आज हम जिस आजाद मुल्क की आबोहवा में चैन की सांस ले रहे हैं, उसकी मिट्टी को देश के अनन्य क्रांतिकारियों ने अपने खून से सींचा है.
जब भी भारत की आज़ादी की बात होती है, तो सभी की जुबान पर एक ही तारीख़ आती है, 15 अगस्त 1947. लेकिन इससे पहले भी कई मौक आए जब अंग्रेजों से भारत के हिस्सों को छीना गया.
ऐसा ही एक मौका आया 1943 में, जब अंडमान-निकोबार द्वीप समूह पर शासित ब्रिटिशों को जापानियों ने खदेड़ा और फिर इस द्वीप को नेताजी सुभाषचंद्र बोस के सुपुर्द कर दिया.
बात 30 दिसंबर 1943 की है, जब स्वतंत्रता सेनानी और आजाद हिंद फौज के संस्थापक नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने सबसे पहले ‘स्वतंत्र भारत’ के अहम हिस्से अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में भारत का राष्ट्र ध्वज यानी 'तिरंगा' फहराया था.
आइए, इस लेख के माध्यम से जानते हैं कि कैसे अंडमान निकोबार द्वीप समूह अंग्रेजों के चंगुल से आज़ाद हुआ और उस पर भारतीय तिरंगा फहराया गया –
मराठा साम्राज्य ने इसे भारत में जोड़ा
अंडमान निकोबार द्वीप समूह बंगाल की खाड़ी के दक्षिण में हिन्द महासागर में लगभग 36 द्वीप छोटे-बड़े द्वीपों का समूह है.
भले ही आज यहां जीवन व्यापन की शैली बदल गई है, लेकिन ये आज भी जारवा, आंगे, सेंटलिस और सेम्पियन जैसी आदिवासियों प्रजाति का मूल निवासी माना जाता है. यह वही आदिवासी हैं, जो सदियों पहले अफ्रीका से अंडमान पहुंचे थे.
बहरहाल, अंडमान का इतिहास काफ़ी पुराना है.
यहां 8वीं शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी तक चोल वंश के शासकों का एकछत्र राज था. यहां वह अपने नौसैनिकों को युद्ध के लिए प्रशिक्षण देते थे. तब चोल शासन भारत के तटवर्ती इलाकों से लेकर इंडोनेशिया तक फैला था और अंडमान इसी का हिस्सा रहा.
समय बीतता गया और 16वीं शताब्दी के आसपास इस द्वीप पर पुर्तगालियों की नज़र पड़ी और इसे कॉकस द्वीप का नाम दे दिया गया. इस समय तक भारत में मराठा शक्तिशाली साम्राज्य हुआ करता था.
फिर क्या 17वीं शताब्दी में मराठा यहां पहुंच गए और उस समय उनके जहाजों के लिए एक अस्थायी समुद्री बेस बना. मराठा नौसेना के एडमिरल कन्होजी ने इन द्वीपों में अपनी नौसेना को बसाया और अंडमान निकोबार के सभी द्वीपों को भारत में जोड़ दिया.
तभी से लेकर आज तक अंडमान भारत का हिस्सा है.
1789 में अंग्रेज अंडमान पहुंचे
वैसे तो भारत में अंग्रेज व्यापार करने के बहाने आए थे, लेकिन वर्ष 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना के साथ ही इनका मकसद बदलता गया.
और अगले कुछ सालों में इन्होंने लगभग पूरे भारत पर कब्जा कर लिया.
वहीं, 1755 में विदेशियों में सबसे पहले डेनिश लोग अंडमान निकोबार पहुंचेे और 1756 में उन्होंने यहां अपनी कॉलोनी बनाई.
जिसे पहले न्यू डेनमार्क नाम दिया गया.
समय बीता और अंग्रेजों ने भी यहां अपनी दस्तक दे दी. अंग्रेज पहली बार साल 1789 में अंडमान पहुंचे थे. इसके बाद उन्होंने यहां अपनी कॉलोनी और फिर नेवल मिलिट्री बेस बनाया.
सन 1868 में अंग्रेजों ने यहां कमजोर पड़ चुके डचों से कालोनियों को खरीद लिया. इस तरह से यहां से डेनिश शासन भी समाप्त हो गया.
फिर क्या पूरे अंडमान निकोबार पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया.
दी जाती थी 'काला पानी' की सजा
भारत पर शासन के लिए अंग्रेजों ने क्रूरता की सारी सीमाओं को लांघा.
देश में अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा था, और भारत तब आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, ऐसे में अंग्रेजों के लिए समुद्र से घिरी ये जगह क्रांतिकारियों को कैद करने के लिए सबसे मुफीद लगी.
अंडमान निकोबार में साल 1896 में एक जेल का निर्माण शुरू हुआ, जो पूरी तरह वर्ष 1906 में बनकर पूरी हुई. इस जेल का नाम रखा गया 'सेल्युलर जेल' जो सात हिस्सों में बंटी थी.
सेल्यूलर जेल में अंग्रेज उन क्रांतिकारियों को भेजती थी, जिन्हें आजीवन कारावास की सजा दी जाती थी. रूह कंपा देनी वाली यह सजा, जिसे 'काला पानी' की सजा के नाम से भी जाना जाता है.
सेल्युलर जेल उस समय किसी काल कोठरी से कम नहीं थी. जहां से कैदियों के लिए भागना नामुमकिन था. ऐसे में देश की आज़ादी के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाने वाले क्रांतिकारियों को आंदोलन से दूर करने के लिए उन्हें यहां कैद कर दिया जाता.
यहां वीर सावरकर, पंडित परमानंद, उल्हासकर दत्त, बीरेंद्र कुमार घोष, पृथ्वी सिंह जाद, पुलिन दास, त्रिलोक नाथ चक्रवर्ती और महावीर सिंह जैसे महान क्रांतिकारियों को कैद किया गया.
हालांकि, आज़ादी के बाद इसे भारत सरकार ने ‘राष्ट्रीय स्मारक’ के रूप में घोषित कर दिया, जहां आज भी स्वाधीनता संग्राम के नायकों की यादों को संजोकर रखा गया है.
जापान की मदद से मिली आज़ादी
वर्षों संघर्ष करने के बावजूद जब देश को आज़ादी नसीब नहीं हो रही थी, तब एशिया के कई मुल्कों में रहने वाले भारतीयों के सहयोग से नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने 'आजाद हिंद फौज' का गठन किया.
वर्ष 1942 की बात है, उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ चुका था. जिसमें जापान ब्रिटेन के खिलाफ लड़ रहा था.
उन दिनों अंडमान के द्वीपों में आज़ाद हिंद फौज भी देश की आज़ादी के लिए अंग्रेजों से लड़ रही थी. फिर क्या जापानी सेना अंग्रेजों से लड़ते-लड़ते 1942 में अंडमान-निकोबार द्वीप समूह तक आ पहुंची, जिसने आज़ाद हिंद फ़ौज में जान फूंकने का काम किया.
और 23 मार्च 1942 को जापानी सेना ने अंडमान के द्वीपों पर कब्जा कर वहां से अंग्रेजी सेना को खदेड़ दिया. अब अंडमान निकोबार अंग्रेजों की गिरफ्त से बाहर आ गया था और वहां की बागडोर जापान के हाथ में.
नेताजी ने पहली बार फ़हराया तिरंगा
इन्हीं सब के बीच नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अंतरिम आजाद हिंद सरकार का गठन कर लिया था. तब तक जापानियों के साथ नेताजी के संबंध और भी ज्यादा मजबूत हो चुके थे.
जापानियों ने नेताजी के पास संदेश पहुंचाया कि अंडमान-निकोबार पर उनका कब्जा हो चुका है. इस संदेश के बाद नेताजी ने अंडमान-निकोबार द्वीपों का दौरा करने का निश्चय किया.
25 अक्टूबर 1943 को नेताजी ने भी अंग्रेजी सरकार के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी. जापानी प्रधानमंत्री हिदेकी तोजो ने 7 नवंबर 1943 को अंडमान-निकोबार द्वीपों की कमान नेताजी की अंतरिम सरकार को सौंप दी.
अब अंडमान निकोबार द्वीप समूह पूरी तरह से आजाद हो चुका था. और इसी के साथ 30 दिसंबर 1943 को सुभाष चंद्र बोस ने सबसे पहले ‘स्वतंत्र भारत’ के इस अहम हिस्से पर तिरंगा फहराया.
Web Title: Andaman & Nicobar: Japanese Occupation and Subhash Chandra Bose Hoisted First Independent Indian Flag, Hindi Article
Feature Image Credit: myproudindians