कहा जाता है, जब धागे को बीच से तोड़ कर फिर जोड़ा जाए, तब भी वह पहले जैसा नहीं रहता. उसमें गांठ पड़ चुकी होती है और यह गांठ खुल सकती है. भारत और पश्चिम बंगाल के रिश्ते की कहानी भी कुछ ऐसी ही है.
बंगाल को बांटना और फिर एक करने की अंग्रेजी सरकार की कोशिश ने हिंदुस्तान को गहरा जख्म दिया है, जिसकी तकलीफ आज भी न केवल बंगाल की आवाम को है. बल्कि, पूरे भारत को है.
बंगाल विभाजन को वापिस लेने के बाद भी जो गांठ पड़ी थी, वह 1947 में एक बार फिर खुली!
बहरहाल पिछली कड़ी में हमने बंगाल विभाजन की राजनीति और उससे उपजे वहां के हालातों पर बात की थी. आज हम बात कर रहे हैं उस स्थिति की जब अंग्रेजी हुकूूमत इन हालातों का सामना नहीं कर पा रही थी. मजबूरव उसे बंटवारे को वापिस लेना पड़ा.
तो चलिए जानते हैं कि उस मुश्किल घड़ी में बंगाल समेत पूरे देश में क्या हालात बने और उन्हें ठीक करने के लिए किस हद तक प्रयास हुए…
विकराल रूप ले रहा था सांप्रदायिक तनाव!
पिछली कड़ी में बताया गया था कि 1910 के अंत तक भारतीय प्रशासन में दो बड़े बदलाव हो चुके थे.
पहला ब्रिटिश सम्राट और महारानी भारत आ रहे थे और दूसरा लॉर्ड हार्डिंग को नया भारतीय सचिव घोषित किया गया था. विभाजन को खत्म करने और बंगाल के हालातों को फिर से ठीक करने की जिम्मेदारी लॉर्ड हार्डिंग पर आ चुकी थी. उसने कांग्रेस के साथ समझौता कर विभाजन को समाप्त करने की योजना तैयार कर ली थी. वहीं दूसरी ओर क्षेत्र में सांप्रदायिक तनाव विकराल रूप ले रहा था.
इस स्थिति को देखते हुए 25 अगस्त 1911 में लॉर्ड हार्डिंग ने भारतीय सचिवालय को कोलकाता से दिल्ली हस्तांतरण की सिफारिश कर दी. ऐसा करने के पीछे हार्डिंग की मंशा थी कि इससे बंगाल में उपज रहे राष्ट्रवाद को दबाया जा सकता है.
इसके साथ ही दिल्ली में सचिवालय पहुंचने और उसे राजधानी बनाएं जाने से मुस्लिम खुश होंगे. हार्डिंग बंगाल को एक करने के लिए तो तैयार था.
किन्तु, उसके साथ ही बिहार और उड़ीसा को बंगाल से अलग करने की योजना भी मन में चल रही थी.
आखिरकार 12 दिसंबर 1911 को, सम्राट जॉर्ज VI ने दिल्ली को राजधानी घोषित करने के साथ ही बंगाल विभाजन खत्म करने की घोषणा की और इसे 1 जनवरी 1912 को प्रभावी रूप से लागू कर दिया गया.
जब शुरू हुआ ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार
राजनीतिक और आर्थिक फायदों के बारे में सोचने वाले हिंदू राजनेता, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों ने बंगाल के विभाजन का विरोध किया. जबकि, पूर्व बंगाल में बसे हिंदू विभाजन के पक्ष में थे. सबसे खराब हालात तब बने, जब कुछ हिन्दुवादी राजनेताओं ने राष्ट्रवाद को फैलाने के नाम पर मुस्लिमों का समर्थन खो दिया.
स्वदेशी आंदोलन के फलस्वरूप ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार शुरू हो गया, जिससे ब्रिटिश कारखानों को नुकसान हो रहा था. आखिर ब्रिटिश उद्यमियों ने सरकार पर दवाब बनाया कि वे बंगाल के विभाजन को रद्द करें. इतने दवाब के बाद भी अंग्रेजों ने खुद के फायदे के लिए इन विपरीत स्थितियों का इस्तेमाल किया.
उन्होंने बंगाल को फिर से एक कर दिया, ताकि शांति वापिस आ जाए साथ ही राजधानी दिल्ली बना दी गई. बताया जाता है कि यह मुस्लिमों को खुश करने की कोशिश थी.
बंगाल के विभाजन की एक मूल वजह मुस्लिम लीग की कमजोरी भी थी. हालांकि, उन्होंने विभाजन का स्वागत किया था. पर वे कांग्रेस की अपेक्षा कमजोर संगठन थे, इसलिए वे विभाजन के पक्ष में एकजुट नहीं हो पाए. उनकी अधिकांश गतिविधियां व्याख्यान तक ही सीमित थीं.
मुस्लिम लीग मुसलमानों को एकजुट करने या विपक्ष के खिलाफ आंदोलन शुरू करने के लिए कुछ भी नहीं कर सका. ऐसे में ब्रिटिश सरकार के सामने कांग्रेस की मांग को स्वीकार करने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा. मुस्लिम लीग ने अपने हितों के लिए सरकार पर कोई दबाव नहीं बनाया.
विभाजन के फैसले पर कुछ ऐसी रही प्रतिक्रियाएं
जब बंगाल के विभाजन के फैसले को सरकार ने वापिस लिया, तो चरमपंथी हिंदू इसे हिंदू राष्ट्रवाद की जीत के रूप में प्रचारित करते रहे. कांग्रेस अध्यक्ष अंबिकचरण मजूमदार ने ब्रिटिश सरकार को बधाई दी.वही कांग्रेस इतिहासकार पेटी सीताराम ने कहा ‘ 1911 में कांग्रेस के विभाजन विरोधी आंदोलन की जीत हुई थी.
बंगाल के विभाजन को वापिस लेकर भारत के शासन के प्रति न्याय किया गया.
दूसरी तरफ बंगाल विभाजन से मुस्लिमों का एक तबका दुखी था. पूर्वी बंगाल के मुसलमानों ने जहां फैसले का स्वागत किया था. वहीं कुछ मुस्लिम नवाब सलीमुल्ला समेत मुस्लिम लीग के मंच पर आ गए थे. नेताओं ने सरकार की आलोचना की. हालांकि, उनकी आवाज को दबा दिया गया. नवाब सलीमुल्ला ने कहा था कि बिना हमारे परामर्श के सरकार ने यह परिवर्तन किया, जिसके परिणाम उन्हें भविष्य में देखने होंगे.
इसी क्रम में जब दिल्ली में विभाजन की सालगिरह मनाई जा रही थी, तब 30 दिसंबर 1911 को नवाब सलीमुल्ला ने बैठक आयोजित की. इसमें विभाजन के विरोध और पक्षधर वाले बंगाली मुस्लिम नेता शामिल हुए. यहां बंगाल विभाजन के परिणामों से ज्यादा मुस्लिम हितों पर चर्चा हुई.
फलस्वरूप मुस्लिम लीग का नेतृत्व बदल गया. मुहम्मद अली जिन्ना, ए.फजलुल हक जैसे नेताओं ने मुस्लिम लीग का समर्थन कर रहे थे. साथ ही फजलुल हक ने तो खुले तौर पर सरकार को चेतावनी दे दी कि यदि मुसलमानों की मांग को अनदेखा किया गया, तो भविष्य में परिणाम भुगतने होंगे.
हिंदू-मुस्लिम एकता के किए गए प्रयास
बंगाल विभाजन से उपजे विनाश के बाद भी पूर्वी बंगाल में कोशिश की जा सकती थी कि कौमी एकता बनी रहे. किन्तु, पूर्वी बंगाल के मुस्लिमों में कुछ ही समय में अंग्रेजों के प्रति असंतोष पैदा हो गया.
जनवरी 1912 को लॉर्ड हार्डिंग ढाका गए और मुस्लिम नेताओं के साथ बैठक की. इसमें उन्होंने आश्वासन दिया कि मुस्लिम हितों की रक्षा की जाएगी. साथ ही मुस्लिम शिक्षा को बेहतर करने के लिए ढाका में एक विश्वविद्यालय की स्थापना की जाएगी.
डॉ. रशीबेरी घोष समेत कई हिंदू नेताओं ने ढाका विश्वविद्यालय का विरोध किया.
हालांकि, विरोध के बाद भी 1921 में ढाका विश्वविद्यालय बना. जिसके बाद के वर्षों में भी यह शिक्षा से ज्यादा देश के राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों का केंद्र बना.
बेशक हिंदू-मुस्लिम प्रतिद्वंद्विता बंगाल के विभाजन के आसपास केंद्रित थी, लेकिन बाद में बंगाल के मुस्लिम लीग के नेताओं ने विपक्ष को साधने की बजाए हिंदुओं को एकजुट करने की कोशिश की.
इसका कुछ असर भी दिखा और हिंदू नेताओं को अपना दृष्टिकोण बदलना पड़ा.
1913 में लखनऊ में हुए मुस्लिम लीग के वार्षिक सत्र में भारत के स्वराज मांग कार्यक्रम को भी जगह दी गई. यही वह दौर था, जब मुस्लिम लीग के नेता बनने के बाद भी फजलुल हक कांग्रेस में शामिल हो गए और 1914 में कांग्रेस सम्मेलन की अध्यक्षता की.
…और अंग्रेजों के मंसूबों पर फिर गया पानी
1916 में लखनऊ संधि के तौर पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग ने भारत में स्वायत्तता की स्थापना के लिए एकजुट प्रयास किया. यह प्रयास रंग लाया और दोनों कौम राष्ट्रवाद के लिए फिर एक साथ आ गई. इस परिणाम ने ‘अंग्रेजों की फूट डालो शासन करो’ की नीति और मंसूबों पर पानी फेर दिया.
शुरूआत में अंग्रेजों ने अपने प्रशासनिक फायदे के लिए बंगाल को विभाजित किया था.
किन्तु, धीरे-धीरे इसमें राजनीतिक हित अहित शामिल हो गया. पश्चिम बंगाल के व्यापक विरोध के बावजूद 1905 में बंगाल के दो हिस्से किए गए थे. हालांकि, विरोध और दबाव के कारण कहें या फिर अपने निजी फायदे के लिए पर अंग्रेजों को विभाजन वापिस लेना पड़ा.
मगर अंग्रेजों ने एक बार भारत को जाते-जाते पाकिस्तान बंटवारे के रूप में नया घाव दिया!
होने को तो यह दो अलग बातें थीं पर देखा जाए तो हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच गलतफहमियों के बीज बंगाल विभाजन के समय ही बोए जा चुके थे, जिसका परिणाम 1905 से 1911 तक और फिर 1947 से आज तक भोग रहे हैं.
अंग्रेजों ने विभाजन को वापिस ले लिया था, पर जो दूरियां पैदा हुईं थी, उन्होंने एक बार फिर बंगाल को भारत से छीन लिया और पश्चिम बंगाल बना. हिंदू और मुस्लिम लीक के बहुत से राजनेता यह नहीं चाहते थे. आवाम नहीं चाहती थी, पर राजनीति और निजी हितों के आगे किसी का बस नहीं चला.
Web Title: Bengal Partition Results, Hindi Article
Feature Image Credit: permacultureambassador