लगभग 50 हज़ार की संख्या वाली अलाउद्दीन खिलजी की सेना ने जालौर पर हमला कर दिया था. उस समय महाराज कान्हड़देव के पास मात्र 5 हज़ार की सेना मुंह तोड़ जवाब देने की लिए मौजूद थी.
ऐसे में, अपनों का धोखा और अंत समय तक अपनी बहादुरी से दुश्मनों के छक्के छुड़ा देने वाले जालौर के महाराज की कहानी बहुत दिलचस्प है.
ये कहानी अपने साथ एक ‘ऐसे' वीर को भी लिए हुए है, जिस पर खिलजी की बेटी का दिल आ गया था. लेकिन, उन्होंने दुश्मनों से हाथ न मिलाकर युद्धभूमि में वीरगति को प्राप्त करना ज्यादा बेहतर समझा.
तो आइये, जानते हैं जालौर का वह युद्ध जिसमें अपनों का धोखा देना बना ‘हार’ की एक बड़ी वजह-
खिलजी लगातार जीत रहा था युद्ध
सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने राजपूतों की स्वतंत्रता को खत्म करने का फैसला कर लिया. इस स्वतंत्रता को खत्म करने के लिए उसने राजपूताना राज्यों में हमला करना शुरू कर दिया.
इसी क्रम में सुल्तान ने हम्मीर देव चौहान को हरा दिया. उन्हें हराने के साथ ही उसने रणथम्भौर किले पर अपना कब्जा जमा लिया.
यह रणथम्भौर युद्ध ही था, जब खिलजी ने किले को अपने अधिपत्य में ले लिया.
उसके कदम अभी यहाँ नहीं रुके. उसने इसके बाद सिवाना किले पर भी कब्जा कर लिया. यह उसने सिवाना युद्ध में महाराज सुतल देव को हराकर प्राप्त किया था.
खिलजी लगातार युद्ध जीत रहा था. इन दोनों किलों पर अपने नाम का झंडा फहराते हुए वह आगे जालौर की तरफ अपनी सेना के साथ बढ़ा.
सोमनाथ मंदिर के शिवलिंग को किया ध्वस्त
पहले अलाउद्दीन ने अपनी सेना को जनरल उलुग खान और नुसरत खान के नेतृत्व में गुजरात पर विजय पाने के लिए भेजा.
उसकी इस भेजी हुई सेना ने रूद्र महालय और सोमनाथ मंदिर को बर्बरतापूर्ण लूट लिया. इसके अलावा, उन्होंने सोमनाथ मंदिर में मौजूद शिवलिंग को ध्वस्त कर दिया. उसे कई टुकड़ों में तोड़ दिया.
उसकी सेना इन शिवलिंग के किये हुए टुकड़ों को दिल्ली वापस लेकर जा रही थी. जब इस बात की खबर महाराज कान्हड देव को पड़ी तो, उन्होंने इस पर तुरंत कार्यवाही का फैसला लिया.
जब सैनिक दिल्ली के रास्ते में ही थे, तब महाराज कान्हड देव ने उनके ऊपर हमला कर दिया और उनकी सेना को हरा डाला. महाराज ने सैनिकों को हराने के बाद उनसे शिवलिंग के टुकड़ों को छीन लिया और उन्हें अपने साथ जालौर ले गए.
वहां जाकर उन्होंने उन शिवलिंग के टुकड़ों को गंगाजल से धोया. गंगाजल से धोने के बाद उन टुकड़ों को जालौर के मंदिर में स्थापित कर दिया.
पंजा प्रतियोगिता में वीरमदेव की हत्या की नाकामयाब चाल
इन सब चीजों के पीछे एक और युद्ध छिपा हुआ था. अगर कान्हड-दे-प्रबन्ध द्वारा लिखित पद्मनाभन के अनुसार कान्हड़देव के पुत्र वीरमदेव युद्ध के समय के सुल्तान कोर्ट में मौजूद थे.
इसके बाद सुल्तान ने अपने कोर्ट में महाराजा को बुलाया. इस निमंत्रण के बाद कान्हड़देव ने अपनी जगह अपने बेटे वीरमदेव को कोर्ट में भेजा.
सुल्तान ने उन्हें मारने के लिए एक षडयंत्र रचा. अपने षडयंत्र के अनुसार उन्होंने पंजा प्रतियोगिता के दौरान उन्हें मारने का प्लान बनाया.
सुल्तान ने पंजा लड़ाने की एक प्रतियोगिता रखी. उसे लगा कि वह प्रतियोगिता में उन्हें हरा देगा. लेकिन, वीरमदेव ने भी कोई कच्ची गोटियां नहीं खेली थी. उन्होंने पंजा प्रतियोगिता में सामने वाले प्रतिद्वंदी को हरा दिया.
शहजादी का प्रेम भी माना गया युद्ध की वजह
वीर वीरमदेव को देखकर सुल्तान खिलजी की बेटी राजकुमारी फिरोजा को उनसे प्यार हो गया. वह उनकी बहादुरी की कायल हो गयी.
आपको बता दें, राजकुमारी फिरोजा सुल्तान की बेटी थीं, लेकिन सुल्तान की बेगम से नहीं. वह हरम की एक वेश्या और उसकी बेटी थीं.
अपनी बेटी की इच्छा जानने के बाद सुल्तान ने वीरमदेव को अपना दामाद बनाने के बारे में सोचा. अपनी बेटी के विवाह का प्रस्ताव लेकर वह वीरमदेव के पास पहुंचा.
लेकिन, वीरमदेव ने तुरंत इस प्रस्ताव को सुनते ही ठुकरा दिया.
इस तरह वह पहले से और भी ज्यादा झल्ला गया. वह पहले से जालौर पर अपना कब्ज़ा जमाने के लिए युद्ध की फिराक में था. अब तो वीरमदेव के प्रस्ताव ठुकराने के बाद उसे एक और बहाना मिला गया.
सन 1310 में, अलाउद्दीन ने अपनी सेना जालौर में आक्रमण के लिए भेज दी. दिल्ली से भेजी गयी इस सेना ने शुरुआत के सात दिनों में अनेकों बार किलों की सुरक्षा को तोड़ने का सफल प्रयास किया.
लगातार हो रहे इन हमलों से कान्हड़देव और उनके भाई मलादेव और बेटा वीरमदेव कहीं न कहीं झुंझला भी उठे थे. लेकिन उन्होंने अभी भी हिम्मत नहीं हारी थी.
लेकिन, आठवें दिन उन्होंने एक बार फिर खिलजी की सेना को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया.
इसके जवाब में खिलजी ने इस बार और अधिक मात्रा में सेना भेजी.
युद्ध की कुछ रणनीतियां हुईं असफल
इस सेना का नेतृत्व कर रहा था मलिक कमाल अल-दिन गुर्ग. इसे खिलजी के सबसे बेहतरीन जनरल में से एक माना जाता था.
प्रबंध के अनुसार, खिलजी की सेना से निपटने के लिए महाराज ने दो दलों में अपनी सेना को बाँट दिया. पहला दल मलादेव के नेतृत्व में वदी की ओर तैनात हो गया.
दूसरा दल वीरमदेव के नेतृत्व में भद्रजुन में युद्ध के लिए तैनात हुआ.
दोनों के नेतृत्व में गठित इन दलों ने दिल्ली की सेना को धीमा कर दिया था. लेकिन, कुछ ही दिनों में कमल अल-दिन की सेना जालौर में प्रवेश करने में सफल हो गयी.
ऐसे में, अंततः महाराज को दोनों दलों को वापस जालौर बुलाना पड़ा. उन्हें विचार-विमर्श करने के लिए मलादेव और वीरमदेव को बुलाना पड़ा.
कमल अल-दीन ने कई किलों पर अपना अधिपत्य जमा लिया. इसके साथ ही, उन्होंने ब्लॉककेड करना भी शुरू कर दिया.
लेकिन, उनकी यह रणनीति नाकामयाब हो गई. इसकी एक बड़ी वजह है असमय बरसात का होना और साथ ही महाराज को साहूकारों द्वारा मदद दी गई.
'राजपूत बीका' निकला घर का भेदी और...
माना जाता है कि जालौर में महाराज की हार का कारण एक धोखेबाज राजपूत ही था. दरअसल, दहिया राजपूत बीका ने महाराज के सारे भेद जाकर दुश्मन को बता दिए.
वो कहते हैं न घर के भेदी लंका ढाए. यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ, बिका के इस धोखे की वजह से जालौर को खिलजी ने अपने कब्जे में कर लिया.
दुश्मनों ने बीका से मदद यह कहकर ली कि अगर वह उनकी मदद करता है. तो, वह जालौर की राजगद्दी पर बिठा दिया जायेगा.
सत्ता के लालच में उसने उन्हें किले के रास्ते के भेद बता दिए.
जब बीका की पत्नी हीरादेवी को इस बारे में पता चला तो वह आग बबूला हो गईं. वह अपने पति द्वारा अपनी ही लोगों को धोखा देने की बात गले से नहीं उतार पाईं.
उन्होंने अपने पति की हत्या कर दी और कान्हड़देव को अपने पति द्वारा दिए गए धोखे से अवगत करवाया.
लेकिन, जब तक उन्हें इस बात की खबर लगी तब तक दुश्मन पहुँच चुके थे. अपने ही लोगों से मिले धोखे की वजह हार गए.
महल की सारी महिलाओं ने जौहर में अपनी जान त्याग दी.
कान्हड़दे प्रबंध के अनुसार, घुसपैठियों ने महल में मौजूद कन्हास्वामी मंदिर में पहुंचने में पांच दिन लगा दिए. महाराज और उनके आखिरी 50 सैनिक मंदिर की रक्षा करते हुए वीर गति को प्राप्त हो गए.
वहीं उनके बेटे वीरमदेव की भी ताजपोशी के तीन दिन बाद मृत्यु हो गई. साथ ही, कहा तो ये भी जाता है कि महाराज जिंदा थे और वह गायब हो गए.
खैर इस बात की कोई पुष्टि नहीं!
WebTitle: Battle Of Jalore, Hindi Article
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