सीधा सीधा मुद्दे की बात करता हूँ. बिना घुमाए, फिराए, बिना चासनी में शब्द लपेटे! पिछले दिनों दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज में उठा विवाद राजनीतिक लड़ाई की शक्ल लेता चुका है. शुरुआती मुद्दा कुछ खास नहीं था, बल्कि इस कॉलेज में लेफ्ट संगठनों ने जेएनयू के विवादित स्टूडेंट्स को स्पीकर के तौर पर आमंत्रित कर लिया था. कार्यक्रम का विरोध हुआ, कार्यक्रम रद्द हुआ, फिर लड़ाई-झगड़े हुए और यह मामला मीडिया में उछल गया. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद यानी एबीवीपी ने दिल्ली यूनिवर्सिटी में हार के बाद लेफ्ट संगठनों पर उकसाने का आरोप लगाया, ताकि विश्वविद्यालय में माहौल खराब हो. भाई हम तो कहते हैं कि जब आप जानते ही हो कि चंद लोग माहौल खराब करने के लिए ऐसे काम कर रहे हैं, तो फिर ऐसे में धैर्य खोने की क्या आवश्यकता है?
अब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है, कोई विपक्ष में तो है नहीं, तो उसे और उसके सहयोगियों को राजनीति भी उसी ढंग से करने की आदत विकसित करनी चाहिए. वह कहते हैं ना ‘हाथी चले बाजार, कुत्ते भौंके हजार’. तो जब आप ताकत में हो तो फिर हर भौंकने वाले कुत्ते के पीछे क्यों दौड़ते हो? अगर सच में आपको लगता है कि मामला बिगड़ रहा है तो अंदर से आप मजबूत रहो, अकादमिक रूप से पकड़ बनाओ. और फिर कानून के ‘लम्बे हाथ’ किसलिए हैं?
वामपंथ वर्सेस दक्षिणपंथ
Nationalism and Freedom of Expression, ABVP, AISA, Students Organization (Pic: newsgram.com)
बात जहाँ तक वामपंथ की है तो निश्चित रुप से यह इतिहास के सबसे बुरे दौर में है और मिटने की कगार पर खड़ा है. उसको लेकर युवाओं में कोई खास आकर्षण है नहीं और ना ही किसी राज्य में उसका ख़ास जनाधार ही बचा है. ले देकर केरल में उसकी सरकार है, किन्तु इसके आधार पर यह दावा नहीं ठोका जा सकता कि वामपंथ बचा ही रहेगा. हाँ, कुछ लोग जरूर बचे हुए हैं, जो बुझती लौ के समान व्यवहार करते हैं, भड़काऊ भाषण बाजी कर रहे हैं और कथित रूप से लोगों को बहका भी रहे हैं. यह तो रही एक बात किन्तु दक्षिणपंथियों द्वारा इन्हें देशद्रोही मान कर इन पर हमला करने की बजाय इन्हें कुछ देर के लिए ‘पागल’ क्यों नहीं समझ लिया जाता है? ऐसे में फायदा यह होगा कि जो दो-चार लोग भारत विरोधी नारे लगा रहे हैं, उन्हें कानून के माध्यम से दण्डित किया जा सकेगा. अगर अदालत आदेश देगी तो शायद पागलखाना भी भेजा जा सके. ऐसे में बात-बेबात राष्ट्रवाद का झंडा उठाकर दौड़ने वालों को कुछ राहत तो मिल जाएगी.
आखिर हर मामले में टांग घुसेड़ कर और मामले को पेचीदा बना दिया जाना कहाँ से उचित कहा जायेगा? राष्ट्रवाद के नाम पर उगे हुए राजनीतिक फल से सत्ता का स्वाद बेशक मिल जाए, किन्तु लोगों में आपसी विद्वेष बढ़ जाता है.
भाजपा अब केंद्र सरकार में है और तमाम स्टेट्स में इस का शासन चल रहा है. अब इस मुद्दे को जरा ढीला छोड़कर दूसरे मुद्दों जैसे रोजी-रोजगार पर कार्य किया जाना चाहिए. इस बीच जो भी राष्ट्रविरोधी कार्य हो, उसे न्यायालय के हवाले किया जाना चाहिए और अपनी पकड़ मजबूत बनाना चाहिए. शांतिपूर्ण रास्ते पर चलकर हम समाज को दिशा दिखला सकते हैं. कोई पागल भी है तो उसे गोली नहीं मारी जा सकती है. हर पागल को सड़क पर उतर कर सबक सिखाने की बात करने को इस देश की जनता कतई उचित नहीं मानेगी. दक्षिणपंथ इस समय अपनी मजबूत अवस्था में है, इसलिए उसे और उसके आनुषांगिक संगठनों को बेहद जवाबदेही के साथ आगे बढ़ना होगा.
राजनीतिक रोटियां नहीं सेंकी जानी चाहिए
Nationalism and Freedom of Expression, Kiran Rijiju (Pic: IndianExpress)
इस पूरे मामले पर जो सबसे ख़राब बात सामने आयी है, वह है राजनीतिक रोटियां सेंकने की. कॉलेज स्टूडेंट्स की बात में बड़े-बड़े राजनेता कूद पड़े हैं. केंद्रीय गृहमंत्री किरन रिजिजू ने कहा कि ‘लड़की, यानी गुरमेहर’ के दिमाग को कुछ लोग प्रदूषित कर रहे हैं, तो अरविन्द केजरीवाल सहित कांग्रेस के कई दिग्गज अपनी राजनीति चमकाने मैदान में आ गए. इतने तक भी गनीमत थी, किन्तु क्रिकेट खिलाड़ी से लेकर ओलंपिक मैडल जीत चुके पहलवान और फ़िल्मी दुनिया से जुड़े लोग इस राजनीति में लिपट गए और एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया. समझना मुश्किल नहीं है कि यह मामला इतना पेचीदा ही इसलिए बना, क्योंकि इसमें राजनीतिक दुनिया से जुड़े लोग अत्यधिक सक्रीय नज़र आये.
इन सभी को बेहतर जवाब देते हुए गुरमेहर के दादा ने गौर करने लायक बात कही. शहीद के पिता ने साफ़ कहा कि गुरमेहर समझदार है और कैम्पस की राजनीति में नेताओं को टांग नहीं फंसानी चाहिए. इन सभी के बीच पुलिस प्रशासन की भूमिका को भी क्लीन चिट नहीं दी जा सकती है.
अगर कहीं बवाल होने ही वाला है, दो गुट टकराने ही वाले हैं तो इस मामले पर पहले से सावधानी क्यों नहीं बरती जानी चाहिए. हालाँकि, इस पूरे घटनाक्रम के बाद हिंसा, मारपीट और तोड़फोड़ के आरोप झेल रही एबीवीपी ने अपने दो सदस्यों पर कार्रवाई करते हुए प्राथमिक सदस्यता से निलंबित कर दिया है. आरोप है कि दोनों ने छात्र संगठन आईसा के मेंबर्स को बुरी तरह मारा-पीटा. गौरतलब है कि दोनों को दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् की अपने मेंबर्स के लिए यह अपील भी गौर करने लायक है कि वे किसी भी तरह की हिंसा या मारपीट से दूर रहें, भले ही कोई उन्हें कितना ही उकसाए. साथ ही चेतावनी भी दी गई है कि हिंसा से जुड़ा कोई भी विडियो या अन्य सबूत सामने आने पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी. निश्चित रूप से अगर इतनी सतर्कता बरती जाती है तो फिर किसी भी राजनेता को कैंपस पॉलिटिक्स में हस्तक्षेप करने का अवसर नहीं मिलेगा.
Nationalism and Freedom of Expression, Arvind Kejriwal (Pic: indiaopines.com)
अभिव्यक्ति की आज़ादी एवं तानाशाही विचार
देखा जाए तो विचारों की टकराहट हमेशा से होती रही है, किन्तु भारतीय जन मानस को समझा जाना कहीं ज्यादा आवश्यक है. एक चोर भी चोरी करते हुए जब पकड़ा जाता है और लोग उसे पीटने लगते हैं तो उसी भीड़ में से लोग उसे बचाने भी निकल आते हैं. कई बार ऐसा भी होता है कि उस चोर या बलात्कारी को जनता पीट पीटकर मार डालती है. ऐसे में चहुंओर इसकी आलोचना होती है और उसे ‘भीड़तंत्र’ का खिताब दिया जाता है. तब कानून व्यवस्था फेल हुई मानी जाती है और फिर राष्ट्र अराजकता की ओर बढ़ने लगता है. ऐसे में कानून के माध्यम से न्यायिक कार्रवाई किया जाना ही उत्तम विकल्प बचता है.
यह तो बुरी से बुरी कंडीशन की बात है और फिर अगर किसी विषय पर कोई विचार व्यक्त करता है तो उसकी आज़ादी पर ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर हमला किया जाना कतई न्यायोचित नहीं है.
बेहद दुःख और दुर्भाग्य की स्थिति होगी अगर भारतीय लोकतंत्र से ‘विपक्ष’ ही समाप्त हो जाए. विरोधियों को सम्मान और स्थान देना ही लोकतंत्र का मूल है. जिस दिन यह समाप्त हुआ, वहीं से तानाशाही जन्म लेती है. फिर राष्ट्र का मतलब एक व्यक्ति या एक संगठन भर हो जाता है, बाकी लोग बंधुआ मजदूर!
Nationalism and Freedom of Expression, Virender Sehwag (Pic: sportzwiki.com)
ऐसी स्थिति में कानून से परे जाकर किसी को भी ‘सम्पूर्ण राष्ट्रवाद‘ का ठेका लेने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. राष्ट्र की रक्षा करने के लिए ही कानून बना है, बाकी लोगों को अपना काम करना चाहिए. खासकर सत्ताधारियों और उनके समर्थकों को बात-बात पर राष्ट्रवाद का झंडा उठाने से परहेज करना चाहिए. कई बार लोकतंत्र में ऐसा अवसर आता है जब राजनीति में कोई सशक्त विपक्ष नहीं बन पाता है. ऐसे में समाज के बुद्धिजीवियों को वास्तविक ‘विपक्ष’ की भूमिका अदा करनी चाहिए. जनता तो खैर ‘नज़र’ रखती ही है. मूल बात यह कि किसी भी हाल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में नहीं पड़नी चाहिए. हाँ, अगर कोई देश तोड़ने की बात करे, राष्ट्रविरोधी कार्य करे तो शांतिपूर्वक ढंग से कोई संगठन अपनी आवाज उठा सकता है. अगर कानून और प्रशासन टालमटोल कर रहा है तो उस पर जन दबाव भी बनाया जा सकता है, किन्तु राष्ट्रवाद के नाम पर झंडा उठाकर लोगों की आवाज़ को बाधित करने को किसी भी कीमत पर जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है और इससे हर एक को अनिवार्य रूप से परहेज करना होगा, अन्यथा हम अपने भारत की महानता को खो देंगे.
Web Title: Nationalism and Freedom of Expression, Hindi Article
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