गुरु अंगद देव जी के वंशज भाई बिनोद सिंह जी सिख इतिहास के एक महान योद्धा हैं.
भाई बिनोद सिंह गुरु गोबिंद सिंह जी की सेना में शामिल थे और फिर इन्होंने महानतम योद्धा बंदा सिंह बहादुर जी के साथ्स भी कई युद्धों में भाग लिया और उनमें विजय प्राप्त की.
माना जाता है कि कुछ समय बाद बंदा सिंह बहादुर के साथ इनका विवाद हो गया. यहीं से इन्होंने अपनी अलग राह पकड़ ली.
बावजूद इसके इन्होंने सिखों के कल्याण और रक्षा के लिए हथियार नहीं छोड़े और मुगलों के साथ हुए युद्ध में शहीद हो गए.
ऐसे में आइए, अकाली बाबा बिनोद सिंह निहंग के योगदान को जानते हैं –
गुरु अंगद देव के वंशज थे बिनोद जी
भाई बिनोद सिंह जी की पहली पहचान सिखों के दूसरे गुरु श्री गुरु अंगद देव जी के वंशज के रूप में होती है. इसके अलावा वह दशम पिता गुरु गोबिंद सिंह जी की सेना के एक बहादुर सैनिक थे. ये 1708 ई. के दौरान गुरु साहिब की नांदेड़ टुकड़ी में शामिल थे.
कुछ समय बाद बिनोद सिंह जी गुरु साहिब के सबसे विश्वासपात्र योद्धा बंदा सिंह बहादुर जी के सलाहकार बन गए और नांदेड़ से पंजाब आ गए.
धीरे-धीरे वह बंदा सिंह बहादुर जी के काफी करीब आ गए, जिस वजह से बंदा सिंह बहादुर उन पर काफी निर्भर करने लगे. युद्ध नीति हो या कार्यप्रणाली से जुड़ा कोई कार्य, वह हर चीज के लिए बिनोद सिंह जी की सलाह लेते थे.
चीजों को लेकर उनकी दीमागी काबिलियत तो उनके सुझावों से साबित हो गई, मगर उनकी बहादुरी व वीरता का पता युद्ध के मैदान में चला.
भाई बिनोद सिंह बंदा सिंह बहादुर द्वारा लड़ी गई लगभग हर जंग में उनके साथ रहे. युद्ध में वह हर बार बाईं तरफ की सैनिक टुकड़ी का नेतृत्व करते थे.
साल 1710 में जब सरहिंद की जंग हुई, तो उसमें भी उनकी भागीदारी रही थी, दुर्भाग्यवर्ष खालसा सेना उस युद्ध में वजीर खान की फौज के आगे टिक नहीं पाई.
इस बात का ज़िक्र आपको ऐतिहासिक ग्रंथ महानकोष में मिल जाएगा, जिसे खान सिंह नाभा द्वारा लिखा गया था.
भाई बने पहले निहंग जत्थेदार
भाई बिनोद सिंह की काबिलियत को देखते हुए निहंग परंपरा के तहत उन्हें पहले निहंग दल का जत्थेदार नियुक्त किया गया. इस दल को गुरु गोबिंद सिंह की सेना माना जाता था.
गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा बंदा सिंह बहादुर को जब हुक्म जारी किया गया कि वह सिख पंथ की संपूर्ण भागदौड़ पांच अलग-अलग काबिल सिखों को दे दें, तो उन सिंहों में से सबसे पहला नाम भाई बिनोद सिंह जी का था.
ये एक एक बड़े सम्मान की बात थी. उन्होंने इस जिम्मेदारी को गुरु का आशीर्वाद समझ कर लिया. एक लंबे समय तक वह सिख पंथ के लिए प्रयत्नशील रहे और निरंतर युद्धों में हिस्सा लेते रहे.
इस बीच, बिनोद सिंह का बेटा काहन सिंह भी बड़ा हो गया था. वह पंथ से संबंधित कार्यों में बिनोद सिंह जी का हाथ बंटाने लगा. मगर कुछ समय पश्चात बिनोद सिंह और बंदा बहादुर के बीच आपसी सहमती का अभाव होने लगा. नतीजतन उनके बीच एक दूरी बन गई, जो लगातार बढ़ने लगी.
सिखों के आपसी रिश्तों में पैदा हुए इस मतभेद के बारे में मुगल शासकों को भी पता चल गया. उन्होंने इसे एक मौके की तरह लिया. उन्होंने सोचा की यही अवसर है, जब वह सिखों को दो हिस्सों में बांट कर उनकी ताकत को कम कर सकते हैं.
बंदा सिंह बहादुर से था विवाद
गुरु गोबिंद जी के चारों पुत्र जंग में शहीद हो गए थे. इनमें से दो बड़े बेटे चमकौर की लड़ाई में मारे गए, जबकि छोटे बेटों को सरहिंद में वजीर खान ने जिंदा दीवार में चुनवा दिया था.
इसके चलते गुरु साहिब की पत्नी माता सुंदरी ने एक बच्चे को गोद लिया था. उस समय पंथ में कुछ ऐसे लोग भी थे, जो इस गोद लिए बच्चे को पंथ का उत्तराधिकारी बनने नहीं देना चाहते थे.
बिनोद सिंह को शक था कि बंदा सिंह बहादुर इसी सोच का शिकार हैं. इसलिए बिनोद सिंह और उनके बेटे काहन सिंह ने बंदा बहादुर पर नजर रखनी शुरू कर दी. उन्हें शक था कि बंदा बहादुर खालसा सेना की कमान अपने हाथों में लेकर खुद को 11वां गुरु बनाने की सोच रहे हैं.
इससे पहले दशम गुरु गोबिंद सिंह जी ने जाने से पहले गुरु की पदवी उनके लिखित गुरु ग्रंथ साहिब को दे दी थी.
वहीं, दूसरी ओर सिखों के बीच निरंतर बढ़ती इस दूरी को मुगल शासकों ने भाप लिया और उन्होंने इस खबर को पंजाब और दिल्ली में मौजूद सिखों में फैला दिया.
बने टट खालसा के पहले मुखी
बंदा सिंह बहादुर के विचारों को जानने के बाद काहन सिंह का उनके साथ रहना मुमकिन नहीं था. इसके चलते उन्होंने बंदा बहादुर का साथ छोड़ दिया और वह खालसा सेना के ढेरों सैनिकों समेत पृथक हो गए.
उधर बिनोद सिंह का बंदा बहादुर के साथ आपसी मतभेद जारी रहा.
आखिरकार, गुरदास नंगल में घेराबंदी के दौरान बिनोद सिंह ने फैसला लिया कि वह अब बंदा बहादुर का साथ नहीं दे सकते. और यहीं से खालसा सेना दो हिस्सों में बंट गई. जो सैनिक बिनोद सिंह जी के साथ थे, उन्हें टट खालसा नाम दिया गया, जबकि बंदा सिंह बहादुर की फौज को बंदई खालसा नाम मिला.
आगे चलकर यह दोनों संगठन फिर से आमने-सामने हुए. जब हरिमंदिर साहिब का कार्यभार संभालने की बात आई. उस दौरान बाबा दीप सिंह जी ने फैसला कर टट खालसा को हरिमंदिर साहिब सौंपा था.
टट खालसा के मुखी बिनोद सिंह जी की मौत मुगल सेना से युद्ध के दौरान हुई थी. 18वीं और 19वीं सदी के इतिहासकार मानते हैं कि बिनोद सिंह जी द्वारा सिख पंथ के लिए किए गए कार्य सराहनीय थे. हालांकि आधुनिक युग के कुछ इतिहासकार इस बात से सहमत नहीं हैं.
Web Title: Baba Binod Singh Head Of The Khalsa Army, Hindi Article
Representative Featured Image Credit: desktopbackground/DeviantArt