मनुष्य शुरुआत से ही खानाबदोश रहा!
वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर अपने और अपने परिवार की सुविधा के अनुसार अपना बसेरा बनाता और उजाड़ता रहा. यही कारण रहा है कि दुनिया भर के देशों में दूसरे देशों के मूल नागरिक अपना आशियाना बसाए नजर आते हैं.
वहीं दूसरी तरफ तमाम देशों की सरकारें भी अपने नागरिकों का ख्याल रखने के लिए विदेशी जमीन पर अपने-अपने दूतावास खोले बैठी हैं. उनके देश के नागरिकों को किसी भी प्रकार की दिक्कत होने पर वह अपने दूतावासों के जरिये उन्हें तत्काल मदद मुहैया कराती है. फिर चाहे बात प्राकृतिक आपदाओं की हो या फिर युद्ध के दौरान आपातकालीन स्थिति की.
किन्तु, क्या आपने सोचा है कि अगर किसी देश में गृहयुद्ध के दौरान किसी दूसरे देश के दूतावास पर ही कब्जा कर लिया जाए तो स्थिति कैसी होगी?
कुछ ऐसा ही हुआ था ईरान में जारी गृहयुद्ध के दौरान!
जब ईरान की राजधानी तेहरान में मौजूद अमेरिकी दूतावास पर ईरानी क्रांतिकारियों ने कब्जा कर वहां मौजूद तमाम अमेरिकियों को बंधक बना लिया था.
इससे भी बड़ी दिलचस्प बात तो यह थी कि शक्तिशाली होने के बावजूद अमेरिका अपने सैन्य ताकत के बल पर अपने लोगों को आजाद नहीं करा पाया था. उसे अंतत: बातचीत का रास्ता ही चुनना पड़ा था.
तो आईये जानने की कोशिश करते हैं कि ऐसे कौन से कारण रहे कि अमेरिका ‘ऑपरेशन ईगल क्लॉ’ नाम के अपने मिशन में विफल रहा–
ईरान की ‘इस्लामिक-क्रांति’ बनी थी वजह
ईरान में साल 1979 में इस्लामिक क्रांति की आग को हवा मिल गई. नतीजा यह रहा कि वहां के लोग पहलवी राजवंश के शाह मोहम्मद रजा का तख्ता पलट करने में लग गए. वह उनसे खासे असंतुष्ट थे. वह रजा को ईरान में इस्लाम की भूमिका को कम का जिम्मेदार मानते थे. उन्हें लग रहा था कि रजा ईरान को आधुनिक देश बनाने के चक्कर में उनके हितों को दरकिनार कर रहे हैं.
इस कारण धार्मिक नेताओं समेत उनके अपने समर्थक भी उनके खिलाफ हो गए. साथ ही उन्हें अमेरिका का पिट्ठू कहने लगे. धीरे-धीरे असंतोष बढ़ा तो विरोध के सुर तेज होते गए. रजा लगातार इन विरोध सुरों को दबाने की कोशिश करते रहे, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिला.
अंतत: बात ज्यादा बिगड़ गई और उनकी जान पर बन आई तो वह देश छोड़कर अमेरिका चले गए. अमेरिका द्वारा उसकी मदद किया जाना उनके विरोधियों को रास नहीं आया. उन्होंने उसको सबक सिखाने के इरादे से तेहरान में मौजूद उसके दूतावास पर कब्जा कर लिया. साथ ही उसके सभी लोगों को बंधक बना लिया.
उन्होंने अमेरिका को संदेश दिया कि अगर वह अपने लोगों की खैरियत चाहते हैं तो रजा को उनके हवाले कर दें, ताकि वह अपने हिसाब से फैसला कर सकें.
Iran Hostage (Pic: UFO Insight)
अमेरिका ने लगाया एड़ी-चोटी का जोर, लेकिन…
ताकत के मद में चूर अमेरिका ने उनकी बात को हल्के में ले लिया. नजीता यह रहा कि उसके लोगों को करीब 444 दिन तक रजा के विरोधियों की कैद में रहना पड़ा.
ऐसा नहीं था कि ईरान में फंसे अपने लोगों को बचाने के लिए इतने दिनों तक अमेरिकी सरकार ने कुछ नहीं किया. अमेरिका के राष्ट्रपति जिमी कार्टर को जैसे ही इसकी खबर मिली उन्होंने तेहरान के डिप्लोमैट्स से बात की, लेकिन उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ. इसी क्रम में उनके ऑटर्नी जनरल रामसे क्लार्क ने भी ईरान में मौजूद अपने कुछ ईरानी अधिकारियों से मिलकर इस मसले को हल करने की कोशिश की, लेकिन उनके हाथ भी मायूसी लगी.
विरोधी किसी भी कीमत पर उनकी बात मानने के लिए तैयार नहीं थे. वह रजा को देने की बात पर अड़े रहे. क्रांतिकारियों की मांग थी कि अमेरिका, ईरान के घरेलू मामले में दखल देना बंद करे और मोहम्मद रजा को देश में वापिस भेजकर उस पर मुकदमा चलाने दिया जाए.
जबकि, अमेरिका ने उनकी शर्तें नहीं मानी. उनसे अमेरिका में ही रजा के खिलाफ मुकदमा और जांच कराने की बात कही, जिसे ईरानियन विदेश मंत्री ने नकार दिया. यह अमेरिका के गले से नहीं उतरा और उन्होंने एक रेस्क्यू ऑपरेशन कर अपने सभी बंधक बनाए गए नागरिकों को वहां से निकालने का प्लान बनाया.
मगर फेल हो गया ‘ऑपरेशन ईगल क्लॉ’
अमेरिकी सेना ने एक स्पेशल कंमाडो फोर्स का गठन कर अपने बंधक नागरिकों को तेहरान से निकालने का प्लान बनाया. इसका नाम रखा गया ऑपरेशन ईगल क्लॉ. इस मिशन के तहत अमेरिकी सैनिकों को रात के समय चुपके से जाकर अपने नागरिकों को बचाना था.
हालांकि यह इतना भी आसान काम नहीं था. इसमें बहुत ज्यादा जोखिम था. रजा के विरोधी सोते-जागते अमेरिकी बंदियों पर अपनी नज़र बनाए हुए थे. सुरक्षा इंतजाम कुछ ऐसे किए गए थे कि परिंदा भी पैर नहीं मार सकता था.
बावजूद इसके अमेरिकी कमांडो इसे पूरा करने के इरादे से 24 अप्रैल 1980 की रात अपने टारगेट की तरफ निकले. उन्हें उम्मीद थी कि वह जल्द ही इस काम को निपटा देंगे, मगर ऐसा हो न सका. जैसे ही उनके हेलिकॉप्टर निकले, वैसे ही खराब मौसम उनका दुश्मन बन गया.
अचानक आए रेत के तूफ़ान ने उन्हें कमजोर कर दिया. यह तूफ़ान इतना तेज था कि हेलीकॉप्टरों का उड़ना मुश्किल हो गया था. नजीता यह रहा कि अमेरिकी हेलीकॉप्टर्स को तुरंत लैंडिग करनी पड़ी. इस कोशिश में उनके कई हेलीकॉप्टर्स दुर्घटना भी हो गए. इस हादसे में करीब आठ अमेरिकी सैनिक मारे गए.
यह उनका बड़ा नुकसान था. इसरी खबर जैसे ही बड़े अफसरों को लगी, उन्होंने यह मिशन कैंसिल कर दिया और सभी सैनिकों को वापस बुला लिया. अमेरिका ने सोच लिया कि वह कोई भी रेस्क्यू मिशन नहीं करेगा, इसकी बजाए वह दूसरे विकल्पों को खोजेगा.
Operation Eagle Claw (Pic: NBC)
‘यूएन की दखल’ से निकला रास्ता
इसी कड़ी में उसने कूटनीति का प्रयोग करते हुए ईरान पर अपने सहयोगी देशों के साथ मिलकर तमाम तरह के व्यापारिक प्रतिबंध लगा दिए. उन्होंने ईरान की जान उसके तेल के व्यापार को बंद करने की कोशिश की. इस सबकी मदद से वह ईरान में आने वाले पैसे को रोकना चाहते थे, ताकि ईरान को कमजोर किया जा सके.
वहीं दूसरी तरफ इराक ने ईरान पर हमला कर दिया और ईरान और इराक में युद्ध शुरू हो गया. यहां अमेरिकी सेना ने इराक का साथ देते हुए ईरान की सेना को तहस-नहस कर दिया.
मजबूरन ईरान के राजनयिकों को यूएन से मदद की गुहार लगानी पड़ी. वह बात और थी कि यूनाइटेड नेशन्स से उसे सकारात्मक परिणाम नहीं मिले. उसने फरमान सुनाते हुए कहा कि यह सब तब बंद होगा जब अमेरिकी बंधक रिहा होंगे. अंतत: ईरान को भी झुकना पड़ा और अमेरिका के साथ बातचीत करनी पड़ी.
अल्जीरिया के राजनयिकों ने ईरान और अमेरिका के बीच मध्यस्थता की. इस तरह 1981 की शुरूआत में दोनों के बीच समझौता करा दिया गया. इस समझौते के मुताबिक, अमेरिका ने ईरान पर लगाए तमाम प्रतिबंध वापिस लेने और उनकी फ्रीज की गई धनराशी भी लौटानी थी. वहीं ईरान को बदले में अमेरिका के सभी बंधकों को छोड़ना था.
इसके बाद 20 जनवरी 1981 को अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के शपथ ग्रहण समारोह के बाद ईरान ने सभी होस्टेस को रिहा कर दिया.
इस पूरे घटनाक्रम ने ईरान और अमेरिका दोनों देशों की राजनीति पर गहरा असर डाला. एक तरफ ईरान एक इस्लामिक गणराज्य बन गया तो दूसरी तरफ अमेरिका में राष्ट्रपति की कुर्सी बदल गई.
वहीं ईरान और अमेरिका के रिश्तों पर ‘ईरानी होस्टेस क्राइसिस’ का बहुत बुरा असर हुआ. दशकों तक उनके संबंधों में इसका परिणाम देखने को मिलता रहा.
पर्दे पर उतर चुकी है ‘कहानी’
ईरान में हुई इस घटना पर हॉलीवुड में एक फिल्म भी बनाई जा चुकी है. इस फिल्म का नाम था आर्गो, जिसे 85वें अकादमी अवॉर्ड समारोह में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अवॉर्ड दिया गया. इसके अलावा इसे बाफ्टा तथा गोल्डन ग्लोब में भी सर्वश्रेष्ठ फिल्म के पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. इस फिल्म को बेन अफलेक ने डॉयरेक्ट किया था और इसके लीडिंग हीरो भी वही थे.
इसे दर्शकों ने खूब पसंद किया था. यही वजह है कि साल 2012 में रिलीज हुई इस फिल्म ने उस साल की सर्वश्रेष्ठ पिक्चर का ऑस्कर अवार्ड भी अपने नाम किया था. इसके बाद से ही पूरे विश्व इस तरह की फिल्में बनाई जानें लगी थीं.
Shah Chief Argo Tease (Pic: thedailybeast.)
साल 2013 में रिलीज हुई बॉलीवुड स्टार जॉन अब्राहम की फिल्म मद्रास कैफे को भी भारत की आर्गो मूवी बताया गया था. इसमें श्रीलंका में उस वक्त चल रहे गृहयुद्ध और भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्याकांड की कहानी से प्रेरित माना जाता है.
वैसे इस तरह के बंधकों के आगे देश की सरकारें तक कमजोर हो जाती हैं, इस बात में दो राय नहीं!
आप क्या कहेंगे?
Web Title: Story of Operation Eagle Claw, Hindi Article
Feature Image Credit: Business Insider