पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव का शोर चहुंओर सुनाई दे रहा है. हाल फिलहाल तो गोवा और पंजाब में चुनाव संपन्न भी हो चुके हैं और यहाँ पहले चरण में हुई भारी वोटिंग ने सत्ताधारी राजनीतिक दलों के कान खड़े कर दिए हैं. जाहिर तौर पर भारी वोटिंग का मतलब सत्ता परिवर्तन से ही लगाया जाता रहा है. पंजाब और गोवा, दोनों ही राज्यों में भाजपा और उसके सहयोगी अकाली दल की सरकार है और अगर सच में इन दोनों राज्यों में भारी वोटिंग का वही परिणाम आता है, जिसका आंकलन सामान्य रूप से किया जाता रहा है, तो फिर केंद्र की भाजपा सरकार की लोकप्रियता भी इससे आंकने की कोशिश की जाएगी. इसके अतिरिक्त, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और मणिपुर के चुनावी मूड का एक क्रमवार आंकलन देखना दिलचस्प रहेगा.
Assembly Elections 2017 in 5 States, Narendra Modi, Amit Shah (Pic: Indian Express)
पंजाब में कौन बनेगा ‘सरदार’
पंजाब का चुनाव बेहद ख़ास है, सभी दलों के लिए. अगर क्रमवार आंकलन करते हैं तो पंजाब का चुनाव जीतने के लिए तीनों राजनीतिक दल यानी आम आदमी पार्टी, कांग्रेस और सत्ताधारी अकाली-भाजपा ने अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है. इस सीमांत प्रांत में हाल फिलहाल नशाखोरी का मुद्दा सर्वाधिक चर्चित रहा है और बाकी सारे मुद्दे इस के साए में गायब से हो गए हैं. विपक्षी पार्टियां जहाँ सत्ताधारी दल पर नशे का कारोबार बढ़ाने का आरोप चस्पा कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा-अकाली गठबंधन का बचाव करते हुए कहते हैं कि ‘चुनाव जीतने के लिए पंजाब के युवाओं को बदनाम किया जा रहा है.’ देखा जाए तो पंजाब चुनाव को लेकर “आप सुप्रीमो” अरविंद केजरीवाल कुछ ज्यादा ही सक्रिय रहे हैं, क्योंकि राजनीति में आने के बाद उनकी राष्ट्रीय राजनीति की महत्वकांक्षा को केंद्र सरकार ने दिल्ली में बड़ी सावधानी से नियंत्रित किया है.
चूंकि, दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश है, इसलिए केजरीवाल को हाथ में सत्ता होते हुए भी सत्ता नहीं होने का एहसास होता रहा है. अरविन्द केजरीवाल की यह टीस बार-बार दिखी भी है! जाहिर तौर पर पंजाब में अरविंद केजरीवाल सत्ता में आने के लिए हर वह चाल चल रहे हैं, जिससे उन्हें फायदा मिल सकता है.
यहां तक कि खालिस्तान उग्रवाद के दौर के आतंकियों / आरोपियों का साथ लेने का भी केजरीवाल पर आरोप लग रहा है. यह आरोप आतंक नियंत्रित करने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले पुराने अधिकारी केपीएस गिल जैसे अफसरों ने लगाए हैं. इस सन्दर्भ में बातें छन-छनकर आ रही हैं कि कनाडा जैसे देशों से भारी मात्रा में आम आदमी पार्टी को फंडिंग हुई है, तो पंजाब राज्य में बाहर के देशों से लगभग पचास हजार वोटर्स आए हैं, जिन्हें अरविंद केजरीवाल की तरफ झुका हुआ माना जा रहा है. जाहिर तौर पर यदि सच में ऐसा है तो यह बेहद चिंता उत्पन्न करने वाला है. यदि यहाँ कांग्रेस की बात करते हैं, तो कैप्टन अमरिंदर ने जीत के लिए अपने सभी घोड़े खोल दिए हैं. साथ में नवजोत सिंह सिद्धू के रूप में उन्हें एक मजबूत प्रचारक भी मिला है. हालाँकि, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस दोनों के मजबूत होने की स्थिति में वोट निश्चित रूप से बंट सकते हैं और इस स्थिति का फायदा एक बार पुनः भाजपा-अकाली दल को मिल सकता है.
गोवा की राजनीति
Assembly Elections 2017 in 5 States, Arvind Kejriwal (Pic: intoday.in)
गोवा में भाजपा की जड़ें बेहद मजबूत रही हैं और केंद्र में रक्षामंत्री का दायित्व संभाल रहे मनोहर पर्रिकर के रूप में उनके पास एक अतिरिक्त प्रचारक भी है, जिसकी सादगी की चर्चाएं न केवल गोवा में, वरन देश भर में होती है. हालाँकि, वहां भी पंजाब की ही तरह त्रिकोणीय मुकाबले की बात कही जा रही है. आम आदमी पार्टी खुद को राष्ट्रीय स्वरुप देने के लिए बेचैन है और जाहिर तौर पर इसमें हर जगह का अपना महत्त्व है. अपनी इस यात्रा में अरविन्द केजरीवाल ने गोवा का चुनाव बेहद सोच समझकर किया है. हालाँकि, विश्लेषक इस बात पर एकमत हैं कि आम आदमी पार्टी जहाँ भी मजबूत होगी, कांग्रेस कमजोर होगी और इस आधार पर दोनों के वोट आपस में ही कटेंगे. जाहिर तौर पर इसका लाभ भाजपा को ही मिलने वाला है. बात जहाँ तक मनोहर पर्रिकर की है तो गोवा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री के रूप में राज्य में वापसी की संभावना के बारे में पूछे जाने पर पर्रिकर ने संवाददाताओं से कहा, ‘मैं केवल यह कह सकता हूं कि जब समय आएगा तब देखा जाएगा. मतलब भाजपा ने पर्रिकर के रूप में अपने पत्ते को खुला छोड़ रखा है, जिसका लाभ उसे मिल सकता है.
पहाड़ी राज्य उत्तराखंड की ‘करीबी’ जंग
Assembly Elections 2017 in 5 States, Harish Rawat, Uttrakhand (Pic: Indian Express)
अगर बात करते हैं उत्तराखंड राज्य की तो इस राज्य में जो भी सर्वे परिणाम आए हैं, वह कमोबेश दोनों दलों की बराबर संभावनाएं दिखला रहे हैं. इस राज्य में भाजपा और कांग्रेस में ही मुख्य रूप से टक्कर है. तमाम सर्वे रूझानों में, जिसमें किसी ने भाजपा को ऊपर दिखलाया है तो किसी ने कांग्रेस को, इसलिए स्थिति यहां पर उलझी हुई सी दिखती है और इसलिए संभावित परिणामों के बारे में ठोस तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता. जाहिर तौर पर यहाँ मुकाबला बेहद ‘करीबी’ है.
हालांकि मुख्यमंत्री बनने के बाद हरीश रावत ने इस पहाड़ी राज्य में खुले हाथ से रेवड़ियां बांटी है और जी-जान लगाकर जुट गए हैं वापसी करने में! पर उनके पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और दूसरे कांग्रेसियों की बगावत से हरीश रावत की राह इतनी आसान नहीं रहने वाली!
बहुत मुमकिन है कि उन्हें सत्ता से हट जाना पड़े, क्योंकि कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय ‘घोटालेबाज’ छवि से अभी मुक्ति नहीं हो सकी है. भाजपा तमाम चुनावी सभाओं में इसे उठा भी रही है. उत्तराखंड में जीत हासिल करना कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के लिए भी बेहद अहम् है, क्योंकि देश भर में वह लगातार सिकुड़ती ही गयी है और अगर उत्तराखंड उसके हाथ से फिसलता है, तो फिर अपने कार्यकर्ताओं को जोड़े रखना इस पार्टी के लिए बेहद मुश्किल साबित हो सकता है.
उत्तर प्रदेश की ‘मेगा’ फाइट
Assembly Elections 2017 in 5 States, UP, Akhilesh, Rahul (Pic: firstpost.in)
उत्तराखंड के बाद अगर हम बात करते हैं उत्तर प्रदेश की, तो समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा बन चुके अखिलेश यादव के लिए वर्तमान चुनाव जीने मरने की अहमियत वाले हैं. इस बात को वह बखूबी समझते हैं और इसीलिए अखिलेश यादव ने कांग्रेस पार्टी को उसकी अहमियत से ज्यादा सीटें दी हैं. विश्लेषक इस बात पर एकमत हैं कि उत्तर प्रदेश में सपा-कांग्रेस गठबंधन में कांग्रेस की अहमियत 60 – 70 सीटों से ज्यादा की नहीं थी, किन्तु 105 सीटें देना अखिलेश यादव की ‘येन केन प्रकारेण’ खुद को सही साबित करने की ही कवायद है. बहुत मुमकिन है कि अखिलेश की चाल कामयाब भी हो जाए, क्योंकि कांग्रेस के साथ आ जाने से सपा का मुस्लिम वोट बैंक उससे छिटकने की सम्भावना कम ही है.
हालाँकि, बसपा ने लगभग 100 सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं और कम से कम इन सीटों पर मुस्लिम वोट बंटने की गुंजाइश अवश्य है. वैसे भी मुस्लिम समुदाय जिधर भी जाता है “एक साथ ही जाता है”, किन्तु वोट बंटने की स्थिति में कुछ सीटों पर भाजपा भी बाजी मार सकती है.
अखिलेश पर फिर बात करते हैं, तो मुस्लिम वोटर्स के अलावा यादव वोटर्स उनके साथ पूरी मजबूती से खड़े हैं और राजनीतिक विश्लेषक यह अनुमान भी लगा रहे हैं कि अखिलेश की छवि ने सवर्ण युवाओं को भी आकर्षित किया है. इसके साथ अखिलेश की नाकामियां, यूपी में अपराध इत्यादि की जवाबदेही शिवपाल सहित सपा की पुरानी लीडरशिप की ओर घूम चुकी है. ऐसे में, अखिलेश की छवि ऐसी बन चुकी है कि वह मुख़्तार अंसारी, अतीक अहमद जैसे दबंगों का विरोध करते हैं! बात करते हैं भाजपा की तो उत्तर प्रदेश में अमित शाह की रणनीति भाजपा के लिए आत्मघाती सी दिख रही है.
चूंकि राजनीतिक रूप से यह देश का सबसे प्रभावशाली राज्य है, इसलिए जान बूझकर अमित शाह ने यहाँ किसी नेतृत्व को उभरने नहीं दिया है. वजह साफ़ है कि इससे आने वाले दिनों में कहीं वह चेहरा ‘केंद्र’ के लिए दावेदारी न ठोक दे! योगी आदित्यनाथ से लेकर वरुण गाँधी सहित प्रभावशाली चेहरों को साइड कर दिया गया है, तो टिकट बंटवारे में दल-बदलुओं को महत्त्व देने से भाजपा में अंतरकलह चरम पर है.
समाजवादी कुनबे में कलह और मायावती के ख़िलाफ़ बसपा में बगावत के बाद ऐसा लगने लगा था कि भाजपा यूपी का मैदान मार लेगी, लेकिन अब मामला बदल चुका है. ऐसा नहीं कहा जा सकता कि अमित शाह की भाजपा इस राज्य को जीतना नहीं चाहती है, किन्तु यह बात तय है कि वह किसी भी नेतृत्व को यहाँ उभरने नहीं देना चाहती है. इस चक्कर में यह पार्टी तमाम संभावनाओं के बावजूद उत्तर प्रदेश में सत्ता से दूर रह सकती है. बात जहाँ तक बसपा की है तो उसकी पूरी स्ट्रेटेजी मुस्लिम वोटर्स के इर्द गिर्द है. दलित वोटर्स उसके पक्ष में एकमुश्त गिरेंगे, इस बात में दो राय नहीं, किन्तु मुसलमान उस पर कितना भरोसा करते हैं, यह बात देखने वाली होगी. कांग्रेस के लिए इस प्रदेश में खोने को कुछ नहीं है. अगर सपा से उसका गठबंधन जीतता है, तो इसका श्रेय उसे भी मिलेगा, किन्तु अगर गठबंधन हारता है तो इसका ठीकरा अखिलेश यादव पर फूटेगा.
सीमान्त प्रान्त ‘मणिपुर’ की राजनीति
Assembly Elections 2017 in 5 States, Irom Sharmila, Manipur (Pic: indialivetoday.com)
मणिपुर की बात की जाये तो यहाँ 60 विधानसभा सीटों पर दो चरणों में चुनाव लड़ा जाएगा. पहले चरण के लिए 4 मार्च को 38 सीटों पर वोटिंग होगी, वहीं दूसरे चरण में 22 सीटों के लिए 8 मार्च को वोटिंग होगी. मणिपुर में फिलहाल कांग्रेस की सरकार है और ‘ओकराम इबोबी’ यहां के मुख्यमंत्री हैं. साल 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 60 में से 42 सीटें जीत कर मणिपुर में रिकार्ड कायम किया था और मणिपुर में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सरकार बनायी. लेकिन सितंबर 2016 में कांग्रेस के 25 विधायक मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के मंत्रिमंडल में बदलाव के लिए असंतुष्ट हो गए. उन्होंने आरोप लगाया कि इबोबी अपने मन की करते हैं और विधायको की बात नहीं सुनते. मामला इतना बढ़ा कि बागी विधायकों ने भाजपा में शामिल होने तक की धमकी दे डाली थी. तब मणिपुर में कांग्रेस की सरकार गिरते गिरते बची थी. जाहिर तौर पर इन चुनौतियों से कांग्रेस के प्रदेश नेतृत्व को उबरना पड़ेगा.
पूर्वोत्तर के राज्यों को भाजपा का गढ़ नहीं माना जाता है, लेकिन मोदी फैक्टर की वजह से अब इन राज्यों में भी भाजपा का जनाधार बन रहा है. केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर इस सीमान्त राज्य के चुनाव प्रभारी हैं, तो जम्मू-कश्मीर और असम की सफलता के बाद पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव भी पूर्वोत्तर राज्यों में खासे सक्रिय हैं.
हालाँकि, कहा जा सकता है कि विधानसभा चुनाव बीजेपी बनाम कांग्रेस ही नहीं रहने वाला है, बल्कि यहाँ एनपीएफ भी ठीक ठाक अवस्था में है. पिछले चुनाव में चार सीटें झटकने में यह सफल भी रही थी. इसके साथ ही ‘आइरन लेडी’ के नाम से मशहूर ‘इरोम शर्मिला’ भी अपनी पार्टी ‘पीपुल्स रिसर्जेस एंड जस्टिस अलायंस’ का गठन कर चुनाव में उतरने की तैयारी में हैं. कुल मिलकर यहाँ भी मुकाबला दिलचस्प ही है और जनता का निर्णय ही परदा उठाएगा कि यहाँ किसका गुल खिला और कौन असफल रहा.
Web Title: Assembly Elections 2017 in 5 States, Hindi Article
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