अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस यानि महिलाओं को समर्पित एक दिन! सवाल उठता है कि सिर्फ एक दिन ही क्यों? यूँ तो मार्च का पहला सप्ताह पूरी दुनिया में महिला सशक्तिकरण सप्ताह के रूप में मनाया जा रहा है, किन्तु महानायक अमिताभ बच्चन ने अभी हाल ही में जेंडर इक्वलिटी को समर्थित करते हुए अपनी प्रॉपर्टी का आधा हिस्सा अपनी बेटी को देने का ऐलान कर इस ‘वीमेन डे’ को और भी खास बना दिया है.
गौरतलब है कि महिला अधिकार की दिशा में सार्थक कदम उठाते हुए बॉलीवुड के महानायक अमिताभ बच्चन ने लोगों को ‘मजबूत सन्देश’ देने का प्रयास किया है और वह यह कि “बेटे और बेटी में वाकई कोई फर्क नहीं है”. इसलिए उन्होंने अपनी संपत्ति में बेटी को भी उतना ही हक़ दिया है, जितना अपने बेटे को! मतलब अमिताभ बच्चन अपने बेटे अभिषेक बच्चन और स्वेता नंदा बच्चन में अपनी संपत्ति बराबर बाटेंगे.
निश्चित तौर पर यह एक बड़ी शुरुआत है और अगर समाज के 1% लोग भी इसके सन्देश को समझें और फॉलो करें तो काफी कुछ बदलाव आ सकता है. अगर हम भारत की बात करें, तो यहाँ प्रचीन काल से ही औरतों के सम्मान की परंपरा रही है और कहते भी हैं ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:’ अर्थात जहां औरतों का सम्मान होता है, वहां देवताओं का वास होता है, जिससे सुख -समृद्धि आती है. प्राचीन समय की तमाम विदुषी महिलाएं इस बात का उदहारण हैं. विद्योत्मा, सावित्री, मैत्रेयी, गार्गी, अनुसुईया… इत्यादि. इन महिलाओं ने यह बखूबी साबित किया कि औरतें किसी से किसी भी मामले में कम नहीं हैं. इन महिलाओं ने एक और सन्देश दिया कि अगर औरतें तमाम बाधाओं और रुकावटों को तोड़ते हुए अपने हुनर का लोहा मनवाती हैं, तो समाज के साथ पूरा विश्व उन्हें स्वीकार करेगा ही! बस जरुरत है तो अपने आप को पहचानने की, खुद को साबित करने की. वैसे भी नदी को अपना रास्ता खुद ही बनाना पड़ता है, कोई उसके लिए मार्ग का निर्माण नहीं करता.
घर गृहस्थी एवं कामकाजी महिला
International Women’s Day, Hindi Article, Mary Kom (Pic: telfie.in)
अगर हम वर्तमान समय में महिलाओं की स्थिति के विषय में बात करें तो समाज के बदलते स्वरुप ने निश्चित तौर पर महिलाओं की स्थिति को प्रभावित किया है. पहले खेती -बाड़ी का काम होता था, जिसमें औरतें घर के अंदर रहते हुए बराबर का सहयोग करती थीं. लेकिन अब जब ये काम कम हो गया है और पूरी तरह से व्यवस्था मशीनों पर आधारित हो रही है, तो ऐसे में औरतों के सामने लगभग घरेलु बेरोजगारी वाली हालत हो गयी है. औरतें क्या करें? वो किस तरह साबित करें कि वो भी काम कर सकती हैं? निश्चित रूप से उनका भी मन करता होगा गृहस्थी में बराबर योगदान देने का! यहाँ योगदान मतलब सिर्फ खाना बनाना और बच्चे पालने से ही नहीं, बल्कि आर्थिक और सामाजिक तौर पर सहभागिता से है. हालाँकि, यह कार्य स्वयं में बेहद विराट हैं, किन्तु वक्त इन्हें समेटते हुए आगे बढ़ने का है. चूंकि, समय बदल रहा है, इसलिए बदलते समय के साथ व्यवस्था भी बदलेगी और इसी बदली व्यवस्था में अपने लिए महिलाओं को राह खोजनी ही होगी. यदि इशारे में कहा जाए तो इन्टरनेट की दुनिया ने पुरुषों के साथ महिलाओं के लिए भी संभावनाओं के बड़े द्वार खोले हैं. जरूरत है तो इन्हें पहचानने और स्वीकारने की.
कई महिलाओं की राह में शादी और बच्चों की जिम्मेदारियां भी बड़ा खलल डालती हैं, किन्तु हम सुपर मॉम ‘मैरी कॉम’ को क्यों भूल जाते हैं? मैंने अनुभव किया है कि विवाह-संस्था में बंधने के पश्चात उसकी जिम्मेदारियों को निभाते हुए महिलाओं को होम-बेस्ड उद्यम, कंसल्टेंसी, पार्ट टाइम जॉब और संभव हो तो फुल टाइम जॉब आवश्यक रूप से जारी रखना चाहिए. फैसलों में ‘सक्रीय’ सहभागिता एवं उससे बढ़कर ‘महिलाओं’ के प्रति सम्मान में इससे बहुत कुछ बदल सकता है. इस कल्चर से नयी पीढ़ी के बच्चों के मन मस्तिष्क में ‘महिला और पुरुष’ के बीच बराबरी का सन्देश मजबूती से जा सकता है.
आज के समय में जब मर्चेंट नेवी की पहली महिला कैप्टन राधिका मेनन, वायु सेना की लड़ाकू पायलट भावना कंठ, अवानी चतुर्वेदी और मोहाना सिंह, टेनिस स्टार सानिया मिर्ज़ा, पहलवान गीता और बबिता फोगट जैसी महिलाओं के चर्चे होते हैं, तो जाहिर तौर पर एक सामान्य लड़की के मन में भी ये इच्छा जरूर उत्पन्न होती होगी कि अगर ये लोग ऐसा कर सकती हैं तो मैं क्यों नहीं? सही भी है, धरती पर पैदा हुए हर प्राणी के अंदर कुछ ना कुछ खास गुण होते हैं, क्योंकि ऊपर वाले ने बिना भेद-भाव के सबका निर्माण किया है. इसलिए जरुरत है, बस कुछ अवसर उपलब्ध कराने की और फिर देखिये कैसे छलांग लगाती हैं औरतें! इसमें खुद महिलाओं की इच्छाशक्ति का भी अहम रोल है.
पुरुषवादी वर्चस्व को ढ़ीला करने की जरूरत
यहाँ अवसर उपलब्ध कराने की बात इस लिए कही गयी है, क्योंकि जैसे-जैसे हम आधुनिक होते गए, वैसे-वैसे कई अर्थों में हमने रूढ़िवादिता को भी अपना लिया. हम पुरुषों ने अपने आप को सर्वशक्तिमान समझते हुए सत्ता का केंद्र अपने हाथों में ले लिया और जितना हो सका, औरतों के लिए नियम कानून बना दिया. इसका परिणाम ये हुआ कि एक तरफ जहाँ औरतें नियमों और मर्यादाओं की बेड़ियों में जकड़ी हुई कमजोर हुयीं, वहीं पुरुष समाज सत्ता के मद में निरंकुश होता चला गया. आज इन नियमों का ही परिणाम है कि औरतों के लिए हर जगह खतरा ही खतरा नज़र आता है. चाहे वो स्कूल हो, बस स्टाप हो, बाजार हो या रिश्तेदारों का साथ ही क्यों न हो.
इस बीच समझने वाली बात ये है कि ये खतरा किससे है? क्या किसी दूसरे ग्रह के प्राणियों से है? नहीं! ये खतरा है समाज के उन ठेकेदारों से जो इसके कर्ता-धर्ता होने का दिखावा करते हैं. आज अगर समाज में कोई रेप की घटना घटती है, तो उसका गुनहगार एक पुरुष होता है. उसे पकड़ने वाला भी मुख्यतः पुरुष ही होता है, तो उसे सजा देने वाला जज और कई बार अपराधी को बचाने वाला राजनेता भी पुरुष ही होता है.
सहभागिता और महिला आरक्षण
International Women’s Day, Hindi Article (Pic: vanillanews.com)
जी हाँ, बात यहाँ महिलाओं की सहभागिता की ही है. आखिर संसद से सरकारी नौकरियों और उसके आगे तक महिलाओं के लिए आरक्षण लाने में क्या बुराई है? जातिवादी आरक्षण पर तो लोगबाग खूब आंदोलन करते हैं, किन्तु महिलाओं के आरक्षण के लिए समाज में सुगबुगाहट क्यों नहीं होती है? ऐसे में सत्ता पर कुंडली मारकर बैठा पुरुष इस अंधेरगर्दी के लिए अवश्य ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए. आखिर, जब सत्ता आपकी, साम्राज्य आपका तो जिम्मेदारी भी आपकी ही हुयी न! फिर भी हम उम्मीद करते हैं कि पुरुषवादी मानसिकता से निकलते हुए हमारा समाज महिलाओं को उनके हक़ से महरूम नहीं रखेगा, तो इसे दिवास्वप्न ही कहा जा सकता है.
समाज को समझना होगा कि औरतें उनका ही अपना अंग हैं और जब अपना एक अंग खुश नहीं होगा, काम नहीं करेगा, बेकार रहेगा तो उन्हें अकेले कैसे ख़ुशी मिल सकती है?
इसकी आस भी जगी है, क्योंकि आज हम जिन प्रगतिशील महिलाओं का उदाहरण देते हैं, उन पर गर्व करते हैं तो उनकी कामयाबी के पीछे भी उनके बाप, भाई और चाचा, दादा का हाथ होगा तभी जा कर वो अपने सपने को पूरा कर पायीं और बुलंदियों को छुआ. ऐसे उदाहरण कम इसलिए हैं, क्योंकि अभी औरतों को उनके बेसिक अधिकार देने में हम अपनी रूढ़ियों को छोड़ नहीं रहे हैं. जब तक हम बेटियों को बराबर का अधिकार नहीं देंगे खास कर शिक्षा और संपत्ति में तब तक वो सशक्त नहीं हो सकती हैं और जब तक वह सक्षम नहीं होंगी, तो जाहिर सी बात है पीछे ही रहेंगी.
इसलिए इस पुरानी कहावत को बदलने की बारी है, जिसके अनुसार ‘एक कामयाब पुरुष के पीछे एक महिला का हाथ होता है’. अब तो कहा जाना चाहिए कि ‘एक कामयाब महिला के पीछे एक पुरुष का हाथ हो सकता है’. इस महिला दिवस के अवसर पर हमें भी समझना होगा कि औरतों ने तो अपना कर्तव्य हमेशा ही निभाया है और पुरुषों को कामयाब बनाया है, परदे के पीछे रह कर. लेकिन क्या हम भी थोड़ा त्याग कर अपनी जिम्मेदारी निभाएंगे? अगर इस प्रश्न का उत्तर मिल जाए तो यकीन मानिये… दिल्ली दूर नहीं है.
Web Title: International Women’s Day, Hindi Article
Keywords: Women and Job, Social Development, Women, Children, Marriage, Social Issues, Indian Culture, Home Based Jobs, Part Time Job, Decision, Reservation, Crime against Women
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