बात 1790 के दशक की है, उस समय भारत के एक बड़े हिस्से पर मराठों का वर्चस्व था.
ताकत मजबूत थी, ऐसे में मराठों ने मैसूर के सुल्तान टीपू पर भी हमला कर दिया.
हालांकि इस हमले में हैदराबाद के निजाम ने उनका साथ दिया था, लेकिन इसी युद्ध के बीच इन दोनों पक्षों में भी युद्ध की नौबत आ गई.
इसे 'खरदा का युद्ध' कहा गया.
युद्ध में हैदराबाद का निजाम बड़े जोश के साथ कूदा था, लेकिन उतनी ही बड़ी हार के साथ उसे झुकना पड़ा.
परिणामस्वरूप मराठों की जीत हुई.
आखिर क्या थे कारण कि टीपू के खिलाफ साथ में लड़ रहे निजाम और मराठों के बीच युद्ध छिड़ गया. इसके कारणों को जानने के लिए हमें थोड़ा इतिहास में जाना पड़ेगा –
मराठों की मांगों से पैदा हुआ विवाद
मराठा और हैदराबाद के निजाम की सेनाएं एकजुट होकर टीपु सुल्तान के खिलाफ लड़ रही थीं.
युद्ध के दौरान मराठों ने अपने दो दूत गोविंदराय काले और गोविंदराय पिंगले के हाथ हैदराबाद के मीर निजाम अली खान असफ जहां द्वितीय को एक मांग पत्र भिजवाया.
इस मांग पत्र के जवाब में निजाम ने 34 पन्नों का एक संलेख भेजा और वायदा किया कि टीपू सुल्तान से चल रहे इस युद्ध की समाप्ति के बाद उनकी सभी मांगों पर चर्चा की जाएगी.
नवाब के जवाब को नाना फड़नवीस ने अपने हक में समझते हुए कुछ साल तक इंतजार किया.
हैदराबाद ने किया मराठों का अपमान
इस मांग के इंतजार में सालों बीत गए. ऐसे में मराठों ने दोबारा से अपनी मांग निजाम के सामने रखी.
जवाब में निजाम ने गोविंदराय काले को जानकारी दी कि उसका मराठों पर ढाई करोड़ रुपया बकाया है. हालांकि निजाम मराठों के आगे बहुत कमजोर था, लेकिन इस बात को कहने के पीछे का मकसद कुछ और ही था.
निजाम को उम्मीद थी कि किसी भी विवाद की स्थिति में अंग्रेज उसका साथ देंगे. इसके अलावा उसने अपनी सेना को भी एकजुट कर लिया था.
इस कारण मराठों के प्रति निजाम का रवैया काफी अलग हो गया था.
धीरे-धीरे मांगों पर चर्चा का यह विषय साल 1794 तक पहुंच गया. इस बीच निजाम और मराठा दोनों अपनी-अपनी बातों पर अड़े रहे.
इसी बीच निजाम के एक मंत्री मुशहिर ऊल मुल्क ने गोविंदराय काले को एक सम्मन भेजा और कहा कि इस मामले में किसी भी तरह की चर्चा के लिए नाना फड़नवीस को हैदराबाद आना पड़ेगा और अगर वह खुद नहीं आते हैं तो हमारी सेना उन्हें जबरदस्ती यहां उठाकर ले आएगी.
मराठों ने इसे अपना और नाना फड़नवीस का अपमान समझा.
निजाम के इस उखड़ु रवैये से यह साफ हो गया था कि यह मामला अब बातचीत से तो बिल्कुल भी नहीं सुलझने वाला.
ऐसे में इस मामले को सुलझाने का एकमात्र विकल्प युद्ध ही बचा था.
सेना संग निजाम का कूच
हैदराबाद और मराठों के बीच हालात अब पहले जैसे नहीं रहे.
साल 1795 की शुरुआत में निजाम ने फ्रांसीसी टुकड़ी के दम पर बिदार की ओर कूच कर दिया. इस दौरान उसके साथ मुशीर ऊल मुल्क और कुरनूल का नवाब व उसकी सेना भी थी.
कुछ देर बाद वह बिदार से निकल कर वाकीगूंग और फिर मोरी घाट चले गए, जहां सेना ने शिविर लगाए.
इस दौरान निजाम की सेना का होसला चरम पर था. वह तो इन खयालों में खोए हुए थे कि कैसे कुछ समय बाद पुणे उनके अधीन होगा और खानदेश को भी हैदराबाद का हिस्सा बना लिया जाएगा.
निजाम के पास 4500 घुड़सवार सैनिक, 4500 पैदल सैनिक और 100 से अधिक बंदूकें थीं.
यूद्ध की पूरी तैयारी हो चुकी थी. एक ओर जहां निजाम अपनी सेना के साथ तैयार था, तो इधर मराठा भी कम नहीं थे.
सवाई माधवराय के नेतृत्व में मराठा भी हैदराबाद की सेना से लोहा लेने को तैयार बैठे थे.
इस युद्ध में उत्तरी छोर के दौलतराय शिंदे और तुकोजीराय होलकर भी अपनी भागीदारी देने के लिए माधरवराय के साथ मिल गए.
इसी तरह पश्चिम से गायकवाड़ और पूर्व से रघुजी भोसले अपनी सेना समेत युद्ध में मराठओं के पक्ष में आ खड़े हुए.
आलम यह था कि निजाम की फौज का सामना करने के लिए सभी मराठा एकजुट हो गए.
केसरी झंडे के तले निम्बालकर, घाटगे, छवन, पवार, थोराट, वल्नचुरकर, मालेगाओंकर, पंत सचिव समेत अन्य मराठा एक ही सुर में युद्ध की यलगार लगा रहे थे.
निजाम की सेना के मुकाबले में मराठों की सेना 2 लाख के आसपास थी.
मराठा सेना ने औरंगाबाद के रास्ते बिदार की ओर कूच किया और कुछ समय में वह वाकीगुंग और पजीरी के क्षेत्रों में पहुंच गए.
मराठों ने रौंदी हैदराबाद की सेना
इस दौरान निजाम की सेना को रोकने के लिए बाबूराय फाड़के के नेतृत्व में सेना की एक टुकड़ी को मोरी पास के रास्ते खरदा के समीप भेजा गया.
बाबूराय व उनकी टुकड़ी अपने इस काम में सफल रही, लेकिन इस सफलता के लिए उन्हें भारी जनहानि सहनी पड़ी. मगर अब बारी थी सेना का सामना करने की.
निजाम की ओर से फ्रांसीसी अधिकारी रेमंड और उसकी सैन्य टुकड़ी युद्ध के मैदान में आगे आई और इधर से जवाब में कमांडर चीफ परशुराम भाउ पटवर्धन अपनी सेना के साथ आगे बड़े. इस आमने-सामने की लड़ाई में दोनों तरफ के बहुत से योद्धा मारे गए.
इसके बाद 11 मार्च, 1795 को खरदा के किले के निकट निजाम और मराठा शासकों की सीधी लड़ाई शुरू हो गई.
युद्ध में निजाम की सेना मराठों के समक्ष संघर्ष करती नजर आ रही थी. लेकिन निजाम अभी भी इस गफलत में जी रहा था कि उनकी सेना मराठों पर जीत प्राप्त कर लेगी.
युद्ध में धीरे-धीरे मराठा सेना का दबदबा बढ़ता गया और निजाम के हजारों सैनिक मारे गए.
अपनी हार को देखते हुए निजाम अपने कुछ सैनिकों के साथ खरदा के किले में जाकर छिप गया.
... और निजाम ने टेक दिए घुटने
इस दौरान मराठा सेना ने किले को चारो तरफ से घेर लिया.
17 दिन बाद जब किले में बंद निजाम और उसकी सेना भूख से तड़फने लगी तो निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया.
उसने मराठों की सभी शर्तों को माना और हर्जाने के तौर पर 3 करोड़ रुपए की एक बड़ी रकम मराठा साम्राज्य को देनी पड़ी.
इसके बाद नाना फड़नवीस की बेइज्जती करने वाले निजाम के मंत्री मुशहिर ऊल मुल्क को सजा के तौर पर पुणे जेल में बंद कर दिया गया.
मराठों की मांग के अनुसार निजाम को परांदा किले से ताप्ती नदी तक के सारे क्षेत्र से अपना अधिकार छोड़ना पड़ा, साथ ही मराठों ने दौलताबाद के किले को भी अपने कब्जे में ले लिया.
बहरहाल, निजाम के घमंड को चूर करने वाले और मराठा एकता का मिसाल ये युद्ध अपने आपमें ऐतिहासिक था. इसके बाद फिर कभी मराठों में एकता नहीं देखी गई.
और मराठा साम्राज्य धीरे-धीरे करके बिखरता चला गया.
Web Title: Battle of Kharda: Last Victory of the Maratha Confederacy on Nizam of Hyderabad, Hindi Article
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