आने वाली पीढ़ी को शायद ही ये विश्वास हो कि भारत में भूमिहीन लोगों के लिए अपने हिस्से की ज़मीन भी दान की गई थी.
जी हां! अंग्रेजी हुकूमत की बेड़ियों से भारत जब आज़ाद हुआ, उस समय कई समस्याएं मुंह बाए खड़ी थीं.
बंटबारे के बाद लाखों लोग भारत की ओर निकल पड़े थे. जिसमें से हजारों रास्ते में ही मार दिए गए, और जो कुछ भारत पहुंचे, उनके पास रहने के लिए जमीन और खाने के लिए खाने की कोई व्यवस्था नहीं थी.
तब भारत में एक बड़ा तबका अपनी मूलभूत ज़रूरतों के अभाव में जीवन व्यतीत करने पर मजबूर था. इन समस्याओं की एक मूल जड़ थी, एक खास वर्ग का एक कृषि प्रधान देश में ज़मीन जैसी आधारभूत पूंजी और संसाधनों पर एकाधिकार.
आज़ादी के पहले जमींदारी व्यवस्था के चलन के कारण उपजाऊ ज़मीनों पर मालिकाना हक़ बस कुछ लोगों के हाथ में था.
आज़ादी के बाद, जहां इससे निपटने के लिए जमींदारी उन्मूलन और भू-हदबंदी जैसे सरकारी प्रयास किए गए. वहीं, दूसरी ओर दक्षिण भारत में कुछ जगहों पर ज़मीन बंटवारे को लेकर खूनी संघर्ष छिड़ा हुआ था.
ऐसे हिंसाग्रस्त दौर में जमीन की भीषण समस्या का समाधान आचार्य विनोबा भावे ने पेश किया. उन्होंने इसके लिए भू-दान आंदोलन चलाया.
भूमिपतियों से अपनी ज़मीन को दान करने के महज़ आग्रह पर टिका यह आंदोलन सामाजिक परिवर्तन का एक नायाब और अचूक हथियार बना.
ऐसे में लोगों में ‘सबै भूमि गोपाल की, नहीं किसी की मालिकी’ का विश्वास जगा देने वाले इस आंदोलन के बारे में जानना बेहद रोचक रहेगा –
हिंसाग्रस्त पोचमपल्ली की हरिजन बस्ती से मिली प्रेरणा
एक ओर जमीन बंटवारे के सरकारी प्रयास जारी थे, तो दूसरी ओर दक्षिण भारत के तेलंगाना में जमीन बंटवारे को लेकर गोली-बंदूक का हिंसक खेल जारी था.
इस खूनी संघर्ष में लगातार मौत हो रही थीं. ऐसे में इन घटनाओं से आहत विनोबा भावे ने 15 अप्रैल, 1951 को हिंसा में मशगूल इलाकों में पदयात्रा शुरू की.
यात्रा के पहले पड़ाव में वह हिंसक घटनाओं में लिप्त चरमपंथियों से मिले, उनके हित की बात की, सहानुभूति व्यक्त की.
पदयात्रा के दूसरे पड़ाव में 18 अप्रैल 1951 को आचार्य भावे तेलंगाना के नलगोंडा जिले के पोचमपल्ली गांव में रुके, जहां अब तक ज़मीन बंटवारे में लगभग दो दर्जन मौतें हो चुकी थीं.
तेलंगाना में यह ऐसी जगह थी, जहां वाम-चरमपंथ सबसे अधिक सक्रिय था.
विनोबा भावे ने पोचमपल्ली की हरिजन बस्ती का दौरा किया, और वह उनकी व्यथा सुनकर हैरान रह गए. लोगों ने कहा कि उनके पास कुछ नहीं है. वहां 80 परिवार थे, जो 40 एकड़ ज़मीन की मांग कर रहे थे.
यह सुनते ही विनोबा भावे ने इनकी सहायता के लिए वहां खड़े लोगों से सहायता करने को कहा.
इस पर रामचंद्र रेड्डी नाम के एक व्यक्ति ने हरिजनों को 100 एकड़ ज़मीन दान में देने की बात कही. भू-दान आंदोलन की शुरुआत का यह पहला क़दम था, जिससे आचार्य भावे को प्रेरणा मिली.
फिर क्या था विनोबा निकल पड़े पदयात्रा पर, गरीबों और असहायों की सहायता के लिए भूमिपतियों से अपनी भूमि दान करने का अनुरोध करने.
भू-स्वामियों से जमीन का छठा हिस्सा मांगा
रामचंद्र रेड्डी द्वारा जमीन दान दिए जाने के बाद ही विनोबा ने भू-दान के लिए देश भर में पदयात्रा का संकल्प लिया.
भू-दान आंदोलन का उद्देश्य था ज़मीन पर एकाधिकार को समाप्त करना और उस ज़मीन को हरिजनों और आदिवासियों में बांटना. अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए भावे ने इस रचनात्मक आंदोलन का रास्ता अपनाया.
हालांकि उनके मन में यह सवाल आया कि अगर सभी ग़रीबों के लिए कुल 5 करोड़ एकड़ जमीन की आवश्यकता हुई, तो क्या यह भू-दान से पूरा किया जाना संभव है?
बहरहाल, वह सभी असंभव परिणामों को किनारे कर ईश्वर में विश्वास करते हुए इस आंदोलन को सफल बनाने में लग गए. 27 जून 1951 को पदयात्रा शुरू करते हुए वह अपने आश्रम पवनार (महाराष्ट्र) पहुंचे.
विनोबा भावे ने भू-स्वामियों से अपील की कि वे अपनी जमीन का हिस्सा इस नेक काम के लिए दान करें. उनका कहना था कि वो विनोबा को अपना एक बेटा समझकर, उसको भी एक हिस्से का हक़कदार समझें.
भू-दान आंदोलन के 70 दिनों में कुल 12 हज़ार एकड़ ज़मीन दान में मिल चुकी थी. इसके बाद विनोबा लगातार चलते रहे, भू-दान के लिए उनके मालिकों से आग्रह करते रहे. भू-दान आंदोलन में अकेले बिहार से साढ़े छह लाख एकड़ ज़मीन दान में मिली थी. इस ज़मीन पर तीन लाख से अधिक परिवारों को बसाया गया.
पूरे भारत में पदयात्रा के बाद कुल 42 लाख एकड़ ज़मीन दान में मिली, जिसका एक तिहाई हिस्सा तत्काल हरिजनों और आदिवासियों में बांट दिया गया.
भू-दान से उपजा ग्रामदान का भाव
भू-दान आंदोलन के इतिहास में 24 मई 1952 को एक अनोखी घटना हुई.
विनोबा इस दिन उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले के मंगरेठ गांव पहुंचे. इस गांव के लोग भावे के पास पहुंचे और गांव की पूरी ज़मीन ही दान कर दी. उन्होंने कहा कि अब हमारा गांव ही एक परिवार है.
बहरहाल, इस तरह से भू-दान अब ग्रामदान बन चुका था. भू-दान तो एक रचनात्मक विचार था ही, लेकिन ग्रामदान कम अनोखा नहीं था.
ग्रामदान ने जय प्रकाश जैसे समाजवादी को विनोबा भावे के इन विचारों का मुरीद बना दिया. जेपी ने भावे के इस विचार के लिए अपने जीवन दान की घोषणा की.
भू-दान आंदोलन में लगभग सवा लाख ग्रामदानी गांव बने.
विनोबा भावे के इस विचार ने देश और विदेश के कई विचारकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया.
जिस ज़मीन के लिए भाई-भाई आपस में लड़ते, परिवार टूटते और सामाजिक वैमनस्य बढ़ता, उसी ज़मीन को लोगों ने विनोबा को प्रेम से दान में दे दिया.
आज भी कई ऐसे परिवार हैं, जो भू-दान में ज़मीन पाकर अपना जीवन सुव्यवस्थित कर चुके हैं. आज भी आपको देश में कई विनोबा ग्राम मिल जाएंगे, जो गुलजार हैं.
इसमें कोई संदेह नहीं कि देश में भूमिहीनता और गरीबी को दूर करने को लेकर विनोबा भावे का प्रयास मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण था.
चलते-चलते विनोबा के बारे में
भारत में स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता, भू-दान और सर्वोदय आंदोलन के प्रणेता और एक प्रसिद्ध गांधीवादी नेता और भी बहुत कुछ.... विनाबा भावे का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था.
विनोबा भावे में गणित और अध्यात्म का अद्भुत संगम था और वह भगवद् गीता से प्रेरित जनसरोकारी जननेता थे.
महात्मा गांधी की नज़र में पहले सत्याग्रही आचार्य विनोबा भावे ही थे.
विनोबा भावे की दान, त्याग, सेवा और सद्भाव की ऐसी जमीनी कहानियां, हमें अविश्वसनीय, काल्पनिक और असंभव नहीं लगनी चाहिए.
इस आंदोलन के बारे में आपकी क्या राय है?
Web Title: Bhoodan Movement: How Vinoba Made Donate Land To The Landless Indians, Hindi Article
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