जब से मानव ने बोलना और लिखना सीखा है तभी से ही वह अपने विचारों को एक दूसरे के साथ साझा करता आया है. इंटरनेट के इस युग में अगर आपके दिमाग में कोई आईडिया आता है तो आप तुरंत उसे टेक्नोलॉजी के विभिन्न माध्यम जैसे एसएमएस, सोशल मीडिया, ईमेल, फोन और वीडियो कॉल के जरिये अपने दोस्तों और करीबियों से तुरंत शेयर कर लेते हैं.
फिर चाहे वह सात समंदर पार अमेरिका में बैठा हो या फिर आपके बगल में!
पर कभी आपने सोचा है कि प्राचीन काल में जब न तो इंटरनेट था और न ही बिजली… तो मानव अपने संदेशों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक कैसे पहुंचाते थे?
जाहिर सी बात है उस जमाने में भी इंसान आपस में संवाद तो करता ही होगा!
आजकल की तरह तब भले ही एक जगह से दूसरी जगह अपना संदेश पहुंचाना फास्ट नहीं था, लेकिन फिर भी लोगों ने अपनी जरूरत के हिसाब से संचार के अलग-अलग माध्यमों का आविष्कार कर लिया था. आज उस जमाने में लोग कैसे बिना इंटरनेट के एक दूसरे से चैटिंग करते थे इस बारे में विस्तारपूर्वक जानेंगे–
कबूतर बनता था ‘डाकिया’
इस बारे में कमोबेश हम सबको मालूम ही होगा!
प्राचीन काल में जब इंटरनेट इजाद नहीं हुआ था, तब लोग कबूतर को संदेशवाहक के रूप में इस्तेमाल करते थे. इसके लिए कबूतरों को विशेष प्रकार की ट्रेनिंग दी जाती थी. कबूतरों की खासियत ये है कि वह कभी भी अपने घर का रास्ता नहीं भूलते. उन्हें कहीं भी छोड़ दो वह अपने घर पहुंच ही जाते हैं. अपने संदेश को एक छोटी सी चिठ्ठी में लिखकर लोग एक नली में रख कबूतर के पैर में बांध देते थे. फिर उसे जरूरी निर्देश देकर रवाना कर दिया जाता था.
कबूतरों के जरिये चिठ्ठी भेजने की इस प्रक्रिया को कबूतर पोस्ट कहते हैं. प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध में कबूतरों ने एक संदेश को दूसरी जगह तक पहुंचाने में बहुत ही अहम रोल निभाया था. यही नहीं उनके द्वारा भेजे गए संदेशों के कारण ही दुश्मन सेना के बमों से सैनिकों की एक टुकड़ी को मरने से बचाया जा सका.
उनके इस सराहनीय कार्य के लिए दूसरे विश्व युद्ध में 32 कबूतरों को अंग्रेजों ने ‘डिकइन मेडल’ से सम्मानित किया था. ये किसी भी जानवर द्वार अर्जित किया गया अब तक का सबसे बड़ा सम्मान है.
Ancient People Used Pigeon As Messenger (Pic: wallpaperist)
दौड़ के संदेश पहुंचाने वाले ‘रनर’
प्राचीन काल में राजा अपने मैसेज को एक राज्य से दूसरे राज्य तक पहुंचाने के लिए धावकों यानी रनर की भर्ती करते थे. ये रनर दौड़ कर एक स्थान से दूसरे स्थान तक जल्द से जल्द संदेश पहुंचाने के काम आते थे. इस तरह के रनर का इस्तेमाल पहली बार ‘बैटल ऑफ मैराथन‘ में ग्रीस ने किया था. ग्रीस ने इस युद्ध में परसिया को हरा दिया था. उनके जीत की इस खबर को परसिया तक पहुंचाने के लिए उन्होंने एक धावक का इस्तेमाल किया था. ये सब इसलिए किया गया था ताकि, परसिया की दूसरी सैन्य टुकड़ी फिर से ग्रीस पर आक्रमण न करे.
इस काम को पूरा किया था ‘फीडिपिड्स’ नाम के धावक ने जिसे पहला मैराथन रनर भी कहा जाता है.
Pheidippides Was The First Runner Messenger (Pic: runnersworld)
“. . .” का मतलब था मदद की दरकार!
पुराने जमाने में डॉट्स और डैश का मतलब होता था कोडेड संदेश!
इसका इस्तेमाल पायलट और नाविकों द्वारा किया जाता था. जिसमें तीन डॉट्स “… — …” का मतलब (SOS) होता था यानी हमारी जान बचाओ. इसे मुसीबत की घड़ी में भेजा जाता था मगर साल 1830 में सैमुएल मोर्स ने इसमें कुछ बदलाव किए.
अब इन संदेशों को देखकर और सुनकर भी समझा जा सकता था. इसे मोर्स कोड कहा जाता था. इसमें लिखे गए संदेश को लाइट में भी पढ़ा जा सकता था. सैमुएल मोर्स ने पहली बार इसका इस्तेमाल अपने इलेक्ट्रॉनिक टेलीग्रॉफ सिस्टम में किया था. आजकल मोर्स कोड का इस्तेमाल एयर ट्रैफिक कंट्रोलर्स, पायलेट्स और पानी के जहाजों के नेविगेशन अधिकारियों द्वारा खूब किया जाता है.
Morse Code Was Widely Used By Pilots & Navy In The Case Of Danger (Pic: Museum…)
मैसेज स्टिक: आकृतियों के जरिए संदेश भेजना
हजारों साल पहले ऑस्ट्रेलिया के आदिवासियों के बीच करीब 200 भाषाएं बोली जाती थी. ऐसे में एक कबीले से दूसरे कबीले तक अपना संदेश पहुंचाने में काफी दिक्कत होती थी. इसलिए उन्होंने मैसेज स्टिक का आविष्कार किया. लकड़ी की इस छोटी सी छड़ी में कुछ विशेष प्रकार की छवियां अंकित की जाती थीं, जिनका मतलब सभी कबीले वाले समझते थे. इस तरह से वह एक दूसरे से बिना बोले अपने विचार साझा करते थे.
विभिन्न प्रकार की आकृतियों और संकेतों से लैस इन मैसेज स्टिक्स के साथ संदेशवाहक एक दूसरे के कबीले के सरदारों का संदेशों का आदान-प्रदान करते थे. आजकल हम सोशल मीडिया के अलग-अलग प्लेटफॉर्म में जिन इमोजी का इस्तेमाल अपने मैसेज में करते हैं, वह इसी का ही उन्नत स्वरूप माना जा सकता है.
Ancient Australian Tribes Used Message Stick For Spreading A Message (Pic: qm)
यूडलिंग
बॉलीवुड स्टार शम्मी कपूर का सुपरहिट गाना ‘याहू चाहे कोई मुझे जंगली कहे’ तो आपने सुना ही होगा. इसमें शुरूआत में जो याहू है उसका इस्तेमाल प्राचीन जमाने में अपने संदेश को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाने में किया जाता था.
याहू यूडलिंग से लिया गया है और भी बहुत से हिंदी गानों में भी आपने यूडलिंग का इस्तेमाल होते देखा होगा… खासकर किशोर कुमार के गानों में. यूडलिंग का यूज प्राचीन काल में लोग पहाड़ी इलाके में अपने करीबियों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए करते थे.
संचार के इस दिलचस्प माध्यम का इस्तेमाल पहली बार स्विस अल्पाइन की पहाड़ियों के चरवाहों ने किया था. वह यूडलिंग के सहारे अपने दूसरे दोस्त से संवाद स्थापित करते थे. आजकल इसका इस्तेमाल पूरी दुनिया के म्यूजिशियन करने लगे हैं.
बाल्टिक देशों से लेकर अफ्रीका तक में यूडलिंग स्टाइल में गाए हुए गाने आपका मनोरंजन करने के लिए उपलब्ध हैं.
In Ancient Switzerland People Use To Do Yodel For Communication (Representative Pic: timetravelturtle)
मानव ने अपने जीवन के विकास के साथ ही अपने संचार के साधनों का भी विकास किया है. आज के वक्त में इंटरनेट संवाद स्थापित करने का सबसे उन्नत माध्यम है. लेकिन ये अंत नहीं है, भविष्य में भी इससे उम्दा संचार का साधन इंसान जरूर खोज निकालेंगे.
चलते चलते आपसे कहना चाहेंगे कि ऊपर दिए गए प्राचीन काल के अद्भुत संचार के माध्यमों में से आपको कौन सा सबसे ज्यादा पसंद आया, कमेंट कर हमारे साथ शेयर जरूर करें.
Web Title: Amazing Ancient Ways Of Sending Messages, Hindi Article