तकनीक का आविष्कार सामान्यतः लोगों की जीवनशैली को बेहतर करने के लिए किया जाता है, किन्तु कौन नहीं जानता है कि कई बार टेक्नोलॉजी बुरे लोगों, अपराधियों, यहाँ तक कि आतंकवादियों के हाथों का खिलौना बन जाती है. सीधा प्रश्न उठता है कि इसके लिए तकनीक का आविष्कार और प्रसार करने वाली कंपनियां कितनी जवाबदेह हैं? इन विषयों पर बड़ी तकनीक कंपनियां गोल मोल जवाब देती रही हैं और सच पूछा जाए तो व्यापार बढ़ाने के प्रयासों के बीच बड़ी कंपनियां इस बात पर बेहद कम ध्यान देती हैं कि उनके प्रोडक्ट्स और सर्विसेज को बुरे मकसद के लिए इस्तेमाल होने से कैसे बचाया जा सकता है.
फ़ेसबुक संस्थापक का हालिया ‘पत्र’
गौरतलब है कि एफबी एक ऐसा सॉफ़्टवेयर बनाने की कोशिश कर रहा है जो फेसबुक पर प्रकाशित होनेवाली सामग्रियों की जाँच कर सकेगा. ऐसा हम नहीं कह रहे हैं, बल्कि खुद फ़ेसबुक संस्थापक मार्क ज़करबर्ग ने एक ख़ुले पत्र में यह दावा किया है. मतलब फेसबुक द्वारा ऐसे प्रोग्राम बनाए जा रहे हैं, जो पोस्ट्स में आतंकवाद, हिंसा इत्यादि को पहचान सकेंगे. सच कहा जाए तो ‘चरमपंथ’ के प्रचार और प्रसार का एक बड़ा माध्यम बन चुका है फेसबुक! ऐसे में अपने ऊपर लग रहे आरोपों से मार्क ज़करबर्ग का परेशान होना स्वाभाविक ही है. बीते दिनों, 5500 पन्नों के पत्र में फ़ेसबुक के भविष्य पर चर्चा करते हुए ज़करबर्ग ने बताया कि अभी फेसबुक पर रोज़ाना प्रकाशित होनेवाले अरबों पोस्ट्स और संदेशों की जाँच करना नामुमकिन है. आगे उन्होंने कहा कि “अब एक ऐसी व्यवस्था (प्रोग्राम) बनाने की कोशिश हो रही है जो टेक्स्ट पढ़ सकेगा और तस्वीरों व वीडियो को न केवल देख सकेगा, बल्कि समझ भी सकेगा कि कहीं कुछ ख़तरनाक तो नहीं होने जा रहा.”
जाहिर तौर पर यह योजना बेहद क्रांतिकारी हो सकती है. हालाँकि फ़ेसबुक का कहना है कि अभी यह योजना शुरुआती दौर में ही है. सच कहा जाए तो यह बेहद जटिल विषय है और फेसबुक अगर वाकई इस तरह के प्रयास करता है तो उसके प्रयास की सराहना करनी ही चाहिए.
कम से कम इस बड़ी कंपनी को अहसास तो हुआ कि उसके प्लेटफॉर्म को चरमपंथी और आतंकी गलत मकसद के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. काफी लम्बे समय से, ऐसे ‘आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस सिस्टम’ की जरूरत महसूस हो रही थी, जो चरमपंथ से जुड़ी ख़बरों और चरमपंथ के प्रचार के बीच अंतर को पहचान सके. चूंकि, फेसबुक दुनिया की तमाम भाषाओं में अपनी सर्विस दे रहा है, ऐसे में यह बेहद जटिल हो जाता है कि वह लोगों कि तमाम पोस्ट्स पर सीधी नज़र रख सके. पर हम यथास्थिति में नहीं रह सकते. खुद फ़ेसबुक की कई बार आलोचना हुई है कि वो अपनी वेबसाइट पर सिर क़लम करनेवाले वीडियो को बिना किसी चेतावनी के दिखाने दे रहा है. मुश्किल यह है कि टेक्नोलॉजी की रफ़्तार इतनी ज्यादा है कि उसमें अच्छी/ बुरी सभी चीजें एक धार में बही जा रही हैं. खैर, इन सबके बावजूद फेसबुक का ध्यान अगर ‘टेक्नोलॉजी और टेररिज्म’ के कनेक्शन की तरफ गया है और उसकी टीम खतरों से निपटने के प्रति सचेत हो रही है तो इन प्रयासों की तारीफ़ अवश्य ही की जानी चाहिए.
‘गूगल’ पर भी हैं आरोप!
Technology and Terrorism, Hindi Article, Sunder Pichai (Pic: officechai.com)
गूगल इस समय सूचना तकनीक के क्षेत्र को प्रभावित करने वाली सबसे बड़ी कंपनी है. इस समय ही क्यों, दशक भर से ज्यादा समय से इन्टरनेट की दुनिया पर गूगल का एकछत्र राज्य रहा है, जो वर्तमान में भी बरकरार है. नई-नई टेक्नोलॉजी विकसित करने और लोगों को इंटरैक्टिव तरीके से जोड़ने में गूगल का जवाब नहीं है. पर दुर्भाग्य से आतंकवादी मानसिकता के लोग इस कंपनी का भी दुरूपयोग करने में सफल रहे हैं. गूगल के तमाम प्रोडक्ट्स, जिनमें गूगल सर्च, यूट्यूब इत्यादि शामिल रहे हैं, के माध्यम से आतंकी अपने चरमपंथी विचार का प्रचार-प्रसार करते रहे हैं.
यहाँ तक कि कड़ी शिनाख्त से गुजरने वाला गूगल एडसेंस प्रोग्राम भी इसकी चपेट में आ चुका है. गौरतलब है कि पिछले दिनों इंडोनेशिया के जकार्ता में 2009 में हुए बड़े आत्मघाती हमले के जिम्मेदार संगठन की वेबसाइट द्वारा गूगल ऐडसेंस से करोड़ों की कमाई की बात सामने आयी थी.
खबरों के अनुसार, यह संगठन अलकायदा के दक्षिण पूर्व एशिया में सक्रीय आतंकी संगठन जेमाह इस्लामिया का प्रमुख सदस्य माना जाता है. यह वाक़या बेहद आश्चर्यजनक माना गया, क्योंकि गूगल ऐडसेंस के बारे में जानने समझने वाले यह बात बखूबी जानते हैं कि ऐडसेंस का अकाउंट बेहद मुश्किल से अप्रूव होता है तो उसमें ऐडसेंस की पॉलिसी के खिलाफ बात मिलने पर ऐडसेंस अकाउंट तत्काल ही ब्लॉक भी कर दिया जाता है. ऐसे में आखिर, गूगल जैसी बड़ी कंपनी से चूक कैसे हो गयी? या फिर, यह कार्य ज्यादा रेवेन्यू (व्यूज) आने के कारण नजरअंदाज कर दिया गया?
Technology and Terrorism, Hindi Article, Twitter on Target (Pic: Unknown Source)
आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस की ‘अहमियत’
इस बात में दो राय नहीं है कि बदलती दुनिया में तकनीक का प्रवाह इतना तीव्र है कि मैन्युअल ढंग से आपत्तिजनक सामग्री पर रोक लगाना एक तरह से नामुमकिन ही है. ऐसे में ‘कृत्रिम बुद्धिमता’ यानी आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस की अहमियत स्वतः ही बढ़ जाती है. पिछले साल गूगल की ‘एनुअल डेवलपर कॉन्फ्रेन्स’ में गूगल के सीईओ सुन्दर पिचाई ने इस बारे में घोषणा की थी. आज गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियां हॉलीवुड की सुपरहिट फिल्म सीरीज ‘आयरनमैन’ जैसी टेक्नोलॉजी विकसित करने पर जोर दे रही हैं, जिसके मूल में ‘कृत्रिम बुद्धिमता’ ही है. गूगल के सुन्दर पिचाई ने जहाँ ‘एनुअल डेवलपर कॉन्फ्रेंस’ में आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस पर ज़ोर दिया, वहीं फेसबुक के मार्क ज़करबर्ग तो खुलकर आयरमैन के ‘जार्विस’ को डेवलप करने की मंशा जाहिर कर चुके हैं. ऐसे में, थोड़ी बहुत ही सही उम्मीद तो जगती ही है कि आतंक के बढ़ते दुश्चक्रों को रोकने पर भी अनिवार्य रूप से शोध किया जाएगा. सच कहा जाए तो ‘कमाई’ और ‘व्यूअर्स’ को खोने का डर छोड़कर तमाम इंटरनेट कंपनियों को इस तरह के प्रयासों को शुरू करना चाहिए, जिससे आतंक पर लगाम लगाया जा सके.
आखिर, ऐसे ‘एल्गोरिदम’ क्यों नहीं विकसित किये जाने चाहिए, जो यह डिसीजन कर सके कि ‘अमुक कंटेंट, अमुक तस्वीर, अमुक वीडियो या ऑडियो’ आतंक से सम्बंधित हो सकता है और अगर उस आईपी से या फिर उस लोकेशन से बार-बार आपत्तिजनक कंटेंट आता है तो फिर उसकी मैनुअल चेकिंग की जा सकती है.
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ऐसे में कंटेंट-चेकिंग को लेकर दोहरेपन से भी बचा जा सकेगा तो ‘आतंकी’ खतरे से मुकाबला करने में बेहतर मदद मिल सकेगी. न केवल फेसबुक और गूगल, बल्कि ट्विटर जैसी दूसरी कई सोशल मीडिया कंपनियों पर भी यह आरोप लगा है कि उनके माध्यम से आतंकवादी न केवल नयी रिक्रूटमेंट कर रहे हैं, बल्कि संदेशों का आदान-प्रदान और दूसरी तमाम आतंकी योजनाओं का कार्यान्वयन भी सरलता से कर पा रहे हैं. आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस के क्रमिक विकास से शायद इन कंपनियों को सर्वाधिक सहूलियत मिलने वाली है, जिससे करोड़ों / अरबों यूजर्स में यह ढूंढना मुमकिन हो सकेगा कि कौन ‘आतंकी’ नहीं है और कौन ‘आतंकी’ है? इस बात में दो राय नहीं है कि तमाम प्रोडक्ट्स के सहारे गूगल, फेसबुक, ट्विटर जैसी बड़ी कंपनियां मार्किट में अपनी बादशाहत को कायम रखने की पुरजोर कोशिश में लगी रहती हैं. पर सवाल इंटरनेट कंपनियों की बादशाहत से आगे का है, जिसने आम-ओ-खास को कड़ी चिंता में डाल रखा है. सवाल यही है कि प्रत्यक्ष/ अप्रत्यक्ष अगर इन कंपनियों पर आतंकियों की मदद करने के आरोप लगे हैं, तो यह बेहद गंभीर आरोप हैं. गूगल, फेसबुक जैसी उपयोगी कंपनियां, ऑनलाइन वर्ल्ड में गिनी चुनी ही हैं और जिस प्रकार उनकी तमाम सर्विसेज पर करोड़ों लोगों की निर्भरता है, उससे स्थिति की गम्भीरता बेहतर तरीके से समझी जा सकती है.
आने वाले समय में टेक्नोलॉजी पर हमारी आपकी निर्भरता बढ़ने ही वाली है, पर क्या वाकई सुरक्षित ढंग से तकनीक को हम इस्तेमाल कर सकेंगे? इस प्रश्न के साये में, गूगल समेत अन्य कंपनियों को इस दिशा में अवश्य सोचना चाहिए, जिससे लोगों की ज़िन्दगी में दखल दिए बिना ‘आतंकियों’ पर लगाम लगाई जा सके. इसमें आतंकियों के खिलाफ सम्बंधित सरकारों को सूचित किया जाना, पब्लिक को कदम-कदम पर जागरूक करने की जिम्मेदारी उठाये जा सकने वाले कदम भी शामिल किये जा सकते हैं. जाहिर तौर यह सभी कार्य वगैर ‘आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस’ के स्तरीय विकास के ‘दिवास्वप्न’ ही हैं. इसके साथ यह बात भी उतनी ही सच है कि तकनीक के विकास में झंडे गाड़ने वालीं फेसबुक और गूगल जैसी कंपनियों को कमाई से थोड़ा अलग हटकर आतंकवाद नियंत्रित करने में अपनी भूमिका सुनिश्चित करने की ओर भी ध्यान देना ही होगा, अन्यथा मामला सरकारी ‘टालमटोल’ वाला ही बनकर रह जायेगा.
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