भारत-पाकिस्तान की जंग के तमाम किस्से आजाद हो चुके हैं. 'वहां' के कुछ लोग 'यहां' से नफरत करते हैं और 'यहां' के कुछ 'वहां' से. वैसे तो यह 'यहां' 'वहां' का किस्सा 1965 की जंग में ही खत्म हो जाता.
मगर बात बनते-बनते बिगड़ गई!
भारत लाहौर फतह के बहुत करीब था और 'यहां' के लोग 'वहां' वालों को भी अपना बनाने जा रहे थे कि तभी एक चूक हुई और किस्सा बदल गया.
'वो' गलती क्या थी आइए जानने की कोशिश करते हैं!
सीजफायर के लिए बनाया गया दवाब!
1965 की जंग उस क्लासिक मुहावरे का शानदार उदाहरण है, जिसे हम हिंदी के पेपर में अक्सर विस्तार से समझाते हैं. मुहावरा है- आदत से लाचार! अक्सर कई आदतें छूटती नहीं है और हम उनके आगे बेबस से हो जाते हैं. पाकिस्तान की बात करें तो उसकी ऐसी पुरानी आदत है 'ओवर कांफीडेंस' और भारत की बात करें तो 'समझौता'.
दोनों मुल्कों का इतिहास एक मुल्क में तब्दील हो सकता था. यदि भारत अपनी आदत को तिलांजलि दे पाता. सेना ने तो पूरी तैयारी कर ली थी, कि इस बार लाहौर भारत का होगा और सीमा की हर हद खत्म होगी. जमीन पर लड़ाई जारी थी. खून खराब हो रहा था. शहदाद जारी थी. पर ज्यों ही जंग ने सियासत का रूख किया, हालात बदल गए.
1965 में जब पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया तो सेना ने खार खाकर जो साहस दिखाया उसने पाक की आधी सेना को तबाह कर दिया. पूरी उम्मीद थी कि भारत सीमा पार कर लाहौर फतह कर लेगा.
तभी सियासतदानों का फरमान आया और सीजफायर हो गया.
असल में भारत-पाक आपस में उलझे थे. तभी अमेरिका भी वियतमान से जंग कर रहा था. जंग जीतने के लिए उसे पाकिस्तान का साथ चाहिए था. वह जान चुका था कि भारत का यह जोश इस बार पाकिस्तान को दुनिया के नक्शे से गायब कर देगा. सो उसने सीजफायर का दवाब बनाना शुरू किया.
ब्रिटेन का स्टैंड भी पाकिस्तान के फेवर में था. इसी के चलते जब भारतीय सेना लाहौर पर हमला कर रही थी, तभी ब्रिटिश प्रधानमंत्री हेरोल्ड विल्सन ने भारत के तत्काल प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को फैक्स से संदेश भिजवाया.
इसमें जंग की जिम्मेदारी दोनों सरकारों पर डाल दी गई. साथ ही कहा गया कि लाहौर पर हमला एक भारत की अलग ही तस्वीर पेश कर रहा है. पर शायद जनाब ने गौर नहीं किया कि हमला तो पाकिस्तान ने किया था, भारत दोषी कैसे हुआ?
सोवियत (रूस) ने दिया भारत का साथ
दोनों देश अपनी औकात दिखा चुके थे. ऐसे में पाकिस्तान को आज तक अपना हमदम कहने वाला चीन कैसे पीछे रहता. चीन ने पाकिस्तान की खुलकर मदद की. सोवियत और भारत के करीबी रिश्ते थे. जबकि चीन के साथ उसके रिश्ते खराब थे. अमेरिका ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर सुरक्षा परिषद से दवाब डलवाया कि दोनों देश संघर्षविराम कर लें.
यूएन के सेक्रटरी जनरल यू थांट ने शास्त्री जी से जंग खत्म करने की अपील की. जवाब में लाल बहादुर ने कहा-जंग उन्होंने शुरू की. शांति लाना भारत की अकेली जिम्मेदारी नहीं है. ऐसे बुरे वक्त में केवल सोवियत यानि रूस ने भारत का साथ दिया. वह हमेशा से कहते आया है कि कश्मीर भारत का हिस्सा है, पाकिस्तान भारत में घुसपैठ कर जंग को आमंत्रित करता रहा है.
सोवियत के प्रमुख ऐलेक्सी कोसगिन ने भारत को आश्वास दिया कि यदि देश को नुकसान पहुंचाने के लिए चीन ने दूसरी ओर से हमला किया तो वह उसके साथ है.
1975 में आई एक किताब इंडिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश ऐंड द मेजर पावर्स: पॉलिटिक्स ऑफ अ डिवाइडेड सबकॉन्टिनेंट ने इस पूरे मसले को विस्तार से पेश किया. इसके तहत सोवियत और भारत की दोस्ती ने चीन को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया.
बहरहाल कई देशों की सलाह, सुरक्षा और शांति को अहमियत देते हुए भारत संघर्षविराम के लिए राजी हुआ. पाकिस्तान की तो मजबूरी यह थी कि भारतीय सेना लाहौर के दरवाजे पर थी, यदि हां न बोलते तो और किरकिरी होती.
एक गलत जानकारी ने सब बदल दिया
बाहरी दवाब से तो शास्त्री वैसे ही परेशान नहीं थे. उन्होनें लाहौर फतह का पूरा मन बना लिया था. पाक सेना जंग जारी रखे थे पर डरी थी. लेकिन डरने वालों में भारतीय सेना का एक आला अधिकारी भी पीछे नहीं रहा.
शेफ जान मुहम्मद तत्कालीन रक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण ने अपनी वॉर डायरी में 1965 वॉर, द इनसाइड स्टोरी: : डिफेंस मिनिस्टर वाई बी चव्हाण्स डायरी ऑफ इंडिया-पाकिस्तान वॉर किताब का जिक्र किया है.
किताब में दर्ज एक वाक्ये के अनुसार 1962 के युद्ध में हुई हार के बाद आर्मी चीफ प्रेम नाथ थापर ने इस्तीफा दे दिया था. इसके बाद 1965 के समय भारत के आर्मी चीफ थे जयंतो नाथ चौधरी.
चव्हाण के अनुसार वे काफी जल्दी डर जाते थे. यहां तक की फ्रंट में जाने से भी कतराते थे. 20 सितंबर 1965 को प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने चौधरी से पूछा अगर जंग कुछ दिन और चले तो हमें क्या फायदा होने वाला है.
सेना प्रमुख ने कहा कि आर्मी के पास गोला-बारूद खत्म हो रहा है. इसीलिए अब और जंग लड़ पाना भारत के लिए मुमकिन नहीं हो पाएगा. ऐसे में संघर्षविराम का प्रस्ताव मान लें. यह जवाब सुनने के बाद शास्त्री जी ने संघर्ष विराम के बारे में सोचा.
हालांकि, बाद में मालूम चला कि भारतीय सेना के गोला-बारूद का केवल 14 से 20 फीसद रिजर्व ही खर्च हुआ था. यदि भारत चाहता तो बिना रूके पूरे पाकिस्तान में तिरंगा फैला सकता था.
‘नो वॉर क्लॉज’ की वो न भूलने वाली शर्त!
अब समझौते के लिए सोवियत ने दोनों देशों को उज्बेकिस्तान के ताशकंद में बुलाया. तब ये सोवियत संघ में हिस्से में आता था. रक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण ने अपनी वॉर डायरी में जिक्र किया है कि समझौते के पहले पाकिस्तान के रक्षामंत्री अयूब खान अमेरिका पहुंचे. उस दौरान लिंडन जॉनसन अमेरिका के राष्ट्रपति थे.
अयूब को अमेरिका का साथ चाहिए था, ताकि समझौते की टेबिल पर पाकिस्तान की और किरकिरी न हो. हालांकि लिंडन शास्त्री की राजनीति और कूटनीति से वाकिफ से थे सो उन्होंने साफ कर दिया कि अमेरिका कश्मीर मसले पर भारत पर कोई दवाब नहीं बनाएगा. हताश अयूब जनवरी 1966 में समझौते के लिए अकेले ही ताशकंद पहुंचे.
वहीं भारत की सेना, आवाम, राजनेता हर कोई शास्त्री जी के स्टैंड से फक्र महसूस कर रहा था, पर जब वे ताशकंद के लिए जा रहे थे, तो सभी में एक अजीब सी बेचैनी थी.
ऐसे में शास्त्री जी ने विश्वास दिलाया कि सेना ने अपने बलिदान से जो जीता है उसे समझौते की टेबिल पर गवांया नहीं जाएगा. स्टैनले वोल्पर्ट ने अपनी किताब ‘जुल्फी भुट्टो ऑफ पाकिस्तान: हिज लाइफ ऐंड टाइम्स’ में लिखा है कि जब दोनों नेता मिले तो उन्होंने अकेले में बातें की. यहां तक की अयूब ने भुट्टो की तरफ अंगुली तानकर उन्हें कमरे के बाहर रूकने के लिए कह दिया.
जब लाल बहादुर ने अयूब के सामने ‘नो वॉर क्लॉज’ की शर्त रखी तो वे मान गए. यानि पाकिस्तान भविष्य में कभी भारत से जंग नहीं करेगा. लेकिन भुट्टो ने अपना रंग दिखाया और अयूब को ब्लैकमेल करते हुए कहा कि यदि यह क्लॉज शामिल हुआ तो वे देशवासियों से कहेंगे कि अयूब ने गद्दारी की है. मरता क्या न करता, अयूब ने ‘नो वॉर क्लॉज’ की शर्त से इंकार कर दिया.
शास्त्री जी की रहस्यमय मौत!
10 जनवरी 1966, वह दिन भी आ गया जब दोनों देश समझौते के कागजों पर हस्ताक्षर की चिड़िया बनाने वाले थे. एक बार फिर समझौते की टेबिल पर भारत कमजोर हुआ. सारे जीते हुए इलाके पाकिस्तान को लौटा दिए.
सब वैसा ही हो गया जैसा जंग के पहले था.
ऐसे में सवाल उठता है क्यों? अब जवाब तो शिमला समझौते का भी नहीं मिला, जब इंदिरा गांधी जैसी सक्शत नेता जुल्फी भुट्टो के आगे कमजोर हो गई. बहरहाल समझौते का हंसी खुशी गुजर गया.
हस्ताक्षर हो गए, हाथ मिला लिए गए, थोड़ा मुस्कुराहट आई और फोटो खिंच गई. अरशद शामी खान ने अपनी किताब थ्री प्रेजिडेंट्स ऐंड ऐन एड: लाइफ, पावर ऐंड पॉलिटिक्स में एक वाक्या दर्ज किया है.
जब दोनों नेता अपने-अपने कमरे में जाने लगे तो अयूब खान ने शास्त्री जी से खुदा हाफिज कहा, बदले में शास्त्री बोले खुदा हाफिज, जो हुआ अच्छा हुआ. अयूब बोले खुदा अच्छा ही करता है.
इस वाक्ये क चार घंटे बाद शास्त्री जी को दिल का दौरा पड़ा और उनका देहांत हो गया.
जब पाकिस्तानी सेना प्रमुख अजीज अहमद को यह खबर मिली तो वे झूमते हुए भुट्टो के पास पहुंचे और बोले वो मर गया. बिना कोई भाव लाए हुए भुट्टो ने पूछा- दोनों में से कौन? हमारा वाला या उनका वाला? जवाब आया उनका वाला!
शास्त्री की मौत से जुड़ी स्थितियां रहस्यमयी थी. उनका पोस्टमॉर्टम नहीं कराया गया था. उस रोज खाना उनके खानसामे राम नाथ ने नहीं बल्कि रूसी शेफ जान मुहम्मद ने बनाया था. मौन शास्त्रत्री जी भारत आ गए और भारत जीतकर भी हार गया.
हमने अपना सबसे चहेता प्रधानमंत्री खो दिया था.
हालांकि 'वहां' भी कुछ ठीक नहीं हुआ. भुट्टो ने अयूब के खिलाफ देशद्रोह की आग फैलाई और इल्जाम लगा कि अयूब ने कश्मीर को भारत के हाथों बेच दिया है. इस इल्जाम ने अयूब के खिलाफ माहौल बनाया.
वही हो रहा था जो पाक में अक्टूबर 1958 में हुआ था, वही जो अयूब ने इस्कंदर मिर्जा के साथ किया था.
25 मार्च, 1969 को अयूब ने याहया के हाथों पाकिस्तान सौंप दिया और देश में मॉर्शल लॉ लागू हो गया. तब शायद कोई नहीं जानता होगा कि पाकिस्तान अपने सबसे बुरे दौर में जाने वाला है.
बहरहाल 1965 में भारत ने जो खोया उसकी कीमत हम भी तो आज चुका रहे हैं!
Web Title: Anecdotes of War Between India and Pakistan in 1965, Hindi Article
Feature Image Credit: thedemocraticbuzzer