरी के 60% विवरणों से मेल खाती है, वो उस नौकरी में आवेदन डाल देते हैं. महिलाओं के साथ ऐसा नहीं देखा गया. वो तभी आवेदन डालती हैं जब उनकी योग्यता नौकरी के विवरणों से 100% मेल खाती हो. कारण वही है कि महिलाएं नए मौकों का लाभ उठाने में हिचकिचाती हैं.
मातृत्व अवकाश से जुड़ी परेशानियां भी इसका एक मुख्य कारण है. महिलाओं का यह अधिकार भले ही भारतीय कानून के पन्नों में लिखा जा चुका है. लेकिन, ज़मीनी सच्चाई आज भी यही है कि मातृत्व अवकाश के कारण महिलाओं को अपने वेतन से कहीं ना कहीं समझोता करना पड़ता है.
भारतीय कानून ने पकड़ ली है मुद्दे की नस!
लिंग वेतन अंतर ने अपनी जड़ें केवल भारत में ही नहीं बल्कि पुरे विश्व भर में फैला रखी है. इसी कारण हर देश ने अपने हिसाब से इसे लेकर कानून तो बनाए ही हैं, लेकिन वैश्विक स्तर पर भी इसे एक बड़ी परेशानी माना गया है.
सर्वराष्ट्रीय मानव अधिकार घोषणापत्र के अनुछेद 23 के अंतर्गत सभी बिना किसी भेदभाव के बराबर काम करने के लिए एक समान वेतन के हकदार है. इसके साथ ही, हर कर्मचारी को अपने और अपने परिवार की मानव गरिमा सुनिश्चित करने योग्य अनुकूल पारिश्रमिक का अधिकार है.
ऐसे कानून की ज़रूरत आज से ही नहीं बल्कि काफी समय पहले से महसूस की जाती थी. 1951 में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने समान मूल्य के कार्यों के लिए पुरुष और महिला श्रमिकों के लिए समान पारिश्रमिक मिलने के संदर्भ में एक सम्मलेन भी किया था.
बात अगर भारत के कानून की करें तो भारतीय संविधान का न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 भी लिंग के आधार पर मजदूरी की न्यूनतम दरों में भेदभाव की अनुमति नहीं देता.
भारत के संविधान में कई अनुछेद ऐसे हैं, जो लिंग वेतन अंतर को कम करने की तरफ लोगों को अग्रसर करते हैं. इनमें से अनुछेद 14, 15, 15(3), 16 इनके कुछ उदाहरणों में से हैं. हमारे संविधान की प्रस्तावना भी सभी को न्याय और समानता प्रदान करता है.
इसी क्रम में अगर हम अनुछेद 39(ड़ी) की बात करें तो यह सीधे लिंग वेतन अंतर से जुड़ा है. इसे समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976 के नाम से भी जाना जाता है.
इस अधिनियम के भाग 3 में यह साफ साफ लिखा गया है कि नियोक्ता का कर्तव्य है कि वह पुरुष और महिला श्रमिकों को समान कार्य या समान प्रकृति के काम के लिए समान पारिश्रमिक का भुगतान करे.
इसके अलावा इसके भाग 4 में यह भी स्पष्ट किया गया है कि एक ही काम या समान प्रकृति के काम के लिए भर्ती करते समय कोई नियोक्ता महिलाओं के खिलाफ कोई भेदभाव नहीं कर सकता.
अगर कोई भी नियोक्ता इन दिशा निर्देशों का खंडन करता है या इनका पालन करने में असमर्थ रहता है तो इस अधिनियम के भाग 10(2) के अनुसार उस पर 20 हज़ार तक का जुर्माना और 2 साल तक की कारावास हो सकती है.
क्या कहता है बाकी देशों का कानून?
भारत की स्थिति का अगर तुलनात्मक अध्ययन करना हो तो इसके लिए पश्चिमी देशों पर गौर फरमाना गलत नहीं होगा. यूरोफाउन्ड़ संगठन द्वारा पूरे यूरोप पर किये गए अध्ययन से यह सामने आया है कि यूरोप के अधिकतर देशों में लिंग वेतन अंतर में काफी गिरावट आई है.
जिन देशों में इस संगठन ने शोध किया उनमें से 8 देश ऐसे थे जिनमें लिंग वेतन अंतर रखना संविधानों द्वारा स्पष्ट रूप से निषिद्ध है. फिनलैंड, फ्रांस, जर्मनी, ग्रीस, इटली इन्हीं में से कुछ देशों के उदाहरण हैं.
उम्मीद की किरण पेश करने वाले इन्हीं देशों की कड़ी में आइसलैंड ने एक मिसाल पेश की है. आइसलैंड दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया है जिसने लिंग वेतन अंतर को कानूनी तौर पर अवैध घोषित कर दिया है.
अब कंपनियों को न केवल महिलाओं को समान वेतन देना होगा बल्कि नए नियमों के तहत, कम से कम 25 लोगों को रोजगार देने वाली कंपनियों और सरकारी एजेंसियों को अपनी समान वेतन नीतियों का प्रमाण सरकार को देना होगा.
बात अगर अमेरिका की करें तो उसे विश्व का सबसे विकसित देश माना जाता है. वहां महिलाओं को 1963 में समान वेतन अधिनियम का कानून तो मिला लेकिन, आज तक भी यह अधिनियम जमीनी सच्चाई का रूप नहीं ले पायी है.
इसी को मद्देनज़र रखते हुए 2009 में राष्ट्रपति ओबामा ने लिली लेडबेटर फेयर एक्ट पर हस्ताक्षर किए, जिसका उद्देश्य बराबर वेतन कानून को बहाल करना और सुधारना था.
तो ऐसे बदल सकती है भारत की तस्वीर!
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का मानना था कि देश के बदलाव की तस्वीर गाँव की ज़मीन पर ही बनाई जा सकती है.
अगर आपको इस वाक्य की वैधता पर संदेह तो आपका ये जानना ज़रूरी है कि भारत में जहां 99 प्रतिशत व्यावसायिक क्षेत्रों में महिलाओं को पुरुषों से कम वेतन दिया जाता है, वहीं ग्रामीण इलाकों के निर्माण क्षेत्र में, महिलाओं (शिक्षा के स्तर के बावजूद)को प्रति दिन औसतन 322 रुपये का भुगतान किया जाता है जबकि पुरुषों को 279.15 रुपये का भुगतान किया जाता है, जो 13% कम है.
इन आंकड़ों से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि लिंग वेतन अंतर कम करने में हमारे गाँव कितना बड़ा योगदान दे सकते हैं.
वहीं इस अंतर का दूसरा पहलू इस बदलाव में पूरे देश की भूमिका दर्शाता है. एक्सेंचर द्वारा की गयी रिसर्च ने यह अनुमान लगाया है कि यदि व्यवसाय, सरकार और शिक्षा महत्वपूर्ण समर्थन प्रदान करते हैं तो औसत वेतन अंतर 100 की जगह केवल 36 सालों में पूरा हो सकता है.
अगर उन्हें द्वितीय नागरिक का दर्जा मिलेगा तो देश के विकास में योगदान करने का आत्मविश्वास उनमे कहाँ से आएगा.
महिलाओं के खिलाफ भेदभाव को खत्म करने के लिए, भर्ती करते समय कंपनी को कर्मचारी का लिंग न देख कर कर्मचारियों की योग्यता, उनकी उत्पादकता देखनी चाहिए.
यह इतना मुश्किल भी नहीं, क्यों?
Web Title: 100 Years More To Attain Equality?, Hindi Article
Feature Image Credit: edition.cnn