19वीं सदी के मध्य तक चीन के गौरवशाली इतिहास पर धूल की पर्तें चढ़ चुकीं थीं. औपचारिक रूप से किसी विदेशी ताकत का प्रभाव चीन पर नहीं था, लेकिन देश की स्थिति किसी गुलाम देश से ज्यादा बेहतर नहीं थी.
उस दौर में चीन में यूरोपीय शक्तियों से संघर्ष जारी था. इतिहासकारों ने इस घटना को 'खरबूजे का बंटवारा' करार दिया. यानि ऐसा फल, जो शक्ति-संपन्न व्यक्ति इच्छानुसार फांक-फांक काटकर आपस में बांटते हैं और खाते हैं.
इसी युग में चीन में एक ऐसी यादगार क्रांति हुई, जिसने नया इतिहास रचा.
इस क्रांति को ‘चीन की साम्यवादी क्रांति’ के रूप में जाना गया और क्रांति के नायक थे ‘माओ से-तुंग‘. चीन के बदलाव की यह आग पूरी दुनिया में फैली और भारत भी उससे अछूता नहीं रह पाया. भारत में इस क्रांति को ‘माओवाद’ नाम दिया गया, जो नायक ‘माओ से-तुंग’ के नाम से प्रेरित है.
पर क्या कोई जानता है कि क्रांति का यह नायक लाखों मौतों के लिए भी जिम्मेदार है!
जी हां! यह सच है. माओ ने स्टालिन की तरह ही देश में क्रांतिकारी परिवर्तन करने की चाहत रखी और इसी सपने को पूरा करने के लिए शुरू किया ‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ आंदोलन. माओ का सपना तो पूरा नहीं हुआ, लेकिन इस आंदोलन ने देश को अकाल के दरवाजे पर ला खड़ा किया.
नतीजतन लाखों लोगों ने भूख से बिलखते हुए दम तोड़ दिया.
तो चलिए जानते हैं कि आखिर क्या था माओ से-तुंग का सपना ‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ जो चीन में हुई लाखों मौतों का जिम्मेदार बना!
क्रांति में शामिल होने के लिए छोड़ दी थी पढ़ाई
दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में माओ को लेकर काफी विवादित विचारधाराएं हैं.
जबकि, चीन में उन्हें महान क्रान्तिकारी, राजनैतिक रणनीतिकार, सैनिक पुरोधा एवं देशरक्षक के रूप में याद किया जाता है. माओ ने अपनी नीति और कार्यक्रमों के माध्यम से आर्थिक, तकनीकी एवं सांस्कृतिक विकास के आधार पर चीन को विश्व मंच पर ला खड़ा किया.
वे केवल अच्छे रणनीतिकार ही नहीं, बल्कि दार्शनिक, दूरदर्शी प्रशासक और कवि भी थे. चूंकि आगे हम ‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ की बात करने वाले हैं इसके पहले उसके जनक माओ के बारे में जान लेना चाहिए.
माओ का जन्म 26 दिसम्बर 1893 में हूनान प्रान्त के शाओशान क़स्बे में हुआ था. पिता साधारण किसान थे, जो आगे चलकर गेहूँ के व्यापारी बन गए. माओ ने 13 साल की उम्र में स्कूल छोड़ दिया और पिता के साथ खेतों में काम करना शुरू किया.
हालांकि, पढ़ाई के प्रति उनका लगाव देखकर पिता ने चांगशा के स्कूल में माओ का दाखिला करवा दिया. यहीं माओ को हूनान के स्थानीय रेजिमन्ट में भर्ती होने का मौका मिला. वह दौर जिन्हाई क्रांति का था. माओ ने भी क्रांति में हिस्सा लिया.
जब क्षेत्र में चिंग राजवंश की सत्ता आ गई, तो वे क्रांति की जंग से हटकर वापिस पढ़ाई में मशरूफ हो गए. 1918 में स्तानक करने के बाद वे 1919 में प्राध्यापक यां च्यां जि के साथ बेइजिंग की यात्रा पर गए. उन्हीं के कहने पर माओ को स्कूल की लाइब्रेरी में ही नौकरी मिल गई.
बाद में उन्होंने यां च्यां जि की बेटी के साथ शादी की और शंघाई चले गए. यहीं उन्हें साम्यवादी सिद्धान्तों को जानने का मौका मिला.
पैदा हुई ग्रेट ब्रिटेन से आगे निकलने की चाह
साम्यवादी विचारधारा को मानने वाले माओ चीन कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष बने.
नवंबर 1956 में माओ ने सोवियत संघ का दौरा किया, जहां उनकी मुलाकात निकिता ख्रुश्चेव से हुई. निकिता ने दावा किया कि 15 वर्षों के भीतर उनके देश को संयुक्त राज्य अमेरिका की ताकत खत्म कर दी जाएगी. यहां रहते हुए माओ ने सोवियत के रीति रिवाजों को समझा और तय किया कि वे अपने देश में औद्योगिकीकरण और सामूहीकरण के माध्यम से कृषि अर्थव्यवस्था में बदलाव लाएंगे.
सोवियत से वापस आने के बाद उन्होंने ‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ नीति की घोषणा कर दी. उन्हें विश्वास था कि चीन यही इस नीति पर काम करेगा तो देश की अर्थव्यवस्था में तेजी आएगी और केवल 15 सालों के भीतर ही ग्रेट ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था से आगे निकल जाएंगे.
माओ का विचार था कि चीन में परिवर्तन का मूल, उसकी तेजी से बढ़ती आबादी में छिपा है.
यदि यह आबादी व्यवस्थित तरीके से विकसित की जाए, तो सामाजिक और आर्थिक बदलाव देखे जा सकते हैं. इसके अलावा फसलों को आय का अच्छा स्त्रोत बनाया जा सकता है, जिसके लिए कृषि भूमि की आवश्यकता थी.
ऐसे में माओ ने रातों-रात जमीनों के सौदे किए. हालांकि, अनुभवी योजनाकारों और इंजीनियरों ने सलाह दी कि उत्पादन को इतनी जल्दी कई गुना नहीं बढ़ाया जा सकता, लेकिन माओं के अपने तरीके थे और इसलिए उसने किसी की सलाह पर ध्यान देने की बजाय उत्पादन बढ़ाने पर गौर किया.
अपने लिए समर्थन जुटाने की जद में माओ ने नेताओं को हराया, विरोधियों को बर्बाद कर दिया और मिश्रित राजनीति की घोषणा कर दी.
नतीजतन कुछ चापलूस लोगों के हाथ में सत्ता का नियंत्रण आ चुका था.
गलत रिपोर्ट का नतीजा आम जनता ने भुगता
कुछ ही सालों में कृषि क्षेत्र में ‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ नीति लागू कर दी गई.
इस दौरान 23 हजार गांवों में गतिविधियां संचालित होना शुरू हुईं. नीति के तहत काम करने का तरीका बिल्कुल अलग था. किसान अब केवल किसान नहीं रह गया था, बल्कि उसके साथ सैनिकों जैसा सलूक किया जाता था. उनके लिए अलग बैरक बनाए गए, जहां किसानों और ग्रामीणों को बीगल खेलेने भी बुलाया जाता था.
महिलाओं, किसानों और आम ग्रामीणों के लिए कार्यशालाएं आयोजित होना शुरू हुईं, जिसमें सभी की उपस्थिति अनिवार्य कर दी गई. बच्चों के लिए डे केयर बनाए गए. नीति के अनुसार अब जमीनों पर निजी कब्जे नहीं थे, बल्कि जो कुछ था, वह चीन की सरकार का था.
सारी जमीने ‘कॉमन्स के नियंत्रण’ में चलीं गईं. सर्दी और गर्मी में काम करने के 28 दिन तय हुए. यदि काम समय पर पूरा नहीं होता था, तो किसान को दंड देने का प्रवधान भी रखा गया. अवकाश लेने पर या काम न करने की स्थिति में उन्हें अपमानित किया जाता.
कई बार तो खाना तक नसीब नहीं होता था. इस पूरी नीति को सही रूप से लागू करने और नजर रखने के लिए राजनीतिक आयुक्त और कर्मचारी भी तैनात किए गए. यूं तो चीनी समाज में माओवाद का बहुत ही अलग प्रभाव था, पर अब हालात बदलने लगे थे.
सरकार की मांग में वृद्धि हो रही थी, मगर...
प्रांतीय नेताओं को उत्पादकता के मूलभूत तरीके सीखने के लिए बीजिंग भेजा गया. इसके बाद कम्यून भेजा गया, ताकि वे स्टील के उत्पादन के बारे में भी समझ सके. दोनों दौरों के बाद नेताओं को उनके लक्ष्य सौंप दिए गए.
हालांकि, नेताओं के काम का कोई खास असर नहीं रहा और लक्षय अधूरा ही रहा. किसी भी परेशानी से बचने के लिए प्रांतीय नेताओं ने झूठी रिपोर्ट तैयार कर बताया कि उन्हें बड़ी सफलता मिली है.
यह जानकारी माओ तक पहुंची और उसे लगा कि ‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ नीति बेहतर तरीके से काम कर रही है.
माओ ने सरकार से कमीशन खाने के लिए उत्पादन की रिपोर्ट भेजी और मुनाफे का हिस्सा मांगा. नीति के प्रभाव से कुछ क्षेत्रों में उत्पादन हुआ भी था पर समग्र तस्वीर वास्तव में नकारात्मक थी. एक ओर सरकार की मांग में वृद्धि हो रही थी और दूसरी ओर लोगों का गांव से पलायन जारी था.
औद्योगिक क्षेत्र में भी दिखे खराब परिणाम
1958 में फसल उत्पादन 200 मिलियन टन था जिसे आधिकारिक रिपोर्ट में 375 मिलियन टन अनाज का उत्पादन बताया गया.
केंद्र सरकार ने अनाज के निर्यात में वृद्धि की है, जिसे पूरा करने के लिए किसानों को रात दिन काम करना पड़ा. हालांकि, इससे घाटे की भरपाई नहीं हो सकी. इसके बाद केंद्रीय नेताओं और सरकारी अधिकारियों ने ग्रेट लीप की विफलता के बारे में बातें करना शुरू किया.
किन्तु, फिर भी सरकार ने अनाज निर्यात करना बंद नहीं किया.
विपक्ष ने इस नीति का विरोध किेया और कहा कि इससे देश में अकाल की स्थिति बन सकती है, पर सत्ताधारियों ने इस संकट को नजरअंदाज करते हुए निर्यात जारी रखा. वहीं दूसरी ओर देश के औद्योगिक क्षेत्र में गिरावट दर्ज की गई.
हालांकि, देश में नए कारखानों की स्थापना हो रही थी और मजदूर दिन रात काम कर रहे थे, लेकिन इंजीनियर्स ने अंदेशा जताया कि यदि ऐसे ही काम चलता रहा तो उपरकरण खराब हो सकते हैं और मजदूरों के साथ हादसा हो सकता है.
साथ ही उत्पाद की गुणवत्ता भी प्रभावित होगी. आखिर यह बात सच साबित हुई और 1962 तक औद्योगिक उत्पादन आधा हो गया.
मार दिए गए चूहे, मच्छर और चिड़ियां
ग्रेट लीप के दौरान 1958 से 1960 तक चीन में एक विचित्र आंदोलन शुरू हुआ. माओ ने कहा कि चूहे, मच्छर, मक्खियां और चिड़ियां आदि मानव के दुश्मन है इन्हें मार देना चाहिए. इन्हें खत्म करने के लिए आम लोगों से लेकर सेना तक का इस्तेमाल हुआ. पक्षियों को मारने का दूरगामी परिणाम यह हुआ कि फसलों में लगने वाले हानिकारक कीड़े खाने के लिए कोई साधान नहीं बचा. चूहे, मच्छर, मक्खियां मारने के भी दूरगामी परिणाम आए.
ग्रेट लीप को किसी भी हाल में सफल बनाने की धुन में माओ अकाल की दस्तक को महसूस नहीं कर पाया. उसे किसी के भी मुंह से ग्रेट लीप की आलोचना स्वीकार नहीं थी. जिद्दी प्रकृति के कारण उसने सालों तक ग्रेट लीप नीति को देश में लागू रखा.
माओ को चीन में जरूरत से ज्यादा शक्ति और सत्ता हासिल थी, जिसका उसने फायदा उठाया.
ग्रेट लीप उसके लिए एक तार्किक योजना थी. उसने एक बार कहा था कि हाथ की दस अंगुलियों में से नौ विफलता का प्रतीक है.
पर कम से कम एक सफलता दर्शाती है, इसलिए विफलता को स्वीकार किया जाना चाहिए ताकि, सफलता बहुत व्यापक हो सके, लेकिन उसकी बातों से परे ग्रेट लीप की सफलता व्यापाक नहीं थी.
अकाल के साथ ग्रेट लीप समाप्ति
नतीजतन 1959 से 1961 तक चीन में बड़ा अकाल पड़ा. लोगों के पास घर में खाने को अनाज का दाना नहीं था. दूसरी तरफ केन्द्र सरकार अनाज का निर्यात कर रही थी. जो बच रहा था, वो सभी की पूर्ति के लिए काफी नहीं था. आखिर एक के बाद एक लोगों ने भूख से दम तोडना शुरू कर दिया. आलम यह था कि जब अनाज नहीं मिला, तो लोग अपने ही जानवरों को मार कर खाने लगे.
हालांकि, यह क्रम भी लंबा नहीं चला...
वह समय इतना दुर्भायपूर्ण था कि चीनी सरकार ने अगले दो दशकों तक कोई जनगणना नहीं की. जब 1982 में जनगणना के नतीजे सामने आए तो खुलासा हुआ कि ग्रेट लीप के बाद आए अकाल में कई मिलियन लोगों की मृत्यु हो गई थी.
अब सवाल यह आता है कि इस भयानक अकाल के मुंह में देश की जनता को धकेलने वाला माओ इतना लोकप्रिय कैसे हो सकता है!
हालांकि, बाद में माओ ने यह महसूस किया कि उसकी महत्वकांक्षा ने लाखों लोगों की जान ले ली. यही कारण है कि 1960 में उसने योजना को खत्म कर दिया. गलत योजना, अकाल और अन्य जटिलताओं के कारण देश में पार्टी की स्थिति खराब हो गई थी.
हालांकि, इसे बदलने के लिए माओ ने एक और दुर्भावनापूर्ण सांस्कृतिक क्रांति (1966-1976) की शुरूआत की.
हालांकि, यह एक और कहानी है, जिसकी चर्चा फिर कभी...
Web Title:Mao's Great Leap to Famine, Hindi Article
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