साल 1526 के आसपास की बात है. बाबर ने अपने हिंदुस्तान मिशन की ओर फिर से सोचना शुरू कर दिया था. उसका मिशन बहुत बड़ा था और इसके लिए कुछ ज्यादा ही शक्ति संगठित करने की जरूरत थी. लिहाजा उसने अपने सैन्य अधिकारियों के साथ बैठक की.
बात सिर्फ हिंदुस्तान पर कब्जा करने की ही नहीं थी, बल्कि काबुल की सुरक्षा सुनिश्चित करने की भी तमन्ना थी. लगातार चार बार फतह के प्रयास विफल रहे थे. लिहाजा काबुल में सैनिकों का बड़ा जत्था छोड़कर निकलने पर सहमति बनी.
साथ ही वहां बेटे कामरान को सजग रहने को कहा और फिर बहुत सोच-विचार के बाद हिंदुस्तान कूच की तैयारी में बाबर ने खुद को झोंक दिया.
काबुल से कूच कर सैन्य दल के साथ बाबर झेलम नदी तट पर पहुंचा. रात्रि विश्राम के बाद सिंधु नदी को पार कर सुरक्षित हिंदुस्तान में दाखिल हुआ. जगह-जगह ठहरते-सुस्ताते हिंदुस्तान फतह को शक्ति संगठित करते हुए बाबर लगातार बढ़ता गया.
कुछ इस तरह मिली थी इंट्री
हिंदुस्तान दाखिल होने से पहले ही बाबर के यहां कनेक्शन रहे थे. चूंकि वह तैमूर लंग का वंशज था. इस लिहाज से उसके लिए हिंदुस्तान कोई नई जगह नहीं थी. हालांकि, उसे अपने जीवन में अपने ही परिजनों से धोखे मिल चुके थे.
शायद यही कारण था कि वह एक-एक कदम फूंक-फूंक कर चलने में विश्वास करता था.
सशक्त योजना और मजबूत इरादों के साथ उसने अपने पहचान के लोगों से मिलना शुरू किया. उसके निशाने पर दिल्ली था, लिहाजा वह अपनी शक्ति का बेकार उपयोग न करते हुए छोटी-छोटी रियासतों से जान-पहचान बढ़ाते हुए आगे बढ़ता जा रहा था.
इधर, हिंदुस्तान में जो सत्ता समीकरण चल रहे थे, उससे तत्कालीन राजा-रजवाड़े बेहद खिन्न थे और दिल्ली शासन में विकल्प की गुंजाइश खोजी जा रही थी. यही कारण रहा कि बाबर को शक्ति संचयन में हिंदुस्तानी शासकों ने मदद पहुंचानी शुरू कर दी.
अलबत्ता एक प्रतिनिधिमंडल से बाबर की मुलाक़ात भी हुई और आगे की योजना तय की गई.
Babur (Pic: Amarchitrakatha)
दिल्ली तख़्त के हालात ने की मदद
बाबर का हिंदुस्तान पर आक्रमण एक प्रायोजित योजना थी. उसे एक तरह से देशी राजाओं का समर्थन प्राप्त था. इसके पीछे की वजह ये थी कि आलम खान किसी भी सूरत में दिल्ली पर अपना कब्जा चाह रहा था. वहीं, मेवाड़ के शासक राणा सांगा की मंशा भी कुछ इसी तरह की थी. इधर, ये लोग बाबर का इस्तेमाल कर दिल्ली कब्जियाना चाहते थे. तो बाबर की नजर भी दिल्ली पर ही थी.
उधर, पंजाब के शासक दौलत खान अपनी स्वतंत्र सत्ता की चाह रख रहे थे. इन सब परिस्थितियों ने बाबर के लिए मुफीद माहौल तैयार कर दिया था. हालांकि, बाबर के लिए ये उतना सहज नहीं रहा जितना कि दिखते लग रहा था.
यह पांचवीं दफा था, जब वह भारत पर आक्रमण करने जा रहा था. चार बार की असफलता ने उसे कुछ ज्यादा ही चौकन्ना बना दिया था. वह अब कोई गलती नहीं करना चाहता था.
सहज नहीं रहा था भारत-फतह
अपने 5 भारत आक्रमणों में उसने सबसे पहले साल 1519 में बाजौर दुर्ग पर हमला बोला और कत्लेआम मचा दिया. फिर झेलम तट पर भीरा नामक जगह पर उसे विद्रोह का सामना करना पड़ा था. उसके बाद उसने उसी साल दूसरी दफा पेशावर के रास्ते भारत में प्रवेश का प्रयास किया, लेकिन बदख्शां में विद्रोह के चलते मायूसी हाथ लगी.
साल 1520 में वह बाजौर और भीरा पर अधिकार करने में सफल रहा, लेकिन कांधार में फ़ैल रही अशांति के कारण उसे वापस जाना पड़ा था. इन सब हालातों ने उसे बेहद चोट पहुंचाए थे और वह एक घायल शेर की तरह महसूस कर रहा था.
भारतीय सुल्तानों से मिल रही मदद उसको सफलता के प्रति आश्वस्त कर रहे थे. तब तक काबुल में स्थिति मजबूत हो गई थी.
ऐसे में बाबर 1524 में फिर एक बार हिंदुस्तान फतह पर निकला. दौलत खान बाबर की मदद से पंजाब की सत्ता तक फिर से पहुंचना चाहता था, लेकिन बाबर से सहमति नहीं बनी. लिहाजा उसने बाबर से किनारा कर लिया और इस प्रकार बाबर का चौथा प्रयास भी बेनतीजा निकला.
Babur (Pic: Thebookpalace!)
पानीपत में निकले परिणाम
बाबर काबुल की सत्ता अपने बेटे कामरान को सौंपकर निश्चिंत होकर बड़े ही आक्रामक तरीके से भारत पर फतह को निकला. वह इस बार किसी से वार्ता के मूड में नहीं था. लिहाजा सबसे लड़ते-भिड़ते कत्लेआम मचाते दिल्ली की ओर बढ़ा.
वहां पानीपत में इब्राहिम लोदी से मुठभेड़ हुई.
इस युद्ध में मात्र 12 हजार सैनिकों के साथ बाबर ने इब्राहिम लोदी की 1 लाख सैनिकों को रौंद दिया. बाबर की सेना ने अप्रतिम युद्ध क्षमता का प्रदर्शन करते हुए बड़ी संख्या में तोपों का इस्तेमाल किया. प्रभावशाली प्रयोगों और रण-कौशल के कारण बाबर की सेना विजयी हुई.
21 अप्रैल, 1526 ई. को इब्राहिम लोदी ने रणक्षेत्र में ही अपने प्राण त्याग दिए. इसके बाद आगरा और दिल्ली पर बाबर का दखल हो गया. साथ ही भारत में मुग़ल सत्ता की नींव रखी जा रही थी. बाबर ने लोदी शासन के छोटे-मोटे सभी राजे-रजवाड़ों पर अपनी पकड़ बनानी शुरू कर दी.
रणकौशल का रहा प्रभाव
‘बाबरनामा’ में बाबर ने खुद लिखा है कि मात्र 12 हजार सैनिकों के बल पर उसने सफलता हासिल की थी. इस युद्ध में पहली बार ‘तुलुगमा युद्ध नीति’ का इस्तेमाल करते हुए बाबर ने तोपों को सजाने की ‘उस्मानी विधि’ (रूमी विधि) का लाभ उठाया.
दिल्ली पर कब्जा के बाद बाबर ने खूब लूट मचाई और भारत से लेकर काबुल तक सोने-चांदी लुटाए गए. आखिर तीन शताब्दियों तक चलने वाले तुर्क-अफगानी सुल्तानों की सल्तनत को समाप्त कर बाबर ने अपनी ‘बादशाहत’ कायम की थी. हालांकि राणा सांगा अभी ज़िंदा थे और वह शक्ति का संचय कर बाबर की बादशाहत को चुनौती दे बैठे.
…ये रहा निर्णायक युद्ध
उत्तर भारत में दिल्ली के बादशाह बाबर के बाद सबसे ताकतवर राजपूत शासक चित्तौड़ राणा सांगा (संग्राम सिंह) था. वह बाबर को बाहरी लुटेरा मानता थे और उसे लोदी के लड़खड़ाते शासन में लूटपाट कर लौटने वाला समझता रहे. किन्तु, जब बाबर मुग़ल वंश की नींव रख रहा था, तो सांगा यह बर्दाश्त न कर सके.
दरअसल, राणा सांगा दिल्ली में हिन्दू राज्य की स्थापना के लिए सुयोग की तलाश में थे. बाबर भी भली-भांति समझ चुका था कि सांगा के रहते बादशाहत कायम रखना संभव नहीं है.
लिहाजा, 17 मार्च 1527 ई. में खानवा में दोनों भिड़ गए. इस युद्ध में राणा सांगा मारवाड़, अम्बर, ग्वालियर, अजमेर, हसन ख़ाँ मेवाती, बसीन चंदेरी एवं इब्राहिम लोदी के भाई महमूद लोदी के साथ संयुक्त मोर्चे के साथ डटे थे. उधर, बाबर की सेना थकी और टूटी हुई थी बावजूद बाबर सांगा के साथियों में फूट डालकर युद्ध जीतने में कामयाब रहा.
Babur in Battel (Pic: Lookandlearn)
बहरहाल, अंततः बाबर ने इब्राहिम लोदी और राणा सांगा को हराकर भारत में मुग़ल राज्य की स्थापना की. साथ ही राजधानी दिल्ली से आगरा शिफ्ट कर ली.
युद्ध-कौशल के अलावा बाबर के व्यक्तित्व में कई दूसरे रोचक पहलू भी रहे. अगर आप किसी खास को जानते हैं, तो नीचे दिए कमेंट सेक्शन में हमारे साथ शेयर करें.
Web Title: Full Story of Babar Attacks and Victory, Hindi Article
Feature Image Credit: totalwarcente