उपनिवेशवाद का दौर खत्म हो रहा था. गुलाम रह चुके देशों के लोगो में ये उम्मीद जाग रही थी कि अब उन्हें खुद को साबित करने का मौका मिलेगा. यूरोप में मजदूरों की कमी को पूरा करने के लिए कॉमनवेल्थ देशों से लोग यूरोप की ओर कूच कर रहे थे.
किन्तु, उन्हें ये कहां पता था कि ये मौका तो केवल जरूरतें पूरी करने की मजबूरी थी कि जिन देशों ने सालों तक उनकी जमीन पर राज किया वो अब उन्हें अपने देश आने का न्यौता दे रहे थे. दिलचस्प बात तो यह थी कि जैसे ही उनकी जरूरतें पूरी हुई, वैसे ही ये मजदूर यूरोप पर बोझ बन गए और इन्हें वहां से निकाला जाने लगा.
तो आईए इन मजदूरों की कहानी का पूरा सच जानने की कोशिश करते हैं—
बेपटरी होती अर्थव्यवस्था ने दिया न्यौता!
दो लगातार हुए विश्व युद्धों से हुई बर्बादी के कारण यूरोपीय देशों में ये समझ बनने लगी थी कि युद्ध से कुछ हासिल नहीं होगा. शायद यही वजह थी कि वो अब अपने मनमुटाव और विवादों को शांतिपूर्ण तरीके से सुलाझाने की कोशिश करने लगे थे.
इस पुनर्जागरण के साथ-साथ कुछ बातें भी तूल पकड़ती जा रही थी, जिनके कारण अमेरिका और रशिया के संबंधों में खटास बढ़ती चली गई. असल में यूरोप के देशों को आने वाले शीत युद्ध में अपनी ओर करने के लिए अमेरिका ने खूब पैसा खर्च किया था, जिससे यूरोपीयन यूनियन के गठन में मदद मिली. वहीं, 1948 के मार्शल प्लान की माने तो अमेरिका ने यूरोप को 13 बिलियन डॉलर्स की मदद की, जिसका नतीजा 1949 में NATO के रूप में देखने को मिला.
जीन मोनेट जो यूरोपीय संघ के संस्थापकों में से एक माने जाते हैं, वो लगातार अमेरिका के संपर्क में थे. अमेरिका से मिल रही इसी मदद के चलते यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था एक बार फिर से पटरी पर आने लगी थी. ऐसे में उस रफ्तार को दिशा देने के लिए जरूरी मजदूरों की कमी लगातार यूरोप के देशों में महसूस की जा रही थी. जिसकी पूर्ति के लिए 1950 से 70 के दशक में भारत और कैरिबियाई देशों से मजदूरों को यूरोप लाया गया था.
Empire Windrush (Pic: caricom.org )
‘विंडरश’ के नाम से जानी गई ये जेनरेशन
इस समय के दौरान जो लोग भी यूरोप गए, उन्हें विंडरश जनरेशन के नाम से जाना जाता है. वो इसलिए क्योंकि कैरिबियाई देश जैसे जमैका, त्रिनिदाद और टोबैगो से जो लोग यूरोप आए वो विंडरश नाम के जहाज में वहां पहुंचे थे.
माना जाता है कि यूरोप आने वाले लोगों में काफी बच्चे भी शामिल थे, जो अपने माता-पिता के साथ आए थे. यूरोप आने वाले मजदूरों में सबसे ज्यादा लोग जमैका और भारत से थे. एक अनुमान के मुताबिक भारत से लगभग 13,000 और जमैका से करीब 15,000 लोगों ने यूरोप में अवसर पाने के लिए अपना देश छोड़ा था.
इनके अलावा पाकिस्तान, केन्या और साउथ अफ्रीका से भी लोग यूरोप आए थे.
लगभग 1970 तक लोगों को आना चलता रहा, जो 1971 में बने यूरोप के अप्रवासी कानून के बाद बंद हुआ. इंगलैण्ड ने 1971 तक आए लोगों को ये अधिकार दिया था कि वह, जब चाहे तब अपने देश लौट सकते हैं. उन्हें जबरन वहां से नहीं निकाला जाएगा.
1973 में आई मंदी ने बदल दिया था सब
1973 के आते-आते अमेरिका जो हासिल करना चाह रहा था, वो हासिल कर चुका था. यानि यूरोप, रशिया के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका का साथ देने लगे था और काफी मशक्कत के बाद इंग्लैण्ड भी यूरोपियन यूनियन का हिस्सा बन गया था.
किन्तु, उसी साल कच्चे तेल की कीमतों में आए भारी उछाल ने यूरोपीयन अर्थव्यवस्था को झटका दे दिया. इसने न सिर्फ मजदूरों के रूप में अपना घर और देश छोड़कर आए लोगों को बेरोजगार कर दिया था, बल्कि उनके भविष्य पर भी सवाल खड़ा कर दिया था.
हालांकि ये तो साफ था कि सालों तक यूरोप के लिए पसीना बहाने के बाद वो वापिस अपने देश नहीं लौट सकते थे. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आई मंदी से कई यूरोपीय देशों की राजनीति भी प्रभावित होने वाली थी. यही वह दौर था, जब कई युरोपीय देशों में रूढ़िवादी पार्टियों का प्रसार होना शुरू हुआ और यूरोप आए मजदूरों से राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं पूरी करने की कोशिश की गई.
1973 Economic Crisis (Pic: The Independent)
अप्रवासी मजदूरों के खिलाफ ‘राजनैतिक पार्टी’
जीन मरीन ले पेन ने फ्रांस में बाहरी देशों से आए मजदूरों के विरोध का नेतृत्व किया. वह टेलीवीजन पर आने वाले कार्यक्रमों से एक ऐसी लहर तैयार करने में कामयाब रहे कि हर फ्रांसीसी इन मजदूरों को उनका हक मारने वाला समझने लगे.
1973 के बाद जैसे-जैसे बेरोजगारी बढ़ने लगी, वैसे-वैसे अप्रवासी मजदूरों के खिलाफ नफरत फैलने लगी और उनके खिलाफ प्रदर्शन होने शुरू हो गए थे.
किसी भी देश के नागरिक ये चाह रहे थे कि ये अप्रवासी अपने देश लौट जाएं. इसकी वजह से तनाव भी बढ़ने लगा था और कई जगह तो तनाव दंगों में बदल गए थे. मार्सिले जो कि फ्रांस का एक शहर है, वहां अप्रवासियों पर हमले होने लगे और इन हमलों में कई लोगों की जान भी गई.
हालांकि, इससे जीन मरीन ले पेन की पार्टी को काफी फायदा पहुंच रहा था, चूंकि वो उन लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाब हो रहे थे, जो इन अप्रवासियों के खिलाफ थे.
1972 में उन्होंने नेशलन फ्रंट पार्टी का गठन किया.
जीन मरीन ले पेन ने एल जजीरा को एक साक्षात्कार में कहा कि अप्रवासियों की वजह से उन्हें लगने लगा था कि जैसे कोई फ्रांस को हड़पने की कोशिश कर रहा है.
हालांकि, उस समय की सरकार, ऑटोमाबाइल कंपनियों और यूनियनों ने इन लोगों की मदद के लिए इन्हें अपने देश वापिस लौटने के लिए कुछ आर्थिक मदद करने का वादा किया था.
1980 के आते-आते इंगलैण्ड में भी दंगे होने लगे थे, जो ब्रिक्सटोन रॉयट के नाम से मशहूर हैं. ये दंगे उन जगहों जैसे ब्रिमिंगहम, चैपलटाउन, मैनचेस्टर, लीवरपूल में ज्यादा हो रहे थे, जहां ज्यादा अप्रवासी लोग रहते थे.
भूतकाल अब वर्तमान बनकर लौटा है!
इतिहास को जानने और उसे पढ़ने का मतलब ये होता है कि हम अपनी पुरानी गलतियों से सीख सकें, ताकि अगर भविष्य में वैसे स्थिति बनती है तो हम उसका मजबूती से सामना कर सकें! किन्तु, होता ऐसा बहुत कम है.
यही कारण है कि आज एक बार फिर से यूरोप की राजनीति में इतिहास खुद को दोहरा रहा है.
फ्रांस में जीन मरीन ले पेन की बेटी अब नेशनल फ्रंट पार्टी का नेतृत्व कर रही हैं. पिछले चुनाव में उन्होंने मिडल ईस्ट से आने वाले शरणार्थियों के खिलाफ एक लहर बनाकर वोटबैंक बनाने का काम किया. हालांकि, वह उसमें सफल नहीं हुई थी.
किन्तु, वह उस विचार को तो बनाए हुए ही हैं.
बताते चलें कि जब ब्रिटेन ने यूरोपीयन संघ से जुड़ने का फैसला किया था, तो उस समय अप्रवासी मजदूरों का मुद्दा जोर पकड़ रहा था.
ठीक उसी तरह आज जब वो यूरोपीयन संघ छोड़ रहा है, तो भी वहां अप्रवासियों पर बन रहा कानून कंजर्वेटिव पार्टी की मंशा पर बड़ा सवाल खड़ा कर रहा है. गौरतलब होकि, इस बिल के चलते कई विंडरश के समय इंगलैण्ड आए लोगों से पूछताछ हो रही है.
French far right National Front President Marine Le Pen (Pic: washingtonpost)
दिलचस्प बात तो यह है कि उन लोगों का मानना है कि पूरी जिंदगी यहां बिताने के बाद और खुद को ब्रिटिश समझने के बाद अब उनके पास ऐसा कोई सबूत या कोई दस्तावेज नहीं है, जिससे वे यह बता सकें कि वो ब्रिटिश नागरिक ही हैं.
Web Title: The Story of Windrush Migrants, Hindi Article
Featured Image Credit: Quartz