दूध की थैलियां खरीदते समय आपने गौर किया होगा कि उस पर लिखा होता है-'पाश्चर दूध',
किन्तु, क्या कभी सोचा है कि ऐसा लिखने के पीछे वजह क्या है?
दरअसर पाश्चर दूध महान वैज्ञानिक लुई पाश्चर के नाम के कारण लिखा गया है. लुई वही वैज्ञानिक हैं, जिन्होंने दुनिया को बताया कि दूध को पीने से पहले उसे अच्छी तरह से उबालना जरूरी है.
ताकि, जीवाणु मर जाएं और हमारी सेहत अच्छी बनी रहे!
जब तक लुई यह अनुसंधान नहीं किया था, तब तक लोगों को दूध के उबाले जाने की क्रिया और इससे होने वाले फायदे के बारे में जानकारी नहीं थी. यही कारण है कि उस दौर में जरा सी बीमारियां जानलेवा साबित होती थी.
लुई का योगदान यहीं तक नहीं रहा, बल्कि उन्होंने रैबिज के इंजेक्शन भी इजाद किए, ताकि लोगों को पागल कुत्ते के काटने या भेड़िया के दांत लगने से बीमार होकर मौत के मुंह में न जाना पड़े.
ये खोजेे विज्ञान के इतिहास में तो खास थीं ही आम जीवन के लिए भी काफी महत्वपूर्ण रहीं.
तो चलिए जानते हैं इस महान वैज्ञानिक के जीवन को और उनकी खोजों से जुड़ी दिलचस्प कहानियों को—
रसायन से भौतिकी, फिर बने जीव विज्ञानी
लुई पाश्चर का जन्म 1822 ई. में फ्रांस में नैपोलियन बोनापार्ट के एक व्यवसायी सैनिक के यहां हुआ था. लुई के पिता मूलरूप से चमड़े का व्यापार करते थे, लेकिन उनकी आमदनी काफी सीमित थी. वे चाहते थे कि लुई अच्छी शिक्षा हासिल करे. ताकि, उसे आर्थिक रूप से कभी किसी कमी का सामना न करना पड़े.
जबकि, लुई शिक्षा के साथ-साथ पिता के काम में मदद भी करना चाहते थे.
जब लुई ने अरबोय की एक पाठशाला में प्रवेश ले लिया, तो उसके साथ पिता का काम भी संभाला. दोनों चीजों में संतुलन बनाएं रखने की काफी कोशिश की, लेकिन वे पढ़ाई में पिछड़ते गए. कक्षा के साथी उन्हें मन्दबुद्धि कहकर मजाक उड़ाते थे. फिर भी उनके पिता ने पढ़ाई में काफी मदद की और कर्ज लेकर लुई को उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए पेरिस भेजा.
पेरिस में लुई ने वैसाको के एक कॉलेज में एडमिशन लिया और आगे की पढ़ाई शुरू की. लुई को पढ़ाई में खास रूचि नहीं थी, पर फिर भी उन्हें विज्ञान काफी आर्कषित करता था.
ऐसे में उन्होंने रसायन शास्त्र के विद्वान् डॉ॰ ड्यूमा के साथ रासायन विज्ञान को समझना शुरू किया.
इकोलनारमेल कॉलेज से उपाधि ग्रहण कर पाश्चर ने रासायन विज्ञान की बजाय भौतिकी पर ध्यान देना शुरू किया. भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अच्छी तरक्की मिलने का फायदा यह हुआ कि उन्हें भौतिक विज्ञान विभाग का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया. 1841 में फ्रांस के शिक्षा मंत्री ने दिजोन के विद्यालय में नियुक्ति दे दी.
इसके एक साल बाद स्ट्रॉसबर्ग विश्वविद्यालय में वे बतौर प्राध्यापक पढ़ाने लगे.
यहां पहुंचकर लुई की जिंदगी ने एक अहम मोड़ लिया. उन्हें कॉलेज में मैरी नाम की लड़की से प्यार हो गया. उन्होंने कई बार मैरी से बात करने की कोशिश की. पर वह न तो बात करने के लिए तैयार हुईं न ही उसने लुई से मुलाकात के लिए हामी भरी.
लुई करीब एक साल तक मेरी से बात करने की कोशिश करते रहे. आखिर में मैरी मिलने के लिए तैयार हुई. दोनों की पहली मुलाकात के बाद मिलने जुलने का सिलसिला जारी रहा. इस दौरान लुई को पता चला कि मैरी कॉलेज के अध्यक्ष की बेटी है.
लुई जानते थे कि मेरी को अपनी पत्नी बनाना आसान नहीं है. पर उनके काम ने सभी के दिलों में उनके प्रति सम्मान पैदा कर लिया था, इसलिए लुई की शादी मैरी से हो गई.
पहली बार जीवाणु से मुलाकात
निजी जीवन बसने के बाद लुई ने करियर पर ध्यान दिया. वे पहले भौतिक और रासायन विज्ञान के क्षेत्र में काम कर चुके थे. अब उन्होंने जीव विज्ञान को समझना शुरू किया. फ्रांस में जिस जगह लुई का विश्वविद्यालय था, वहां आप-पास अंगूरी के बगीचे थे. वहाँ के मदिरा तैयार करने वाले कारीगरों को लुई के बारे में पता चला, तो वे उनसे मिलने विश्वविद्यालय पहुंचे.
कारीगर अपने साथ अंगूर से तैयार की गई पुरानी वाइन लेकर आए थे.
उन्होंने वाइन लुई को देते हुए बताया कि हमारी वाइन जब तक नयी रहती है, तब तक उसका स्वाद अच्छा रहता है. फिर जैसे-जैसे यह पुरानी होती है इसके स्वाद में खटास आने लगती है. तत्काल तो लुई को भी इसका जवाब नहीं मिला.
वे बोतल को अपने साथ लैब ले गए. वहां वाइन की कुछ बूंदों को सूक्ष्मदर्शी की सहायता से घंटो तक देखते रहे. काफी देर अध्ययन करने के बाद लुई को बूंदों के बीच में सूक्ष्म कीड़े दिखाई दिए. ये इतने छोटे थे कि नग्न आंखों से देख पाना संभव नहीं था. लुई ने इन कीडों को जीवाणु का नाम दिया.
इसके पहले जीव विज्ञान के क्षेत्र में जीवाणु जैसे किसी जीव के बारे में कोई नहीं जानता था. लुई ने पाया कि वाइन का स्वाद इन्हीं जीवाणुओं के कारण बदल रहा है. उन्होंने वाइन को 20 से 25 डिग्री 60 सेंटीग्रेड पर गर्म करके फिर ठंडा किया.
इसके बाद, जब दोबारा जांच की गई तो जीवाणु मर चुके थे. साथ ही मदिरा के स्वाद पर भी कोई प्रभाव नहीं हुआ. जब यह बात वाइन बनाने वालों को पता चली, तो उन्होनें वाइन को बोलत में भरने से पहले उसे गर्म करना शुरू कर दिया.
इसके बाद दोबारा उन्हें कोई शिकायत नहीं मिली.
संक्रमण रोकने में मिली कामयाबी
लुई ने सोचा कि यदि अंगूरी से बनी वाइन में जीवाणु हो सकते हैं, तो उस हर चीज में जीवाणु होने की संभावना है, जो हम जीवों से प्राप्त करते हैं. और बिना उबाले इस्तेमाल करते हैं. इसके बाद उन्होंने गाय के दूध पर रिसर्च की. इसमें उन्हें पता चला कि उसे उबालकर ठंडा करने के बाद इस्तेमाल करना चाहिए.
इस सिद्धांत को देने के बाद पाश्चुरीकृत दूध चलन में आ गया.
चूंकि, लुई जीव विज्ञान पढ़ रहे थे इसलिए जीवाणु की खोज इस क्षेत्र में बहुत बड़ी उपलब्धि थी. लुई जानते थे कि इससे कई बीमारियों का इलाज मिल सकता है और रोकथाम भी संभव है. इसलिए उन्होंने जीवाणुओं पर रिसर्च शुरू की.
उन्हीं दिनों फ्रांस के मुर्गीपालन केन्द्रों में हैजे की बीमारी का प्रकोप बढ़ रहा था. धीरे-धीरे करके कई चूजे मौत के मुंह में जा रहे थे. लुई ने इस समस्या की जड़ तक पहुंचने के लिए हैजा पीड़ित मुर्गियों की जांच शुरू की.
वे जानते थे कि जीवाणु रक्त में भी हो सकते हैं. जांच के बाद उनका मत सही निकला.
उन्होंने लोहे की काट लोहे से ही निकाली. लुई ने मरे हुए चूजों की रक्त से जीवाणुओं को निकालकर एक इंजेक्शन तैयार किया. इस वैक्सीन को उन चूजों और मुर्गियों को लगाया, जो हैजे से ग्रसित थीं. लेकिन इंजेक्शन से कोई खास फर्क नहीं आया.
इसके बाद वैक्सीन उन मुर्गियों को लगाई गई, जिनमें हैजे के लक्षण नहीं थे. नतीजा सकारात्मक निकला.
इन मुर्गियों को बाद में भी हैजा नहीं हुआ. हालांकि, यह टीकाकरण की विधि का इजात नहीं था, पर जीवाणुओं के संक्रमण को रोकने के लिए उन्हीं का इस्तेमाल करने की प्रक्रिया का पता चल गया था.
रैबिज के जीवाणु से बनाई एंटी डोज
इसके बाद लुई पाश्चर ने गायों और भेड़ों के ऐन्थ्रैक्स नामक रोग के लिए बैक्सीन बनायी. जिससे उनमें संक्रमण का संकट 90 फीसदी कम हो गया. उन्होंने इस वैक्सीन को गांव-गांव में भेजा ताकि पशुओं की रोग या संक्रमण से मौत न हो.
जानवरों में आपस में होने वाले संक्रमण पर तो लुई ने काबू पा लिया था लेकिन अगली चुनौती थी जानवरों से मनुष्यों में होने वाले संक्रमण की रोकथाम. 1885 में फ्रांस में कुत्तों की संख्या मे लगातार वृद्धि हो रही थी.
इसी के साथ आए दिन कुत्ते के काटनेे से घायल होने वाले लोग भी अस्पताल पहुंच रहे थे.
पीड़ित इलाज के दौरान करीब 48 घंटे के भीतर ही दम तोड़ देते थे. कोई भी दवा या इंजेक्शन कुत्तों से मनुष्यों में होने वाले रैबिज इंफेक्शन को रोकने में कामयाब नहीं थी.
चुंकि लुई जीवाणुओं और संक्रमण पर काम कर चुके थे, इसलिए वैज्ञानिकों ने उन्हें ही इस चुनौती का सामना करने के लिए कहा. लुई ने कुत्तों के रक्त में पहनेे वाले जीवाणुओं पर अध्ययन शुरू किया.
चूंकि जानवर के जीवाणु जानवर के शरीर पर तो काम कर सकते थे लेकिन वे मनुष्य के शरीर पर भी सकारात्मक असर दिखाएंगे इसकी कोई गारंटी नहीं थी. इसलिए उन्होंने काफी सावधानी से अध्ययन किया.
जब लुई इसी विषय पर अनुसंधान कर रहे थे तब एक महिला अपने बच्चे को लेकर उनके पास आई.
उसने बताया कि दो दिन पहले पागल कुत्ते ने उनके बच्चे को काटा है और हर घंटे उसकी हालत खराब हो रही है. बच्चे में कुत्ते जैसे लक्षण आ रहे हैं. वह पानी देखकर अजीब सा व्यवहार करता है.
लुई ने रैबिज के जीवाणुओं से बनी वैक्सीन उस बच्चे को लगाई और यह क्रम करीब एक सप्ताह तक जारी रहा. एक सप्ताह के बाद बच्चे की स्थिति ठीक होने लगी और वह पूरी तरह से 'हाइड्रोफ़ोबिया' की चपेट में आने से बच गया.
निजी जीवन में हो गए थे अकेले, इसलिए...
हाइड्रोफ़ोबिया जैसी बीमारी की रोकथाम और रैबिज को रोकने वाली एंटी रैबिज डोज बनानेे का काम इतिहास में पहली बार हुआ था. कई शोधों के बाद पता चला कि इस वैक्सीन का इस्तेमाल न केवल कुत्ते के काटने पर बल्कि, भेड़िया जैसे जानवर के काटने पर भी किया जा सकता है.
इस महान उपलब्धि के बाद लुई को फ्रांस सरकार ने सम्मानित किया. उनके नाम से पाश्चर संस्थान की स्थापना की गई.
जहां लुई समाज के लिए इतना कुछ कर चुके थे वहीं उनका अपना निजी जीवन वीरान हो गया था. 1859 से 1865 के दौरान पाश्चर की तीन बेटियों में से दो ब्रेन ट्यूमर और टायफाईड की बीमारी से चल बसीं थी.
इस सदमें में मैरी भी डिप्रेशन की शिकार हो गईं थी.
उन्होनें सभी सेे बात करना बंद कर दिया था. इस घटना के दो साल बाद 1868 में पाश्चर को भी लकवा मार गया और उनके आधे शरीर ने काम करना बंद कर दिया. बावजूद इसके वे अनुसंधान जारी रखे हुए थे. 1895 में लुई पाश्चर की मृत्यु हो गई.
बहरहाल विज्ञान के क्षेत्र में उनका योगदान अतुल्नीय है. मानव प्रजाति की जानवरों से रक्षा होना उन्हीं की देन है!
Web Title: Louis Pasteur: The great scientist created Rabies Anti Dosage, Hindi Article
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