15 जुलाई, 1912, उत्तर प्रदेश के मऊ ज़िले के एक छोटे से गांव बीबीपुर में रहने वाले पुलिस अफसर मोहम्मद फारुख़ के घर एक बच्चे का जन्म हुआ. बताया गया कि बेटा पैदा हुआ है.
तभी मोहम्मद फारुख़ ने तय कर लिया था कि बेटे को पढ़ा लिखा कर एक बड़ा अफसर बनाना है.
खैर, बेटे की पैदाइश के बाद उसका नाम रखा गया मोहम्मद उस्मान. अब्बा मोहम्मद फारुख़ अपने बेटे का ये नाम इस्लाम के तीसरे ख़लीफा हज़रत उस्मान गनी के नाम पर रखा.
हज़रत उस्मान गनी अरब में अपनी दिलेरी और हक़ बात की पैरवी करने के लिए मशहूर रहे. हज़रत उस्मान कहते थे कि “कई बार जुर्म माफ़ करना, मुजरिम को ज़्याद ख़तरनाक बना देता है."
कहते हैं कि नाम का असर इंसान पर ज़रूर पड़ता है. मोहम्मद फारूख़ के बेटे पर भी हज़रत उस्मान गनी के नाम का असर आने लगा था. तब यूपी के उस पुलिस अफसर बाप ने नहीं सोचा था कि उनका बेटा भारतीय सेना में ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान बनकर देश के दुश्मनों से आखिरी सांस तक लड़ेगा और देश के लिए अपना जीवन कुर्बान कर देगा.
आइए जानते हैं कहानी उस वीर अफसर की, जिसने 1948 में कश्मीर घाटी को पाकिस्तानी लड़ाकों के चंगुल से छुड़ाया था –
20 साल की उम्र में हुआ रॉयल मिलिट्री एकेडमी में चयन
साल 1932, तब मोहम्मद उस्मान की उम्र महज़ 20 साल थी. ये वो दौर था जब ब्रिटिशर्स का भारत में वर्चस्व था. उस्मान के अब्बा चाहते थे कि बेटा सिविल सर्विस में जाकर खानदान का नाम ऊंचा करे. लेकिन उस्मान के ख़्वाब अब्बा की सोच से काफी अलग थे.
उस्मान जिस दौर में पल रहे थे, वो आज़ादी से काफी पहले का दौर था. माना जाता है कि उस्मान ने तभी सेना में जाकर देश के लिए कुछ करने का जज़्बा दिल में पाल लिया था.
खैर, 20 की उम्र में उस्माल को आरएम, रॉयल मिलिट्री एकेडमी में दाखिला मिल जाता है. तब पूरे भारत में केवल 10 लड़कों को इस मिलिट्री संस्थान में दाखिला मिला था.
भारत की तब अपनी मिलिट्री एकेडमी नहीं थी, इसलिए सेना में जाने वाले युवाओं को ब्रिटिश सरकार इंग्लैंड में रॉयल मिलिट्री एकेडमी भेजकर ट्रेनिंग करवाती थी. हालांकि इंग्लैंड की इस एकेडमी में यह आख़िरी बैच था.
ठीक उसी साल उत्तराखंड के देहरादून में इंडियन मिलिट्री एकेडमी की स्थापना हो गई. उस्मान अपने अब्बा फारूख़ के ख़्वाहिशों से उलट इंग्लैंड आर्मी अफसर बनने के लिए रवाना हो जाते हैं. जहां वह 3 साल तक कड़ी ट्रेनिंग से होकर गुज़रते हैं.
बलूच रेजिमेंट में मिली पहली तैनाती
इंग्लैंड की रॉयल मिलिट्री अकेडमी में प्रशिक्षण लेने के बाद साल 1935 में उस्मान को बलूच रेजिमेंट में सैन्य अफसर के तौर पर पहली तैनाती मिलती है. हालांकि एक साल उस्मान रॉयल मिलिट्री फोर्स में भी अपनी सेवाएं देते हैं. जिसके बाद वो भारत लौट आते हैं.
वर्ल्ड वॉर के दौरान मोहम्मद उस्मान को अफगानिस्तान और बर्मा में भी तैनात किया गया. शायद, उस्मान अपने जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई के लिए तैयार हो रहे थे. जो उन्हें बंटवारे के बाद पाकिस्तानी फौज से लड़नी थी.
बंटवारे से पहले साल 1945 से लेकर साल 1946 तक मोहम्म्द उस्मान 10 बलूच रेजिमेंट की 14वीं बटालियन का नेतृत्व करते हैं. इस दौरान वह मेजर पद पर तैनात रहे.
बलूच रेजीमेंट में तैनाती के दौरान वह युद्ध की हर बारिकियों को सीख रहे थे. चूंकि उन्हें पता था कि भारत-पाक बंटवारे की सरगर्मीयां तेज़ हो गई हैं. किसी भी समय में देश के बंटवारे का ऐलान हो सकता है और सेना को हर मोर्च पर तैयार रहना होगा.
खैर, साल 1947 में भारत-पाक बंटवारा हो जाता है. जिसके बाद दोनों देशों से हज़ारों लोगों का कूच एक जगह से दूसरी जगह होता है.
जिन्ना के बड़े प्रस्ताव को ठुकराया
भारत-पाक बंटवारे के बाद हर चीज़ का बंटवारा हो रहा था. ज़मीन के टुकड़े के साथ ही विभागों और सेना की कुछ रेजिमेंट का बंटवारा किया गया.
बलूचिस्तान पाकिस्तान का हिस्सा बना. इसलिए बलूच रेजिमेंट बंटवारे के बाद पाकिस्तानी सेना का हिस्सा बन गई.
बंटवारे के बाद मोहम्मद उस्मान पर सबसे ज़्यादा प्रेशर आ गया था. यह प्रेशर किसी लड़ाई का नहीं बल्कि एक मुसलमान नाम होने का था. चूंकि उस दौर में सेना में बहुत ही कम मुसलमान थे. जब बंटवारा हुआ तो मोहम्मद अली जिन्ना मुसलमान होने की तर्ज़ पर ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान को पाकिस्तान ले जाना चाहते थे.
जिन्ना जानते थे कि उस्मान एक काबिल और दिलेर अफसर हैं, जो पाकिस्तानी सेना के लिए महत्वपूर्ण साबित होंगे. बावजूद इसके उस्मान ने पाकिस्तान जाने से मना कर दिया. उसके बाद उस्मान को तोड़ने के लिए पाकिस्तानियों की ओर से काफी प्रलोभन दिए गए.
इतना ही नहीं, मोहम्मद अली जिन्ना ने मोहम्मद उस्मान को पाकिस्तानी सेना का चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ बनाने तक का लालच दिया था. हालांकि जिन्ना का ये लालच भी उस्मान को डिगा नहीं पाया. उस्मान ने भारतीय सेना में ही रहने का फैसला किया. जिसके बाद उन्हें डोगरा रेजिमेंट में शिफ्ट कर दिया गया.
बंटवारे के बाद पाकिस्तान ने की कश्मीर में घुसपैठ
साल 1947 में भारत-पाकिस्तान बंटवारे के बाद कश्मीर आज़ाद रहना चाहता था. लेकिन बंटवारे के बाद पाकिस्तान ने बेहद चालाकी से वहां घुसपैठ की और शांत दिख रही कश्मीर घाटी में कोहराम मचा दिया.
पाकिस्तान की मंशा अपनी ताक़त के दम पर कश्मीर में कब्ज़ा करने की थी. उस दौरान कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद की गुहार लगाई.
इस मदद के बाद कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया. भारतीय सेना ने कश्मीर को बचाने के लिए अपने सैनिकों को श्रीनगर भेज दिया. भारतीय सेना का पहला लक्ष्य पाकिस्तानी कबाईलियों से कश्मीर घाटी को बचाना था. शुरुआती झटकों के बाद भारतीय सेना काफी संभल गई थी.
भारतीय सेना ने कश्मीर के आम इलाकों को अपने कब्ज़े में लेना शुरू कर दिया था. वहीं, पाकिस्तानी नौशेरा तक पहुंच गए थे. पुंछ में हज़ारों लोग फंसे हुए थे. जिन्हें निकालने का काम सेना कर रही थी.
उस्मान की बहादुरी ने बनाया उन्हें “ नौशेरा का शेर”
पाकिस्तानी फौज कश्मीर के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा जमाने में सफल रही.
कई अन्य अधिकारियों के साथ ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान कश्मीर में अपनी बटालियन का नेतृत्व कर रहे थे. उस्मान के लिए सब कुछ इतना आसान नहीं था. दुश्मन गुफाओं में छुपकर भारतीय सेना पर हमला कर रहा था.
उस्मान ने झंगड़ क्षेत्र को पाकिस्तानियों के कब्ज़े से आज़ाद कराने की कसम खाई थी. जो उन्होंने पूरी भी की.
ब्रिगेडियर उस्मान ने एक तो पाकिस्तान की सेना में सेनाध्यक्ष बनने की पेशकश को ठुकरा दिया था. उसके बाद ऐसी बहादुरी दिखाई कि एक के बाद एक इलाके दुश्मन सेना के जबड़ों से खींच कर ले आए.
झंगड़ हासिल करने के बाद ब्रिगेडियर उस्मान ने नौशेरा को भी फतह कर लिया था. जिसके बाद उन्हें 'नौशेरा का शेर' कहा जाने लगा.
उस्मान की बहादुरी के आगे पाकिस्तानी सेना नतमस्तक हो गई थी.
ब्रिगेडियर उस्मान की काबिलियत और कुशल रणनीति का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनके नेतृत्व में भारतीय सेना को काफी कम नुकसान हुआ. जहां इस युद्ध में पाकिस्तानी सेना के 900 सैनिक मारे गए, तो वहीं भारतीय सेना के सिर्फ 33 सैनिक शहीद हुए थे.
ब्रिगेडियर उस्मान की बहादुरी से पाकिस्तान इतना बौख़ला गया था कि उसने उस्मान के सिर पर 50 हज़ार रुपए का ईनाम भी रख दिया.
इसके बाद झंगड़ पर कब्ज़े के लिए पाकिस्तानी सेना ने फिर से चढ़ाई की और 3 जुलाई साल 1948 को ब्रिगेडियर उस्मान 36वें जन्मदिन से 12 दिन पहले ही शहीद हो गए.
ब्रिगेडियर पद पर रहते हुए देश के लिए शहीद होने वाले उस्मान इकलौते भारतीय थे. उनके जनाज़े में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु भी शामिल हुए थे.
युद्ध में अनन्य वीरता और शौर्य का प्रदर्शन करने के लिए उस्मान को सर्वोच्च सैन्य सम्मान महावीर चक्र से नवाज़ा गया.
Web Title: Brigadier Mohammad Usman: A Towering Hero of The 1947 Indo-Pak War, Hindi Article
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