हम शीघ्र ही अपनी स्वतंत्रता के 70 वर्ष पूर्ण कर रहे हैं. सारे देश में एक समान कर प्रणाली लागू हो रही है, तो शीघ्र ही देश को नया राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति भी मिलेगा. इस महत्वपूर्ण बेला पर जब दुनिया में भारत की प्रतिष्ठा के पैमाने बदल रहे हैं, यही वह समय है जब हम स्वयं को एक नये परिवेश, एक नई कार्य संस्कृति और नये प्रतिष्ठा के अनुरूप अपने प्रतीकों को पहचान और प्राणवंतता प्रदान करने की कला भी विकसित करनी चाहिए.
इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वतंत्रता के इन 70 वर्षों में देश आगे बढ़ा है, लेकिन आज भी अनेक क्षेत्र ऐसे हैं जहां बहुत कुछ किये जाने की आवश्यकता है. यह हमारे लिए गर्व की बात है कि हम विश्व के प्रथम देश हैं जो एक साथ सौ से अधिक उपग्रह अंतरिक्ष में पहुंचाने की क्षमता रखता है, लेकिन देश की बहुत बड़ी जनसंख्या का आज भी आवश्यक सुविधाओ से वंचित होना हमें निराश और अशांत करता है. सर्वाधिक दुर्भाग्य की बात यह कि इन सात दशकों में हम हर घटना को अपने अपने विशिष्ट वैचारिक चश्मों से देखने के रोग पीड़ित हो चुके हैं. हमारी संवेदनाओं को राजनीति तय करने लगी है. एक समान दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं कहीं ‘साम्प्रदायिकता’ तो कहीं ‘भीड़’ का उन्माद कहलाती हैं.
देशद्रोह को अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता का नाम देकर क्या हम यह प्रमाणित नहीं कर रहे है कि हमारे लिए वोटबैंक की राजनीति देश हित से पहले है. ‘जाति’ को ‘जीत’ का मोहरा बनाते हुए हम देश के सर्वोच्च पद को नहीं छोड़ना चाहते. यदि आजादी के सात दशक भी हमारी सोच कोे संकीर्णता से आजाद नहीं कर सके तो इसका अपयश हम किसी विदेशी पर नहीं थोप सकते! इसके अपयश को स्वीकार करते हमें ही इससे मुक्ति की युक्ति सोचनी है.
जो हुआ सो हुआ लेकिन भविष्य का रोडमैप तय करते हुए अब जाति, धर्म, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कार्य करने की आवश्यकता है. सर्वप्रथम राजनीति का शुद्धिकरण आवश्यक है. उसे ‘विरोध के लिए विरोध’ की पुरानी लीक से हटना होगा. यह कोई रहस्य नहीं कि आधार, विदेशी निवेश, जीएसटी आदि विषयों पर सभी दलों की राय सुविधा और आवश्यकता के अनुसार बदलती रही है. सत्ता से विपक्ष में आकर समर्थक अकारण विरोध करने लगते हैं तो विरोधी कुर्सी पाकर पुरजोर समर्थक हो जाते हैं. इसका कारण शायद यह कि हम स्वयं को मानसिक रुप से इतना विकसित नहीं कर सके हैं कि चुनावी दौर की कटुता और तीव्र विरोध को सामान्य परिस्थिति में तिरोहित कर सके. स्वतंत्रता के सात दशक बाद ही सही, यदि हम लोकतंत्र का उसके वास्तविक अर्थों के साथ आत्मसात करने की ओर कुछ कदम भी बढ़ सके तो देश की दशा और दिशा बदलते देर नहीं लगेगी.
नये राष्ट्रपति आ रहे हैं तो क्यों न इस पद को प्रतीकात्मकता से मुक्त किया जाये. सरकारें अपना काम करती हैं, करती रहें लेकिन कुछ कार्य जरूर ऐसे निर्धारित होने चाहिए जो राष्ट्रपति सचिवालय के जिम्मे हों. यथा उच्चतम न्यायालय के निर्णय से फांसी प्राप्त लोग महामहिम से माफी की गुहार लगाते हैं. वे इस याचिका को केन्द्र सरकार को प्रेषित करते हैं. अर्थात् अप्रत्यक्ष रूप से उन याचिकाओं पर केन्द्र निर्णय लेता है. क्यों न यह कार्य राष्ट्रपति सचिवालय पर छोड़ दिया जाये. इसके अतिरिक्त जिस प्रकार संसद की कुछ महत्वपूर्ण समिति का दायित्व विपक्ष को दिया जाता है, क्यों न मानवाधिकार आयोग सहित कुछ रचनात्मक कार्य राष्ट्रपति जी को सौंपे जाएं. इसका अर्थ एक समानान्तर सत्ता खड़ी करना नहीं होगा क्योंकि हमारे संविधान के अनुसार ‘राष्ट्रपति मंत्रीमंडल की सलाह पर कार्य करने को बाध्य है.’ वास्तव में हमारा संविधान ब्रिटेन के संविधान के काफी निकट है. वहां राजतंत्र संग संसदीय लोकतंत्र है तो भारत गणतंत्रात्मक संसदीय प्रणाली है. जिस प्रकार ब्रिटेन में महारानी सरकार की राय का सम्मान करती हैं, वही प्रथा भारत में है. अतः समानान्तर सत्ता केन्द्र अथवा टकराव का प्रश्न ही नहीं. यदि इसके लिए संविधान में कोई प्रावधान भी करना पड़े तो किया जा सकता है.
वर्तमान में राष्ट्रपति चुनाव अनुपातिक प्रणाली द्वारा होता है, जहां हर राज्य के विधायक के वोट का मूल्य भिन्न है. उस राज्य विशेष की जनसंख्या को इसका आधार बनाया जाता है, लेकिन जब एक ओर हम समान नागरिक संहिता की मांग करते हैं, समान कर प्रणाली लागू कर रहे हैं, संविधान सबको समानता का अधिकार देता है तो सिक्किम के विधायक का मूल्यांकन मात्र 7 और उत्तर प्रदेश के विधायक का मूल्यांकन 208 होना भी जारी नहीं रहना चाहिए. यदि संसद के दोनों सदनों के प्रत्येक सदस्य के वोट का मूल्यांकन समान है तो विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों में असमानता क्यों?
सिक्किम की 32 सदस्यीय विधानसभा के प्रति सदस्य 7 मूल्यांकन से उस राज्य के सभी वोट मूल्य मात्र 254 बड़े राज्य के मात्र एक सदस्य के लगभग बराबर होना लोकतंत्र को किस तरह प्रतिध्वनित करता है इसपर पुनः विचार की आवश्यकता है. राष्ट्रपति चुनाव में मतदान के लिए व्हिप न होनेे तथा इस असमानता के कारण मात्र कुछ सदस्यों के इधर से उधर होने पर बहुमत का निर्णय अप्रभावी हो सकता है. बदलाव समय की मांग है क्योंकि ‘हर वोट एक समान’ लोकतंत्र की गरिमा ही बढ़ायेगा.
क्या यह उचित समय नहीं होगा जब हम तय करें कि केवल राजनेता ही राष्ट्रपति, राज्यपाल, महत्वपूर्ण निकायों के मुखिया क्यों? क्या राष्ट्र निर्माण में वैज्ञानिकों, सुरक्षा विशेषज्ञों, डाक्टरों, कलाकारों, साहित्यकारों आदि की कोई भूमिका नहीं होती? यदि है तो इनकी अनदेखी करने का अर्थ उस राजनीति को बढ़ावा देना जो येन केन अपना महत्व बरकरार रखना चाहती है.
बदलते परिवेश में जब हम संयुक्त राष्ट्र संघ के स्वरूप में बदलाव की मांग करते हुए वैश्विक स्तर पर अभियान चलाते हैं तो हमें अपने घर की खिड़कियां ताजी हवा के लिए क्यों नहीं खोलनी चाहिए? केवल प्रतीकात्मक पद प्रतिष्ठा की परम्परा को पीछे छोड़ते हुए अब हर दायित्व को प्राणवंतता प्रदान क्यों नहीं करनी चाहिए? सात दशक साथ-साथ रहने के बाद भी दूरी बढ़ाने के प्रयासों में लगी राजनीति को
गोविन्द गुलशन की इन पंक्तियों का मर्म समझना चाहिए-
दिल है उसी के पास, हैं साँसे उसी के पास,
देखा उसे तो रह गयी, आँखे उसी के पास.
बुझने से जिस चराग ने, इन्कार कर दिया,
चक्कर लगा रही हैं, हवाएं उसी के पास.
Web Title: President Election in India 2017, Hindi Article
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