प्रथम विश्वयुद्ध से जुड़े किस्सों और कहानियों से अक्सर उस समय के गुलाम देशों से आने वाले सैनिक नदारद रहते हैं. जबकि यूरोपीय ताकतों ने इन सैनिकों का जमकर इस्तेमाल किया.
पर कहते हैं न कि किस्से लोगों तक पहुंचने का कोई न कोई जरिया बना ही लेते हैं. सिसिर सर्बाधिकार का प्रथम विश्वयुद्ध पर लिखा हुआ संस्मरण भी कुछ ऐसा ही करता है. 'ऑन टू बगदाद' नामक इस संस्मरण में प्रथम विश्वयुद्ध के कई किस्से दर्ज हैं.
ऐसे में सिसिर सर्बाधिकार और उनके इस संस्मरण को जानना दिलचस्प रहेगा-
'एम्बुलेंस कॉर्प्स' के जरिए सेना में हुए भर्ती
अगस्त 1914 में इंग्लैण्ड ने जर्मनी और ऑस्ट्रिया पर हमला बोल दिया. इसके लिए भारतीय सैनिकों की भर्ती शुरु हुई. इसी क्रम में एम्बुलेंस कॉर्प्स का गठन किया गया. तात्कालिक वायसराय से इसे मंजूरी भी मिल गई.
इसी एम्बुलेंस कॉर्प्स का हिस्सा बने 'सिसिर सर्बाधिकार'. भर्ती होने के बाद उन्हें मेजर जनरल चार्ल्स टाउनशेंड की छठी पूणा डिविजन के साथ 1915 में बंबई से इराक के बसरा के लिए रवाना किया गया. हफ्ते भर में वह वहां पहुंच गए!
शुरूआत में ही 3 तीन नवंबर 1915 को उनकी सेना ने इराके के साहिल, कुर्ना और कुत-अल अमारा पर कब्जा कर लिया. उन्हें लग रहा था कि वो बगदाद को भी आसानी से जीत लेंगे.
इसके अलावा कुछ और भी हो सकता है, ऐसा ख्याल उनके जेहन में नहीं था. कुछ यूनिटों में तो अंग्रेजी अफसर ये तक कहने लगे थे कि वो 1915 की क्रिसमस बगदाद में ही मनाऐंगे.”
हालांकि, उन्हें कुत में ही सिमट कर रहना पड़ा. मेजर टाउनशेंड ने ऑटोमन सेना के सामने घुटने भी टेक दिए थे.
युद्ध के बीच मानवता की अनूठी तस्वीरें
इसी बीच एक समय आया, जब उन्हें युद्ध में घायल लोगों की सेवा में जुटना पड़ा. इस दौरान उन्होंने देखा कि एक सिख सैनिक उनके सामने बैठकर मुस्कुरा रहा है. इससे चिड़ते हुए सिसिर उसके करीब पहुंचते हैं तो देखते हैं कि वो मर चुका था!
सिसिर लिखते हैं कि कैसे युद्ध ने हिंदु-मुस्लिम होने के बीच की दूरियों को कम किया था.
युद्ध के दौरान घायल लोगों की सेवा करते हुए उन्हें एक सूबेदार को उठाना पड़ा था. सूबेदार का वजन बहुत ज्यादा था इसलिए उनके एक साथी के मुंह से निकल गया कि बाप रे बाप! कितना भारी है.
ये सुन कर घायल सूबेदार मजाकिया लहजे में बोल पड़े कि क्या मतलब है भारी है! केवल 108 किलो के ही तो हैं...
बाद में सूबेदार को पता चला कि सिसिर और उनकी मदद करने वाले बाकी साथी भूखे हैं, तो उन्होंने अपने हिस्से का खाना उन्हें दे दिया था. गौर करने वाली बात तो यह थी कि 'वो सूबेदार मुस्लिम था, जबकि सिसर और उसके साथी हिंदू थे.
बावजूद इसके उसने उनकी मदद की!
इस्लाम के नाम पर दरार डालने की चाह
सिसिर ने अर्मेनिया के लोगों के नरसंहार और तुर्कों की दयनीय दशा के बारे में भी लिखा. उन्होंने बताया कि कैसे ब्रिटिश सैनिकों को युद्ध बंधी बना लिए जाने के बाद उन्हें तपती गर्मी में मीलों पैदल चलना पड़ा था.
एक लंबी यात्रा के बाद वो 'रास अल-ऐन' लाए जाते हैं. वहां बंदियों से रेल की पटरियां बिछवाने का काम करवाया जाता था. बंदियों के ठहरने के लिए शिविर तो बने थे, लेकिन उनमें बड़ा भेदभाव था.
हिंदू और सिख युद्धबंधियों को जिन शिविरों में रखा जाता था वो बहुत घटिया होते थे. जबकि मुस्लिम बंधकों के लिए दूसरे शिविर होते थे. जो इस बात पर ठप्पा लगाते थे कि जर्मनी ने इस्लाम के नाम पर फ्रांस व ब्रिटिश सेना में दरार डालने का काम किया था.
चूंकि ऑटोमन और जर्मनी हमेशा इस कोशिश में होते थे कि वो दुश्मन के मुस्लिम सैनिकों को भड़का दें. इसकी वजह ये थी कि ऑटोमन जो युद्ध में जर्मनी का साथ दे रहा थाॉ, वो खलीफा का केंद्र था.
ऐसे में खलीफा के खिलाफ लड़ना मुस्लिम सैनिकों के लिए मुश्किल हो जाता, जिसका लाभ उन्हें मिलता!
अलेप्पो में युद्ध से दुखी थे सभी सैनिक
रास अल-ऐन में मरीजों की सेवा करते हुए सिसिर को अलेप्पो जाने के आदेश मिला. यह उनके लिए सहज नहीं था. असल में 'रास अल-ऐन' की ठंड ने लगभग 75 प्रतिशत भारतीयों की जान ले चुकी थी.
खैर, जैसे-तैसे सिसिर इस ठंड का मुकाबला करने में सफल रहे, लेकिन वह टाइफस की चपेट में आ गए. इसके चलते उन्हें अस्पताल में भर्ती तक होना पड़ा. स्वस्थ्य होने पर वह अल्लेपो में रहते हुए, तुर्की सैनिकों से मिले.
अपनी मुलाकातों में उन्होंने पाया कि सैनिकों की दशा हर जगह एक सी थी. सैनिक युद्ध से दुखी थे. उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वो अलग-अलग देशों में रह रहे हैं. एक-दूसरे को जानते तक नहीं है.
आखिर फिर क्यों एक-दूसरे के दुश्मन बन बैठे हैं!
युद्ध के अमानवीय असर को बताते हुए सिसिर एक किस्से का जिक्र करते हैं. वो बताते हैं कि कैसे एक बूढ़ा तुर्क सैनिक, जिसके पास सिगरेट पीने के भी पैसे नहीं हुआ करते थे. वो छोड़ी हुई सिगरेट की तलाश में उनके वार्ड में आता है.
वहां उसकी नजर एक नौजवान पर पड़ती. फिर अचानक वह उसे गले लगाकर रोने लग जाता है! थोड़ी देर में तस्वीर साफ होती है और पता चलता है कि वो उसका बेटा है जो युद्ध में गया हुआ था.
अर्मेनियन और तुर्कों की अनसुनी दास्तान
1917 में सिसिर को एक बार फिर से 'रास अल-ऐन' भेजने के आदेश मिला. इस वक्त तक वहां के हालात काफी हद तक ठीक हो चुके थे. सिसिर यहां अर्मेनिया और अर्मेनियन लोगों पर हुई ज्यादतियों का जिक्र करते हैं.
वो बताते हैं कि किस तरह कुर्दों और तुर्कों ने इनका नरसंहार किया.
'रास अल-ऐन' के बाद सिसिर को निसबिन के लिए रवाना कर दिया जाता है. वहीं जंग में भी हालात बदलने लगे. अब तुर्कों पर अंग्रेजी सेना की टुकड़ियां भारी पड़ने लगी थी. इसके बाद ये साफ हो गया था कि युद्ध जर्मनी और ऑटोमन्स के हाथ से निकल गया है. 17 नवंबर 1918 को सभी युद्धबंधियों को वापिस अपने देश लौटने के लिए गाड़ी की सूचना दे दी गई.
यहां सिसिर एक और दिलचस्प किस्से का जिक्र करते हैं. वो बताते हैं कि रास अल-ऐन छोड़ते वक्त उनके साथी सैनिक जुम्मन ने एक अर्मेनियन बच्चे पर तरस खाते हुए उसे अपने साथ ले लिया और वो उसे अपने साथ भारत ले आया.
देखा जाए तो युद्ध के मैदानों के किस्सों में ज्यादा जिक्र मार काट का ही होता है, लेकिन सिसिर अपने संस्मरणों में मानवीय पक्षों को भली-भांति उकेरा. 2012 में अमित्व घोष ने सिसिर के इस संस्मरण का अनुवाद कर इसकी पहुंच बढ़ा दी. वहीं हिंदी पाठकों तक ये कहानी पहुंचाने का श्रेय जाता है माने मकर्तच्यान को जाता है, जिन्होंने हंस के लिए इसका अनुवाद किया.
Web Title: Story of Sisir Sarbadhikar, Hindi Article
Feature Image Credit: IBTimes