पिछले दो सालों के दौरान जिन बातों पर सर्वाधिक चर्चा हुई है, उनमें ‘सेंसर बोर्ड’ और उससे जुड़े विवादों का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है. खासकर 19 जनवरी 2015 को जब मशहूर फ़िल्मकार पहलाज निहलानी सेंसर बोर्ड के चेयरमैन बने, तबसे अनगिनत बार बवाल कटा है और ऐसा कहना गलत न होगा कि पहलाज निहलानी साहब फिल्म इंडस्ट्री के निशाने पर आ गए थे.
खैर, अब उनकी जगह नए चेयरपर्सन प्रसून जोशी की नियुक्ति की गयी है.
हालाँकि, ऐसा नहीं है कि सिर्फ पहलाज निहलानी के कार्यकाल में ही विवाद हुए हों और इस बात की गारंटी भी नहीं है कि यह विवाद आगे नहीं होंगे.
शायद इसीलिए, इससे जुड़े विवादों पर तमाम फिल्मकारों की राय यही रही है कि इस बोर्ड को ‘सेंसर बोर्ड’ बनने की बजाय ‘फिल्म प्रमाणन बोर्ड’ की ही तरह व्यवहार करना चाहिए. वैसे भी इसका असली नाम सीबीएफसी, यानी सेण्टल बोर्ड ऑफ़ फिल्म सर्टिफिकेशन ही है.
ऐसी स्थिति में समझना आवश्यक है केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की वास्तविक कार्य प्रणाली क्या है?
इसके द्वारा दिए जाने वाले सर्टिफिकेट्स का आधार और प्रदत्त चिन्ह का मतलब क्या होता है?
इसके साथ इससे जुड़े बड़े विवादों और सुधार की सिफारिशों पर एक नज़र डालना सामयिक रहेगा…
सेंसर बोर्ड कैसे करता है काम?
किसी भी फिल्म के बनने के बाद फिल्म निर्माता को सेंसर सर्टिफिकेट लेना आवश्यक है. इसके लिए फ़िल्मकार को सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (CBFC) के नजदीकी ऑफिस (Link in English) में संपर्क करना होता है. यहाँ फ़िल्मकार द्वारा सीबीएफसी के रीजनल अफसर को बताना होता है कि वह यह फिल्म किन लोगों के लिए बना रहा है. मतलब इसकी ऑडियंस क्या है. अगर मेंबर्स की बात की जाए तो सेंसर बोर्ड में 22-25 सदस्य होते हैं. कोशिश रहती है कि सेंसर बोर्ड में बुद्धिजीवी लोगों को शामिल किया जाए. मतलब, जिन्हें सिनेमा और समुदाय की समझ हो.
अब अगर सर्टिफिकेट देने के प्रोसीजर की बात की जाए तो सेंसर बोर्ड में सबसे पहले जांच समिति फिल्म देखती है और तय करती है कि उसे U, U/A, और A में से किस श्रेणी में रखना है. अगर उस फैसले से फ़िल्मकार खुश है तो कोई बात नहीं, पर अगर सटिस्फैक्शन नहीं है तो वह फिल्म दोबारा देखने की गुजारिश कर सकता है.
फिर इसके बाद एक नई कमेटी फिल्म देखती है, जिसमें बोर्ड का एक सदस्य भी मौजूद रहता है.
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि दूसरी बार फिल्म देखने के दौरान ही फिल्म में कट लगाए जाते हैं. अगर मामला यहाँ भी नहीं बनता है तो फिल्म निर्माता कट लगाने के खिलाफ फिल्म सर्टिफिकेशन अपीलेट ट्रिब्यूनल (Film Certification Appellate Tribunal), यानी एफसीएटी (Link in English) में अपील करता है. यह ट्रिब्यूनल रिटायर्ड जजों की एक कमिटी होती है.
बहुत मुमकिन होता है कि मामला यहां आकर निपट जाए, पर अगर वहां से भी फिल्म निर्माता दुखी है तो फिर सुप्रीम कोर्ट ही विकल्प बचता है.
हालाँकि, अधिकांश फ़िल्मकार रिलीज की तारीख पास होने के कारण नुकसान से बचना चाहते हैं. ऐसे में वह सेंसर बोर्ड की बात मान लेते हैं और कुछ कट और दिए गए सर्टिफिकेट के सहारे फिल्म को रिलीज कर देते हैं.
अब अगर सर्टिफिकेट्स, यानी फिल्मों की कैटगरी की बात की जाए, जिसे फिल्म शुरु होने से पहले इसे दस सेकेंड तक दिखाना अनिवार्य होता है, वह कुछ यूं होता है (Link in English).
जिस फिल्म प्रमाण-पत्र पर ‘अ’ लिखा होता है उसे कोई भी देख सकता है और इसमें उम्र की कोई सीमा नहीं होती है. इसी तरह यदि सर्टिफिकेट पर ‘अ / व’ लिखा है तो 12 साल से कम उम्र के बच्चे इस फिल्म को माता-पिता के निर्देशन में ही देख सकते हैं. इसके बाद बारी आती है ‘व’ सर्टिफिकेट की. यदि सर्टिफिकेट पर ‘व’ लिखा है तो समझिये कि फिल्म को 18 साल से ज्यादा उम्र के लोग ही देख सकते हैं. एक और ख़ास कैटगरी होती है, जो सामान्यतः कम ही यूज होती है. यह ‘S’ सर्टिफिकेट की बात है. जिन फिल्मों को ‘S’ सर्टिफिकेट मिलता है वो खास कैटगरी के लिए होती है जैसे डॉक्टर या साइंटिस्ट.
मतलब हाइली टेक्निकल या रिसर्चियल.
हालाँकि, इस समूची प्रक्रिया में सेंसर बोर्ड पर कुछ सवाल इसलिए उठते रहे हैं क्योंकि वह अभी तक 1952 में बने नियमों के अंतर्गत ही कार्य कर रहा है. ऐसे में यह मांग उठती रही है कि इन नियमों को समय के अनुरूप बदला जाना चाहिए.
जाहिर तौर पर 1952 से अब तक वक़्त काफी बदल चुका है और इस लिहाज से सेंसर बोर्ड को भी व्यापक रूख अपनाना चाहिए.
सेंसर बोर्ड से जुड़े हालिया विवाद एवं दूसरा पक्ष
पहलाज निहलानी के हटने से पहले सेंसर बोर्ड से जुड़ा जो सबसे हालिया विवाद था, वह नेशनल अवार्ड विनर मधुर भंडारकर की फिल्म इंदु सरकार का विवाद था. हालाँकि, फिल्म फ्लॉप हो गयी, किन्तु सेंसर बोर्ड के कई कट लगाने के निर्देश के कारण यह खासी चर्चा में रही. पिछले कई किसिंग सीन और कथित रूप से आपत्तिजनक शब्दों पर कैंची चलाने को लेकर पहलाज निहलानी को ‘संस्कारी’ तक की संज्ञा दे दी गयी थी. इसके अतिरिक्त, पहलाज निहलानी के कार्यकाल में फिल्म प्रमाणन से जुड़े विवादों की एक लम्बी लिस्ट (Link in English) है.
निहलानी की पूर्ववर्ती लीला सैमसन का ‘मेसेंजर ऑफ़ गॉड’ पर उठायी गयी आपत्ति भी काफी चर्चित रही थी, जिसमें उन्होंने नायक द्वारा खुद को भगवान घोषित करने पर आपत्ति दर्ज कराते हुए अपने पद से त्यागपत्र तक दे डाला था.
उनके पहले मशहूर फिल्म अभिनेत्री शर्मिला टैगोर का एक लंबा कार्यकाल अपेक्षाकृत कम विवादित था. हाँ, यह बात अलग है कि तत्कालीन यूपीए सरकार द्वारा अनुपम खेर को सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष पद से हटाकर शर्मिला टैगोर को चेयरपर्सन बनाने की खबरें खूब चर्चित हुई थीं. बताते चलें कि अनुपम खेर शर्मीला टैगोर से पहले सीबीएफसी चीफ थे और उन पर गुजरात दंगे से सम्बंधित एक फिल्म के प्रमाणन को लेकर आरोप लगे थे.
खैर, पिछले दशक का फिल्म प्रमाणन का इतिहास देखने पर साफ़ हो जाता है कि यह विवाद कोई नए नहीं है. हाँ, निहलानी साहब के दौर में यह कुछ ज्यादा ही होने लगा था.
वैसे इस समूचे विवाद का दूसरा पक्ष भी है.
इस बात में कोई शक नहीं है कि आज ग्लैमर की चकाचौंध में सफलता पाने के लिए तमाम फ़िल्मकार शॉर्टकट अपनाते है. ऐसे में फिल्म स्क्रिप्ट की मांग का बहाना लेकर द्विअर्थी संवाद, सेक्स सीन, गाली-गलौच जैसे दृश्य जबरदस्ती ठूंसे जाते है. जाहिर तौर पर आज के बदलते दौर में बच्चों को एकदम से दूर रखा जाना संभव नहीं माहौल से. ऐसे में प्रमाणन बोर्ड के साथ साथ फिल्मकारों की जवाबदेही भी बनती ही है.
खुद शर्मीला टैगोर ने फिल्मों में गाली-गलौच की निंदा करते हुए कहा थे कि “आज फिल्मों में सेक्स और वायलेंस बहुत बिकता है. जो चीजें बिकती हैं, वही चीजें बनाई जाती हैं, इसीलिए इन दिनों फिल्मों में इनकी भरमार है. चूंकि समाज पर फिल्म का जबर्दस्त असर पड़ता है, इसलिए हमारी जिम्मेदारी बनती है कि हम ऐसी चीजों को सोच-समझ कर और मर्यादित इस्तेमाल करें. लेकिन जब ऐसा नहीं होता तो सेंसर बोर्ड को अपना काम करना पड़ता है.”
कुछ इसी तरह के विचार दिवंगत अभिनेता ओमपुरी के भी रहे तो दूसरे बुद्धिजीवी भी इससे सहमत होंगे कि आखिरकार समाज के प्रति एक न्यूनतम जवाबदेही फिल्मकारों की भी बनती है.
हाँ, इससे कला और रचनात्मकता पर फर्क नहीं पड़ना चाहिए, किन्तु ऐसा भी न हो कि रचनात्मकता के नाम पर कुछ भी… ऐंवे ही …
वह एक फिल्म का गाना भी है कि ‘
मैं चाहे ये करूँ, ओ करूँ… मेरी मर्जी!
ना भाई ना…
सेंसर बोर्ड भी है. कुछ तो ‘मर्जी’ को ‘जवाबदेही’ के साथ जोड़ा जाना चाहिए!
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Web Title: Indian Film Industry and Censor Board, Hindi Article
Keywords: Pehlaj Nihlani, Prasun Joshi, CBFC, Bollywood, Controversy, Working Procedure of Censor Board in Hindi, Leela Samson, Sharmila Tagore, Anupam Kher, Writer Mithilesh, A Brief about CBFC
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