मेरे एक मित्र ने उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के सीएम पद की शपथ लेने के बाद फेसबुक पर पोस्ट किया कि ‘अगर भाजपा किसी ईसाई या मुसलमान को यूपी में पार्टी अध्यक्ष बनाती है, तो यह मिसाल होगी.’ उनकी इस पोस्ट पर कई लोगों ने कई कमेन्ट किया. मैंने उस पर प्रतिक्रिया दी कि ‘अगर भाजपा किसी ईसाई, मुसलमान को अध्यक्ष बनाने की बजाय उन सहित दूसरे पिछड़े नागरिकों के रोजी-रोजगार और शिक्षा पर ठोस कार्य करे तो यह कहीं ज्यादा बड़ी मिसाल होगी.’ उसी कमेन्ट में मैंने आगे लिखा कि अगर किसी मुसलमान को यूपी भाजपा का अध्यक्ष बना भी दिया जाए तो वगैर जनाधार के उस व्यक्ति की हालत ‘पुतले’ जैसी ही होगी. ऐसे में किसी खास समुदाय को ‘लॉलीपॉप’ पकड़ाने की बजाय सभी समुदायों के जरूरतमंदों पर ठोस कार्य किये जाने की आवश्यकता है.
राजनीतिक प्रतिनिधित्व की सार्थकता
इस बात का यह अभिप्राय कतई नहीं है कि विभिन्न समुदायों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं करने दिया जाए, किन्तु राजनीति में जनता का विश्वास कहीं ज्यादा मायने रखता है. दुःख की बात यह है कि यहाँ लोग जनता का समर्थन हासिल करने की जगह हाई कमान संस्कृति के सहारे आगे बढना चाहते हैं. ऐसे में इलेक्शन की बजाय ‘सिलेक्शन’ होने से मामला बिगड़ जाता है और जनता से जनप्रतिनिधियों की दूरी और भी बढ़ जाती है. यही बात अगर भारतीय जनता पार्टी के सन्दर्भ में करें तो अल्पसंख्यकों की उससे दूरी रही है.
हालाँकि, कहा जा रहा है कि 2014 के आम चुनाव से स्थितियां कुछ बदली हैं और थोड़े बहुत ही सही मुसलमान भी भाजपा की तरफ झुक रहे हैं. 2017 के यूपी इलेक्शन में तो यहाँ तक कहा जा रहा है कि बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाओं ने भी भाजपा को वोट किया है.
वैसे मुस्लिम समुदाय के मन में अभी भाजपा को लेकर सहजता नहीं है, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है. ऐसे में अगर भाजपा भी दूसरी पार्टियों की तरह ‘लॉलीपॉप पॉलिटिक्स’ करेगी तो यह उसे रास नहीं आएगा. वैसे केंद्र के साथ-साथ भारत के अधिकांश राज्यों में भाजपा और उसके सहयोगी काबिज़ हैं, ऐसे में देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक यानी मुसलमान उससे दूर क्यों है और यह राजनैतिक प्रतिनिधित्व के लिहाज से कितना सही है, इस बात पर व्यापक चर्चा होनी चाहिए. यूं तो इस बात के लिए सीधे तौर पर भाजपा की हिंदूवादी पॉलिटिक्स को जिम्मेदार ठहराया दिया जाता है, किन्तु सच इससे आगे भी है. आज अगर देश की 20% जनसंख्या को उसी अनुपात में राजनीतिक प्रतिनिधित्व हासिल नहीं है तो इसके लिए दूसरे राजनीतिक दलों के अतिरिक्त खुद मुस्लिम समुदाय के नेता भी जिम्मेदार हैं, जिन्होंने अपनी कौम को ‘वोट बैंक’ से आगे बढ़ते देखना उचित नहीं समझा. हर बार कोई राजनीतिक पार्टी या नेता मुसलमानों को भाजपा के नाम पर डराकर उनका ‘वोट’ हासिल करती रही, और इस बीच तरक्की का सवाल अनछुआ ही रह गया.
आगे बढ़ना होगा ‘अल्पसंख्यक राजनीति’ को
उत्तर प्रदेश में प्रचंड बहुमत के बाद भाजपा सरकार की इस बात के लिए कड़ी आलोचना की गयी है कि उसने आदित्यनाथ योगी जैसे हार्ड लाइनर को देश के सबसे बड़े राज्य का चीफ मिनिस्टर बना दिया है. यदि आप ध्यान से देखें तो कुछ ऐसा ही होहल्ला नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के वक्त भी मचा था. मानो भारत में इससे पहले कभी कट्टरपंथी मानसिकता को देखा ही ना गया हो. इस बात पर भारी विवाद हो सकता है कि “कट्टरपंथ” की वास्तविक परिभाषा क्या है, क्योंकि इस देश में एक तरफ लोग औरंगजेब रोड का नाम ‘डॉ. कलाम’ के नाम से बदलने पर हंगामा करते हैं, जबकि वही लोग जनता द्वारा लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से चुने गए नेता को खारिज करने की प्रक्रिया में जुट जाते हैं. क्या वाकई इस तरह की बातों को तर्कसंगत कहा जा सकता है?
आजादी के बाद तमाम बुद्धिजीवी और विचारक सत्ता पर एक लंबे समय तक अपना नियंत्रण बनाए रहे. कुछ हलकों में इन्हें वामपंथी कहा गया, तो कुछ हलकों में इन्हें पश्चिमी विचारक, पर एक बात सत्य के काफी नजदीक है कि लुटियंस में बैठे लोग आम जनमानस से कट गए और बीते कुछ दशकों से अल्पसंख्यकों को डराकर राजनीति करने पर खूब काम किया गया.
Minority Politics in India, Muslim Women (Pic: intoday.in)
यूं तो जातिवाद पर भी खूब राजनीतिक रोटियां सेंकी गयी हैं, पर बात जब इन समूहों के जीवन स्तर में परिवर्तन की आती है तो नतीजा उत्साहवर्धक नहीं दिखता. ऐसी स्थिति से जनता निश्चित रूप से ऊब गयी है और अब जब भारतीय राजनीतिक पटल पर भाजपा अपनी चमक बिखेरती जा रही है तो अल्पसंख्यक राजनीति को भी आगे बढ़ना चाहिए. थोड़ी दृष्टि साफ़ करनी होगी और पुरानी धारणाओं से मुक्त होने का प्रयास भी करना होगा, खासकर तब जब लोकतंत्र की यही मंशा हो. कुछ यही बात ऑल इंडिया मुस्लिम रिज़र्वेशन फ्रंट (AIMRF) ने भी कहा है, जिसकी तारीफ़ की जानी चाहिए.
एआईएमआरएफ ने यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के शपथ लेने का बचाव करते हुए कहा है कि ‘नई सरकार की लगातार आलोचना करने के बजाए नेताओं और बाकी समुदाय को सभी की भलाई के लिए यूपी सरकार के साथ मिलकर काम करना चाहिए.
आगे इस संगठन ने अपने बयान में कहा कि बीजेपी यूपी के सभी समुदायों का दिल जीतने के बाद ही सत्ता में आई है.’ गौरतलब है कि एआईएमआरएफ मुस्लिमों के लिए आरक्षण की मांग कर रहा है. हालांकि, एआईएमआरएफ ने मुस्लिम लीडर्स को यह भी सुझाव दिया है कि वे नई सरकार की नीतियों पर नजर रखें. ठीक बात ही तो है, बजाय कि पुरानी राजनीतिक धारणाओं से बायस होकर अनावश्यक आलोचना करने के सकारात्मक निगरानी की जानी चाहिए और अगर सरकार की नीतियां कहीं भेदभाव पूर्ण नज़र आती हैं, तो कोर्ट और उससे बढ़कर हमारा भारतीय समाज है, जो सदा से सहिष्णुता का हिमायती रहा है, वह गलत होने पर विरोध करने में कसर नहीं छोड़ेगा.
राम मंदिर मुद्दा और सुप्रीम कोर्ट
भाजपा और अल्पसंख्यक समुदाय के बीच जो दरार सामने है, कहीं न कहीं इस दरार को राम मंदिर से जोड़ा जाता है. काफी लंबे खिंच चुके इस विवाद का खूब राजनीतिकरण किया गया है. पिछले दिनों इलाहाबाद हाई कोर्ट का इस सम्बन्ध में जो निर्णय आया था, वह एक तरह से ‘हेल्दी डिसीजन’ ही था. हालाँकि, उसे सुप्रीम कोर्ट में विभिन्न पक्षों ने चैलेन्ज कर दिया.
अब फिर सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर सार्थक टिपण्णी करते हुए कहा है कि “दोनों पक्ष आपस में मिलकर इस मामले को सुलझाएं. अगर जरूरत पड़ती है तो सुप्रीम कोर्ट के जज मध्यस्थता को तैयार हैं”.
Minority Politics in India, Supreme Court of India (Pic: Wikipedia)
सुप्रीम कोर्ट ने इस सम्बन्ध में ठीक ही तो कहा है कि राम मंदिर का मामला धर्म और आस्था से जुड़ा है. ऐसे मामलों में अगर समाज मिलकर कोई सार्थक हल निकालता है तो उससे न केवल बेहतर सन्देश जाता है, बल्कि समाज में समरसता भी घुलती है. इस बात में दो राय नहीं है कि 68 साल से लंबित इस मुद्दे के निपटे बिना कई बातें अनसुलझी ही रहेंगी तो अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों का राजनीतिक इस्तेमाल भी किया जाता रहेगा. बेहतर हो इस मामले को ‘अहम’ का प्रश्न न बनाते हुए आगे बढ़ा जाए और सुप्रीम कोर्ट की सलाह पर गंभीरता से गौर किया जाए. यही बेहतरीन हल और रास्ता है.
इस सम्बन्ध में और भी कई बातें कही जा सकती हैं, किन्तु सबसे बेहतर यही है कि दूध में चीनी की तरह घुलकर प्रत्येक समुदाय ‘मिठास’ उत्पन्न करने की कोशिश करे. समरस समाज ही देश को प्रगति की राह पर आगे ले जा सकता है. निश्चित रूप से देश के एक-एक नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी सरकार पर है और होनी भी चाहिए, किन्तु इसका अभिप्राय ‘लॉलीपॉप राजनीति’ और ‘तुष्टिकरण’ कतई नहीं है. देखना दिलचस्प होगा कि केंद्र सरकार के साथ यूपी की योगी सरकार ‘सबका साथ, सबका विकास’ के मन्त्र को किस ढंग से ज़मीन पर उतारती है, क्योंकि अंततः परिणाम मायने रखता है और परिणाम देने में ‘लॉलीपॉप पॉलिटिक्स’ पूरी तरह से असफल साबित हुई है, इस बात में दो राय नहीं.
Web Title: Minority Politics in India, Hindi Article
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