भारतीय लोकतंत्र में बड़े राजनीतिक तूफ़ान आये हैं और निश्चित रूप से तीन साल पहले आयी ‘मोदी लहर’ को भी उन तूफानों में गिना जा सकता है. 2011 में अन्ना आंदोलन से उत्पन्न ज्वार को मजबूत आरएसएस और भाजपा कैडर ने बखूबी अपने पक्ष में मोड़ा इस बात में दो राय नहीं और इसके लिए नरेंद्र मोदी की हिंदुत्ववादी एवं विकासवादी छवि ने बड़ा रोल प्ले किया था. 2014 के आम चुनाव में भारी बहुमत से भाजपा सरकार सत्तासीन हुई और तबसे आज तक विपक्ष लगातार कमजोर होता गया है. तबसे लगातार बड़े-बड़े नारे गढ़े गए और एक के बाद एक ऐसी योजनाएं पेश की गयीं, मानो देश अच्छे दिन की गंगा में डुबकी लगा रहा हो. एक-एक करके विभिन्न राज्यों का चुनाव भी भाजपा ने जीता, तो यह माना जा सकता है कि…
जनता में ‘अच्छे दिन’ की आस अभी बनी हुई है. पर बेहद दिलचस्प रहेगा यह आंकलन करना कि ‘तीन साल बाद देश कहाँ है?’ जनता में नरेंद्र मोदी की असाधारण साख का कारण क्या है और क्या यह साख 2019 में बनी रह सकती है? जाहिर तौर पर ऐसे आवश्यक प्रश्नों के बिना केंद्र सरकार के बीते 3 साल का समग्र आंकलन संभव न हो सकेगा…
वैश्विक राजनीति में भारत
दुनिया भर को प्रभावित करने वाले देशों के बीच के समीकरण काफी बदले हैं. कुछ बड़े देशों जिनमें अमेरिका, चीन और रूस शामिल हैं, उनके साथ भारत गणराज्य के सम्बन्ध तेजी से बदल रहे हैं. आप गौर करें तो पाएंगे कि कुछ साल पहले तक इन संबंधों में एक स्थिरता सी थी. नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद अमेरिकी प्रेजिडेंट बराक ओबामा से उनकी दोस्ती ने काफी सुर्खियां बटोरीं और तब ऐसा लगा था कि ‘अमेरिका और भारत’ वैश्विक राजनीति को प्रभावित करने के नियम तय करने की स्थिति में पहुँच सकते हैं. पर डोनॉल्ड ट्रम्प द्वारा अमेरिकी सत्ता सँभालने के बाद भारत अमेरिका सम्बन्ध स्थिर से हो गए हैं और वह गर्मजोशी गायब हो गयी है, जो ओबामा प्रशासन के समय मौजूद थी. वस्तुतः डोनॉल्ड ट्रम्प राजनीतिज्ञ तो हैं नहीं और हाल-फिलहाल वह किंकर्तव्यविमूढ़ वाली स्थिति में दिख रहे हैं. अमेरिकी रूख के विपरीत वह कभी रूस और चीन से नजदीकी बढ़ाने की सोच दिखलाते हैं तो कभी उनका बयान उत्तरी कोरिया के किम जोंग उन से मिलने का आता है. इसके अतिरिक्त, अमेरिका के सर्वाधिक करीब रहे दक्षिण कोरिया, जापान और ब्रिटेन को लेकर भी उनकी अजीबोगरीब बयानबाजी जब तब आ ही जाती है. भारत को लेकर उनका नजरिया अभी आउटसोर्सिंग पर ही आया है, जिसे भारत के लिए तात्कालिक रूप से नुकसानदेह माना जा रहा है.
बात जहाँ तक भारत अमेरिका के रक्षा संबंधों की है तो पुराने समझौते के तहत कुछ होवित्जर तोपें भारत जरूर आयी हैं, किन्तु लेमोआ, सिस्मोआ और बेका जैसी अड़चनें ट्रम्प-काल में कुछ नरम होंगी, यह बात माने जाने का कोई कारण नहीं दिखता. बताते चलें कि दोनों देशों के बीच बड़े सैन्य समझौते और तकनीक ट्रांसफर को लेकर मामला अभी बहुत आगे नहीं बढ़ा है.
मतलब अगले कई सालों तक दोनों देशों के बीच गर्मजोशी में कुछ ख़ास इजाफा नहीं होने वाला, बल्कि कुछ कमी ही आएगी. इसी कड़ी में जब हम रूस की बात करते हैं तो चीन के करीब तो वह पहले ही था और अब पाकिस्तान में उसका सैन्य अभ्यास भारत में बड़ी चिंता के रूप में देखा गया था. एनएसजी (न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप) में भारत की एंट्री पर चीन जिस तरह बार बार अड़ंगा लगा रहा है, उसमें रूस भारत की मदद उस तरह से नहीं कर रहा है, जिस तरह से उसे करना चाहिए. शायद इसीलिए कुडनकुलम परियोजना के कुछ हिस्से ठन्डे बस्ते में जा चुके हैं. देखा जाए तो भारत को लेकर रूस दो तरफ़ा मानसिकता में फंसा हुआ है. अपनी अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए तो उसे भारत की जरूरत है, किन्तु महत्वपूर्ण वैश्विक मामलों में वह भारत से दूरी दिखला रहा है. चीन और पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों पर हम देख ही रहे हैं कि कैसे तनाव बढ़ता जा रहा है.
Modi Government after 3 Years, America and China Effect (Pic: cnn)
चीन के सिल्क रुट पर हाल ही में भारत ने विरोध करते हुए 65 देशों के शिखर सम्मलेन का बॉयकॉट किया, तो पाकिस्तान के साथ कई छोटे बड़े मुद्दे बुरी तरह से उलझते जा रहे हैं. कुलभूषण जाधव के मामले में दोनों देश अंतर्राष्ट्रीय अदालत में दो दो हाथ कर रहे हैं. ऐसे में कहा जा सकता है कि विदेश नीति में कई मोर्चों पर मोदी सरकार आगे तो बढ़ रही है, किन्तु सटीक ढंग से बढ़त हासिल नहीं कर पा रही है. चीन के सिल्क रुट का बॉयकॉट करना अपनी जगह सही कदम है, किन्तु इसके काउंटर में हम विकल्प क्या दे रहे हैं यह भी देखने वाली बात होगी. आखिर, साउथ एशिया सहित तमाम अफ़्रीकी देशों को चीन इसमें तात्कालिक फायदा तो दिखा ही रहा है, बेशक कई देश उसके क़र्ज़ के जाल में क्यों न फंस जाएँ.
भारत को चीन के सिल्क रुट की काट तलाश करना ही होगा, क्योंकि चीन का यह प्रोजेक्ट बेहद विस्तृत और खुद उसकी अधिकतम क्षमता के मुताबिक है और भारत सिर्फ बॉयकॉट करके इसके प्रभाव को सीमित नहीं कर सकता. इसके साथ बदलते परिदृश्य में अमेरिका, रूस और पाकिस्तान के साथ भी भारत को अपने संबंधों का तेजी से आंकलन करते रहना होगा, अन्यथा हम अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं कर सकते हैं.
घरेलु मोर्चा: योजनाएं व समस्याएं
घरेलु मोर्चे में राजनीतिक लोकप्रियता की बात की जाए तो तमाम चुनावों में मिली जीत, खासकर यूपी की जीत केंद्र सरकार के नंबर बढ़ा देती है. इसके अतिरिक्त, डिजिटल इंडिया, जनधन योजना, स्टैंडअप इंडिया, उड़ान, सुरक्षा बीमा योजना, बेटी बचाओ, उज्जवला योजना, कौशल विकास योजना, जन-औषधि योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, वीआईपी कल्चर खत्म करना जैसी कई योजनाओं को सीधे आम आदमी तक पहुंचाने की कोशिश में एक हद तक सफलता अवश्य मिली है.
हालाँकि, नोटबंदी जैसे बड़े कदम उठाकर सरकार ने क्या लक्ष्य हासिल किये, यह अँधेरे में ही रहा पर दूसरी तमाम योजनाओं का लाभ लोगों को कमोबेश अवश्य मिला है. चूंकि, यह योजनाएं ऐसी हैं कि इनके क्रियान्वयन की लगातार निगरानी की आवश्यकता पड़ेगी अन्यथा भ्रष्टाचार पनपेगा और मामला वहीं से खराब होना शुरू जाएगा. इसके साथ यह भी सच है कि इन योजनाओं से जिस बड़े स्तर के बदलाव की बात कही गयी थी, वैसा अपेक्षित बदलाव देखने को नहीं मिला.
इन कल्याणकारी योजनाओं के अतिरिक्त अगर बात की जाए तो घरेलु मोर्चे पर कश्मीर में लगातार पत्थरबाजी और हिंसा ने राज्य और केंद्र सरकार की खासी किरकिरी कराई है.
Modi Government after 3 Years, Kashmir on Fire (Pic: dhanustankar)
यूं यह समस्या कोई आज की तो है नहीं, बावजूद इसके मोदी प्रशासन को इस समस्या के बढ़ने के लिए मीडिया के एक हलके में दोष दिया जा रहा है. इसके साथ पीएम ने ख़ुद कहा था कि 80 प्रतिशत गौरक्षक आपराधिक तत्व हैं फिर उन पर रोक लगाने के लिए सरकार द्वारा कुछ ख़ास नहीं किया जाना लोगों को खटक रहा है. इसी से जुड़ा प्रश्न लोग पूछ रहे हैं कि बीफ़ के एक्सपोर्ट पर सरकार रोक क्यों नहीं लगाती? साथ ही साथ नक्सलवाद की समस्या और सैनिकों / केंद्रीय बलों की लगातार जा रही जान पर भी सवाल पूछे जा रहे हैं कि सरकार की नीति आखिर क्या है इन महत्वपूर्ण मसलों पर.
जाहिर है, राह आसान नहीं है, किन्तु देश में विपक्ष की अत्यधिक खराब हालत ने मोदी सरकार को एक तरह से तमाम घरेलु मुद्दों पर वॉक ओवर दे रखा है और फिर चाहे महंगाई बढे, रेल का किराया बढे केंद्र सरकार से संसद और सड़क पर मजबूती से प्रश्न पूछने वालों का अकाल सा पड़ गया है. कांग्रेस सदन में शोर जरूर मचाती है, किन्तु सोनिया-राहुल के नेशनल हेराल्ड मामले को लेकर. ऐसे ही दूसरी तमाम पार्टियां पस्त दिख रही हैं, वह चाहे अरविन्द केजरीवाल की अगुवाई वाले ‘आप’ हो या कोई और!
आर्थिक बदलाव
केंद्र सरकार इस मुद्दे पर खुद को फोकस रखने को काफी प्रयासरत रही है. इसके लिए विदेशी निवेश लाने के प्रयास से लेकर, जीएसटी और मेक इन इंडिया जैसे कार्यक्रमों को गिनाया जा सकता है. पर नोटबंदी के बाद आर्थिक मजबूती के प्रयास थमे से लगते हैं. लोग पूछते फिर रहे हैं कि सरकार ने हर साल दो करोड़ नौकरियाँ देने का वादा किया था, इस वादे का क्या हुआ? या फिर सरकार विदेशों से काला धन लाने में क्यों नाकाम रही? या फिर सरकार ने बड़ी कंपनियों को बहुत सारी रियायतें दी हैं, फिर भी जनरल मोटर्स जैसी बड़ी कंपनियां भारत में अपनी सेल यूनिट को बंद क्यों कर रही हैं? नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश में चीन अपने सामान ठूँसता जा रहा है, तो ऐसे में भारत की क्या रणनीति है?
Modi Government after 3 Years, FDI Statistics (Pic: livemint)
ऐसे तमाम प्रश्न आधारहीन नहीं कहे जा सकते, क्योंकि चुनाव जीतने के समय जनता में काफी सारी उम्मीद जगाई गयी थी. हालाँकि, बृद्धि दर को लेकर सरकार अपनी पीठ ठोक सकती है कि नोटबंदी जैसे भयानक कदम के बावजूद इंडियन इकॉनमी पर कुछ खास असर नहीं पड़ा, पर असर पड़ना और आगे बढ़ना दो अलग चीजें हैं. वास्तविकता यही है कि सरकार बड़ी संख्या में नौकरियाँ पैदा करने में सफल नहीं हो पा रही है.
रियल स्टेट को गति देने के लिए सरकार ने रियल स्टेट बिल जरूर लाया और पहले आवास पर सब्सिडी भी दे रही है, किन्तु इतना प्रयास पर्याप्त साबित नहीं हो रहा है. मेक इन इंडिया का कार्यक्रम उस रफ़्तार से नहीं चल रहा है, जैसी उम्मीद की गयी थी तो आईटी सर्विसेज अमेरिकी संरक्षणवाद के साये में धीमा होने को मजबूर है.
देखा जाए तो सरकार के बीते तीन साल मिले जुले रहे हैं. राहत की बात यह जरूर हो सकती है कि बीते 3 साल में केंद्र सरकार में कोई भ्रष्टाचार का मुद्दा नहीं निकला है. नरेंद्र मोदी की साख के पीछे यह महत्वपूर्ण कारण माना जा सकता है. कई विभागों की इस बाबत लगाम भी कसी गयी है, किन्तु मुश्किल यह है कि जनता की उम्मीदें कई गुना अधिक जगाई गयी हैं.
जाहिर है, अगर 2019 का किला 2014 की ही भांति मजबूती से जीतना है तो सरकार को इस मोर्चे पर काफी कुछ करना होगा. खासकर, घरेलु और वाह्य सुरक्षा को लेकर एक ठोस नीति का क्रियान्वयन कहीं ज्यादा आवश्यक दिखता है, अन्यथा 2019 तक आते आते नरेंद्र मोदी की सरकार एंटी-इंकम्बेंसी का सामना करने लगेगी, इस बात में दो राय नहीं.
Modi Government after 3 Years, Hindi Article, Team Modi (Pic: singhstation)
Web Title: Modi Government after 3 Years, Hindi Article
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