Akhilesh Yadav and Samajwadi Party Politics Pic Credit: India.com)
सपा कार्यकर्ता आज सर्वाधिक खुश होंगे, क्योंकि कई महीनों की उथलपुथल के बाद अब ‘पर्दा’ उठ गया है. भारत के जिन पांच राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें उत्तर प्रदेश को लेकर सर्वाधिक गहमागहमी रही है. आखिर हो भी क्यों ना, उत्तर प्रदेश जहाँ देश का सर्वाधिक आबादी वाला राज्य है, वहीं समाजवादी पार्टी में आंतरिक कलह के नाम पर जो लंबा खेल खेला गया, उसने भी लोगों में यूपी चुनाव के साथ-साथ अखिलेश यादव में गहरी रुचि पैदा की. हालाँकि, अब इस ‘निर्देशित नाटक’ का पटाक्षेप हो गया है. कई लोग कह सकते हैं कि यह ‘निर्देशित नाटक’ कैसे था, तो इस लेख में क्रमवार चर्चा करने पर आप खुद ही जान जाएंगे कि वास्तव में यह ‘नाटक’ ही था, जो मुलायम सिंह यादव के निर्देशन में रचा गया.
चुनाव आयोग और कानूनी दांव पेंच
समाजवादी दंगल पर अब जबकि चुनाव आयोग का फैसला आ चुका है, तब इसके कानूनी पहलुओं पर गौर किया जाना आवश्यक हो गया है. आयोग का एकमत से फैसला यही है कि अब समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा अखिलेश यादव हैं, तो सपा का चुनाव-चिन्ह साइकिल भी अखिलेश यादव को सौंप दिया गया है.
देखने में तो यह पूरा मामला बड़ा सीधा सा प्रतीत हो रहा है कि समाजवादी पार्टी में पहले फूट पड़ी थी और फिर चुनाव चिन्ह की लड़ाई में दोनों पक्ष चुनाव आयोग पहुँच गए. लेकिन अगर इसका कानूनी पहलू देखें तो यह पार्टी में फूट थी ही नहीं, बल्कि अखिलेश और मुलायम दोनों ग्रुप एक ही पार्टी पर अपना दावा जता रहे थे.
सपा में अपने दावों को मजबूत करने के लिए एक ओर जहां मुलायम पार्टी के संविधान की बात कह रहे थे, वहीं अखिलेश यादव पार्टी में बहुमत का दम दिखा रहे थे. चुनाव आयोग ने साफ कर दिया कि अखिलेश यादव का पलड़ा बेहद भारी है और इसलिए साइकिल चुनाव चिन्ह को फ्रिज (ज़ब्त) करने का सवाल ही बेमतलब था. देखा जाए तो यह पूरा मामला उसी दिन साफ हो गया था जब रामगोपाल यादव ने सपा डेलीगेट्स का आकस्मिक अधिवेशन 1 जनवरी को बुलाया और उसमें अखिलेश यादव को सपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित करने के साथ-साथ अमर सिंह को पार्टी से निकालने और शिवपाल यादव को प्रदेश अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव पास करा लिया. उस अधिवेशन में न केवल सपा के 5000 से अधिक डेलीगेट्स उपस्थित थे बल्कि अधिवेशन की वीडियो रिकॉर्डिंग और सपा के तमाम सांसदों, विधायकों और विधान परिषद सदस्यों का समर्थन पत्र भी रामगोपाल यादव ने चुनाव आयोग को निश्चित समय से पहले ही सौंप दिया था. अब चुनाव आयोग के लिए फैसला लेना बेहद आसान था और यह बात कोई अंधा भी समझ सकता है कि 90 फीसदी सदस्य जिस तरफ खुलकर खड़े हों, पार्टी में वही सुप्रीम होता है. चुनाव आयोग ने भी तथ्यों की अनदेखी नहीं की.
सपा में अखिलेश, मुलायम और दूसरे राजनीतिक केंद्र
हमारी भारतीय संस्कृति में लड़के के जवान होने पर पिता के वानप्रस्थ में जाने की बात शास्त्र मानता है. मतलब जब अगली पीढ़ी तैयार हो जाए तो पिछली पीढ़ी को नेतृत्व छोड़ देना चाहिए और मुलायम सिंह यादव इसी राह पर चलते दिखे हैं. अगर मामले को आप क्रमवार देखें तो आपको इसमें कहीं उलझन नजर नहीं आएगी. मुलायम सिंह यादव ने 2012 में अखिलेश यादव को सपा का मुख्यमंत्री बनाने के बाद 5 साल उनके काम काज पर निगाह रखी और एक तरह से उनको राजनीति और प्रशासन की ट्रेनिंग ही दी. राज्य में ‘साढ़े चार’ मुख्यमंत्री के अनचाहे तमगे से अखिलेश कई बार छटपटाये भी, किंतु मुलायम उन्हें यह समझाने में सफल रहे कि छटपटाहट की बजाय सही वक्त का इन्तजार करना उचित होगा. जैसे ही उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव की तिथि नजदीक आने लगी, त्यों ही मुलायम सिंह ने अपना मास्टर स्ट्रोक चल दिया. ऐसा उन्होंने क्यों किया, इसे समझने के लिए आप भारतीय लोकतंत्र और राजनीतिक पार्टियों के शीर्ष नेताओं में एकरूपता को देखिये.
हमारे देश की सच्चाई यही है, खासकर राजनीतिक पार्टियों की, कि उसमें ‘बॉस’ एक ही होता है, दुसरे बस उसके नीचे होते हैं. आप चाहे भाजपा की बात कर लें, कांग्रेस की बात कर लें, बसपा की बात कर लें या फिर तृणमूल कांग्रेस अथवा अन्नाद्रमुक की बात कर लें, सभी राजनीतिक पार्टियों में एक नेता के इर्द गिर्द ही पार्टी घूमती रही है. खुद सपा में मुलायम सिंह अब तक राजनीति के केंद्र रहे हैं. ऐसे में वह अखिलेश को कमान तो सौंप चुके थे, किंतु पांच साल के सत्ता संघर्ष में पार्टी राजनीति के विभिन्न केंद्र उभर गए थे.
सपा में कहीं शिवपाल यादव खुद को स्थापित करने की कोशिश कर रहे थे, तो कहीं आजम खान, कहीं रामगोपाल यादव तो कहीं अमरसिंह और कहीं कोई और! जाहिर तौर पर पार्टी राजनीति में इतने सारे केंद्रों का उभरना, इतने लोगों का ताकतवर होना अखिलेश के लिए किसी मुसीबत से कम नहीं था और ऐसे में यह साफ नजर आ रहा है कि मुलायम सिंह ने किस चतुराई से अखिलेश यादव को सपा की राजनीति पूरी तरह से सौंप दी है. अब सपा में अखिलेश ही अखिलेश हैं. वह न केवल पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित हो चुके हैं, बल्कि हर मामले में उनका डिसीजन सर्वमान्य होगा, यह सिद्ध हो गया हैं.
Akhilesh Yadav and Samajwadi Party Politics Pic Credit: IndianExpress.com)
अखिलेश विरोध का ‘मुलायम ड्रामा’
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की तिथि निश्चित हो गयी थी और इसकी अधिसूचना जारी होने की तिथि 17 जनवरी होने से चुनाव आयोग ने 1 दिन पहले साइकिल चुनाव चिन्ह पर अपना फैसला सुना दिया. इस मामले में मुलायम सिंह यादव अखिलेश के खिलाफ अदालती लड़ाई लड़ने की बात कह रहे हैं, तो अखिलेश द्वारा उनकी बात न सुने जाने का ज़िक्र भी कर रहे हैं.
अब सवाल उठता है कि मुलायम के ‘अखिलेश विरोध’ के पीछे आखिर कौन से कारक हैं? सच कहा जाए तो शुरुआत से ही यह शिवपाल-अमर जैसे पार्टी असंतुष्टों को संतुष्ट करने का एक दांव भर है. ज़रा गौर करें, अगर मुलायम सिंह अखिलेश के विरोध की बात नहीं करते, उनके खिलाफ खड़े होने की बात नहीं करते, तो जाहिर तौर पर शिवपाल यादव या अमर सिंह या फिर दूसरे असंतुष्ट नेता बगावत कर लेते! ऐसे में न केवल सपा का चुनाव चिन्ह ज़ब्त होने की नौबत आ जाती, बल्कि पार्टी में बगावत होने से अखिलेश की ‘सर्वमान्य छवि’ भी नहीं बनती!
ऐसे में मुलायम सिंह खुद ही अखिलेश विरोध की कमान संभाले रहे, और अब वह खुद ही अदालत जाने की बात भी कह रहे हैं. जाहिर तौर पर अखिलेश से वह इसीलिए लड़ने का नाटक कर रहे हैं, ताकि कोई और अखिलेश से न लड़े और अखिलेश से भला वह क्यों लड़ेंगे? ऐसे ही मुलायम ने चुनाव आयोग में भी अपने केस को न केवल कमजोर किया, बल्कि दूसरे अखिलेश विरोधियों को सोचने का मौका तक नहीं दिया. हमें यह बात मानने में संकोच नहीं करनी चाहिए कि चुनाव आयोग में जब मुलायम और अखिलेश गुट अपना पक्ष प्रस्तुत कर रहा था, ऐसे में मुलायम सिंह यादव की ओर से जान बूझकर कमजोर तर्क प्रस्तुत किए गए. वह अगर सचमुच अखिलेश यादव के विरोधी होते तो वह भी पार्टी का राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाते और खुद के पक्ष में सपा डेलीगेट्स के होने का दावा करते. अभी उनके भीतर इतना दम तो है ही कि 5000 न सही, 1000 की भीड़ तो जुट ही जाती. किंतु, उन्होंने न केवल 5 जनवरी को घोषित राष्ट्रीय अधिवेशन कैंसिल कर दिया, बल्कि पार्टी के विधायकों को लामबंद करने की ज़रा भी कोशिश नहीं की. चुनाव आयोग में भी रामगोपाल जहाँ कई बक्से दस्तावेज चुनाव आयोग और संबंधित पक्षों को भेज रहे थे, तो मुलायम बस अखिलेश विरोधी बयान ही देते रहे. एक पल के लिए मान भी लें कि मुलायम सिंह यादव यह सारी बातें अनजाने में भूल गए थे, किन्तु सभी अखिलेश विरोधी यह बात भूल गए थे, यह बात हज़म कैसे हो सकती है? वस्तुतः मुलायम आखिर तक, शिवपाल और अमर सहित दूसरे अखिलेश विरोधी नेताओं को भरोसा दिलाते रहे कि अखिलेश से वह लड़ रहे हैं और आखिर में मुलायम सिंह ने खुद को जानबूझकर हरा लिया! मतलब कोई खुलकर बगावत न कर सका और काम भी बन गया.
अब आगे क्या?
मुलायम सिंह अभी भी सरेंडर नहीं कर रहे हैं और बीच-बीच में अखिलेश से लड़ने का दम भर रहे हैं, ताकि अखिलेश के विरोधियों का भरोसा उन पर बना रहे. मुलायम सिंह यादव जानते हैं कि चुनावी मैदान में अखिलेश विरोधी खेमा राजनीति कर सकता है, इसलिए पहले ही मुलायम ने अखिलेश के खिलाफ खुद ही चुनाव लड़ने का शिगूफा छोड़ दिया है. राजनीति पर्दे की कितनी परतों के भीतर खेली जाती है, इस बात का इस प्रकरण से जीवंत उदाहरण दूसरा नहीं मिलने वाला! अब अखिलेश विरोधियों की सभी चाल मुलायम सिंह को पता होगी और उस अनुरूप मुलायम अखिलेश की राह ‘सुगम’ बनाने का कार्य आगामी चुनाव में भी करेंगे ही! चुनाव में अखिलेश जीतेंगे अथवा हारेंगे यह तो जनता के ऊपर निर्भर करेगा, किंतु समाजवादी पार्टी तो अब उन्हीं की है. अगर वह सत्ता में नहीं भी आए तो नेता विपक्ष का पद उनके लिए सुरक्षित है. इसके अतिरिक्त, सपा जैसी बनी बनाई मजबूत पार्टी का कैडर अखिलेश यादव के साथ अब एकजुट होकर खड़ा है. सपा का निश्चित वोट वर्ग तो अखिलेश के साथ है ही, साथ में विनम्र, किंतु जनता के लिए पिता से लड़ जाने वाले एक बहादुर युवक की छवि अखिलेश के लिए फायदेमंद हो सकती है.
मुस्लिम वोट की गणित
कुछ दिन पहले तक सपा से मुस्लिम वोटों के छिटकने की बात की जा रही थी, किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अखिलेश और कांग्रेस में गठबंधन होने के पश्चात मुस्लिम वोट वर्ग अखिलेश के साथ बना रह सकता है.
हालांकि मुलायम सिंह ने एक चौंकाने वाला बयान जरुर दिया है और कहा है कि अखिलेश यादव मुसलमानों के प्रति ‘सॉफ्ट’ नहीं हैं, किंतु मुलायम जो कहते हैं उसका अर्थ सीधा ना होकर जलेबी की तरह टेढ़ा-मेढ़ा होता है.
आप गौर करेंगे तो पाएंगे कि शिवपाल और अखिलेश विवाद में यह बात उठी थी कि अखिलेश यादव मुस्लिम विरोधी हैं और उनके बारे में इससे संबंधित खबरें मीडिया में प्लांट भी कराई जा रही थीं, किंतु मुलायम सिंह यादव ने खुद ही इस मुद्दे को उठाकर चर्चा में ला दिया है, इससे पहले कि कोई और ऐसी बात करे! वस्तुतः मुलायम ने यह बात कहकर अखिलेश को सफाई देने का मौका दे दिया है. जरा गौर करें, कुछ मुस्लिम नेताओं द्वारा अखिलेश की प्रशंसा, कांग्रेस का साथ और अखिलेश प्रशासन द्वारा मुसलमानों के संबंध में अपनाई गई सरकारी नीतियों के बल पर अखिलेश खुद के साथ मुस्लिमों का वोट बनाये रखेंगे, इस बात में दो राय नहीं! वैसे भी, यूपी में मुस्लिमों के पास बेहद सीमित विकल्प हैं और सपा-कांग्रेस गठबंधन व बसपा में जो भी जीतता नज़र आएगा, मुस्लिम उसी की ओर रूख करेगा, इस बात में दो राय नहीं!
Akhilesh Yadav and Samajwadi Party Politics, UP Election 2017 Pic Credit: Team Roar)
इस बात में शक ना कीजिएगा कि यह मुलायम सिंह का ‘निर्देशित नाटक’ ही रहा है, जिसका प्रीमियर जबरदस्त रहा है. हालाँकि, यह जनता के बीच ‘सुपरहिट’ होगा अथवा ‘सुपरफ्लॉप’, यह बात अवश्य देखने वाली होगी. जाते जाते अखिलेश के हाथ में मुलायम अपने जीवन भर की राजनीतिक पूंजी दे चुके हैं और अखिलेश ने पार्टी में अपना वर्चस्व साबित करके उनके विश्वास को आगे ही बढ़ाया है. कुछ लोग कह सकते हैं कि मुलायम सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद नहीं छोड़ना चाहते थे, ऐसे में उन लोगों को समझना चाहिए कि मुलायम सिंह सक्रिय राजनीति से संन्यास 2012 में ही ले चुके थे जब उन्होंने अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री पद सौंपा था रही सही राजनीतिक रुचि उनकी तब और समाप्त हो गई जब 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की लहर ने सभी को उखाड़ फेंका अब तो वह अखिलेश को पूरी तरह कमान सौंपने के सही मौके का इंतजार भर कर रहे थे जो उन्होंने कर दिखाया. अब उत्तरप्रदेश चुनाव में एक मजबूत मुख्यमंत्री जनता से ‘वोट’ मांगेगा, जिस पर साढे 4 साल तक कमजोर मुख्यमंत्री होने का ठप्पा लगा रहा था.
हालाँकि, अखिलेश यादव को यह नहीं भूलना चाहिए कि सोशल मीडिया के जमाने में जनता सब जानती है …
सब कुछ जानती है!
उससे कुछ नहीं छुपा है …
और उसकी नजरों से कुछ भी नहीं बचा है!
इसलिए, पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त !!
Web Title: Akhilesh Yadav and Samajwadi Party Politics
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