भारतवर्ष, जिसके सदियों से टुकड़े होते आए. वह बंटता गया और देश बनते गए. यह जमीन बंट-बंट कर बस थोड़ी सी ही रह गई थी, जब अंग्रेजों ने अपनी हुकूमत हम पर तान दी. नतीजतन देश फिर एक बार बंटवारे के दोराहे पर आ खड़ा हुआ. भारत-पाकिस्तान बंटवारा तो किसी त्रासिदी से कम नहीं था, पर इसके पहले हुआ बंगाल विभाजन भी देश की आवाम को झंकझोर देने वाला था.
देखा जाए तो 1905 में हुए बंगाल विभाजन के बाद ही हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच जातीय संघर्ष बढ़ें और गलतफहमियां पैदा होना शुरू हुईं, जिसे भारतीय तो स्वीकार नहीं करना चाहते थे.
किन्तु, अंग्रेजों को इससे राहत मिली!
बहरहाल बंगाल के टुकड़े होने से बचाने के समाजसेवियों ने एकजुट होकर प्रयास किया, लेकिन राजनीति के शिकार बंगाल के हिस्से हुए. इसके साथ ही बंगाल का एक पूरा तबका बंट गया. उस दिन केवल जिलों और राज्यों की सीमाएं नहीं खिंची थीं, बल्कि लोगों के दिलों में जातीय घृणा की लकीरें भी उभरने लगी थीं.
तो चलिए जानते हैं बंगाल विभाजन से उपजे उस कटु सत्य को, जिसने हिन्दुओं और मुस्लिमानों के मन में गलतफहमियों के बीज बो दिए!
राजनीति के लिए हुआ बंगाल विभाजन!
अंग्रेजों का शासन भारत पर बिना किसी परेशानी के चल रहा था. पर अंदर ही अंदर विद्रोह की भावनाएं जागने लगी थीं, जो जब-तब आंदोलन, धरना प्रदर्शन और हिंसक घटनाओं के रूप में सामने आ रहीं थीं.
बंगाल आजादी की क्रांति का महत्वपूर्ण हिस्सा था!
उस समय यहां की जनसंख्या 7 करोड़, 85 लाख थी. उस समय के बंगाल में बिहार, उड़ीसा और आज का बांग्लादेश शामिल था. इस लिहाज से बंगाल प्रेसीडेन्सी उस समय बाकी सबसे बड़ी थी.
तत्कालीन गवर्नर-जनरल लॉर्ड कर्ज़न ने तर्क दिया कि इतने बड़े प्रांत को कुशल प्रशासन देना संभव नहीं है, इसलिए इसका बंटवारा हो जाना चाहिए. हालांकि, इस तर्क के पीछे असल कारण था कि स्वदेशी एवं बहिष्कार आंदोलन का सूत्रपात यहीं से शुरू हुआ था, जिसका असर धीरे-धीरे उत्तरपूर्वी भारत में भी फैलने लगा था.
राजनीतिक जागृति को कुचलने के लिए कर्ज़न ने बंगाल विभाजन को स्वीकृति दी.
पश्चिम बंगाल में ‘शोक दिवस’
बंगाल विभाजन के बाद पूर्वी बंगाल बनने का तो स्वागत किया गया.
किन्तु, पश्चिम बंगाल में यह दिन शोक दिवस के रूप में मनाया जाता है. बंगाल विभाजन की खबर जब आम जनता तक फैली, तो वे इसके राजनीतिक कारणों को नहीं समझ पा रहे थे.
कलकत्ता के वकीलों, अंग्रेजी सरकार के मुलाजिमों और वकीलों से इने धार्मिक रूप से पेश किया. जबकि, ज़मीनदार, राजनेता, उद्योगपति और उच्च जाति के शिक्षितहिंदू समुदायों ने बंगाल के विभाजन के खिलाफ की. ऊपरी वर्ग के हिंदू कांग्रेस के नेतृत्व में बंगाल विभाजन के विरोध में खुल कर सामने आए.
कोलकाता टाउन हॉल में कासिम बाजार के ज़मीनदार महाराजा महेंद्र चंद्र नंदी की अध्यक्षता में 7 अगस्त 1905 को विरोध बैठक आयोजित हुई. सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, कृष्ण कुमार मिश्र, पृथ्वीशचन्द्र राय जैसे बंगाल के नेताओं ने ‘बंगाली’, ‘हितवादी’ एवं ‘संजीवनी’ जैसे अख़बारों में अंग्रेज सरकार के फैसले की निंदा की.
विरोध के बावजूद कर्ज़न ने 19 जुलाई, 1905 ई, को ‘बंगाल विभाजन’ की घोषणा कर थी.
विरोध बैठक के बाद आंदोलन हुए, धरने प्रदर्शन किए गए पर 16 अक्टूबर, 1905 को बंगाल विभाजन लागू कर दिया गया.
विभाजन विरोधी आंदोलन की घोषणा
‘विरोध बैठक’ में स्वदेशी आंदोलन या विभाजन विरोधी आंदोलन की घोषणा की गई, जिसमें करीब 1 लाख लोग शामिल हुए. 22 सितंबर को रवींद्रनाथ टैगोर ने रणबीबंधन कार्यक्रम किया. विभाजन के दौरान जनता को एक करने के लिए उन्होंने बांग्लादेशी राष्ट्रीय गान ‘माई सोनार बांग्ला’ लिखा.
इसमें जहां उच्च जाति के हिंदू विभाजन के विरोध में कलकत्ता में जमा हो रहे थे वहीं, पूर्वी बंगाल में निचली जाति के हिन्दुओं ने विभाजन को स्वीकार कर लिया. इसके पीछे मूल कारण आर्थिक समृद्धि लाना था.
दरअसल बंगाल के विभाजन से पहले जूठ वहां की आर्थिक स्थिति का मजबूत आधार था. पूर्वी बंगाल के अधिकांश किसानों ने जूट के लिए पश्चिम बंगाल के जमीदारों से कर्ज लिया था, जिसे विभाजन के बाद नहीं चुकाया गया. साथ ही 1906-07 में जूट की कीमतें दोगुनी हो गईं.
इससे पूर्वी बंगाल में गरीब तबका मध्यम वर्ग में आ गया.
1906 में मुस्लिम लीग का गठन
मुस्लिमों ने पहले तो बंगाल विभाजन का विरोध किया, पर बाद में उसे स्वीकार कर लिया. इस संदर्भ में नवाब सलीमुल्लाह की भूमिका काफी अहम थी. बंगाल के विभाजन के बाद 1906 में मुस्लिम लीग का गठन हुआ. इसने मुस्लिम अधिकारों की आवाज सशक्त की. मोहम्मद साहित्यिक समाज, मुस्लिम साहित्य समिति, मोहम्मद प्रांतीय संघ, और विभिन्न मुस्लिम संगठनों ने खुलकर बंगाल विभाजन का स्वागत किया.
हालांकि, यहां भी हिंदुओं की तरह एक तबका ऐसा था, जो विभाजन के विरोध में था. इस विरोधी तबके के मुस्लिम कलकत्ता के जमींदार थे या कांग्रेस के राजनेता. मुस्लिम विरोध को दर्ज करवाने में भारतीय मुस्लिम संघ की भूमिका उल्लेखनीय रही.
हालांकि, इस मंच पर आने वाले मुस्लिमों की संख्या बहुत कम रही.
विभाजन पर स्वदेशी आंदोलन का रूख
बंगाल विभाजन के साथ ही स्वदेशी आंदोलन का जन्म हुआ.
17 जुलाई 1905 को सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने जो बैठक बुलाई थी, उसी में स्वदेशी आंदोलन की नींव रखी गई. आंदोलन के तहत विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के कारण घरेलू उद्योग की मांग बढ़ गई. बुनाई उद्योग, रेशम बुनाई पारंपरिक शिल्प का पुनरुद्धार शुरू हो गया. 1906 में बंगालक्ष्मी कपास मिल स्थापित हुई.
किन्तु, परेशानियां यहां भी कम नहीं थी. स्वदेशी आंदोलन को जारी रखने के दौरान दो पार्टियों का उदय हुआ. एक वो, जो सकल घरेलू उद्योगों को मजबूत बना रही थी और दूसरी, वो जिसमें युवा शामिल थे. वे हिंसक तरीकों से विदेशी सामानों का बहिष्कार कर रहे थे.
1908 में क्रांतिकारियों का एक समूह अंग्रेज मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड को मारने के लिए पहुंचा, पर इस घटना में एक ब्रिटिश दपंति की हत्या हो गई. साथ ही इस घटना में शामिल प्रफुल्ल चकी और क्षुदिराम जैसे क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया. यदि इन हिंसक घटनाओं से परे देखा जाए, तो स्वदेशी आंदोलन ने एक बार फिर बंगाल विभाजन के दौरान उपजे हिंदू-मुस्लिम विरोध को शांत कर एकता की अलख जगाने का प्रयास किया.
1908 में महात्मा गांधी ने कहा कि ‘भारत की असली जागृति बंगाल के विभाजन के बाद ही आई है. यह विभाजन ब्रिटिश साम्राज्य का विभाजन करेगा.’
बंगाल से उपजा भारतीय राष्ट्रवाद धीरे-धीरे पूरे देश में फैल गया.
विभाजन के बाद ब्रिटिश सरकार
बंगाल विभाजन के बाद भी अंग्रेजी हुकूमत के मंसूबे पूरे नहीं हो सके थे. स्वदेशी आंदोलन ने देश को एक सूत्र में बांधना शुरू कर दिया था. नतीजतन 1905 के अंत तक लॉर्ड कर्ज़न को वापिस इंग्लैंड बुला लिया गया.
बंगाल में उपजे सांम्प्रदायिक तनाव को नियंत्रित करने में असफल बंगाल के फुलर से बिग लिंट मिंटो खफा थे, इसलिए उनसे इस्तीफा ले लिया गया. बंगाल विभाजन के बाद हिंदू-मुस्लिम दंगों का दौर चलता रहा. जब-तब हिंसक घटनाओं की खबरें आती रहीं. क्षेत्र में आतंकवादी गतिविधियों में वृद्धि हो रही थी.
आखिर साल के अंत तक ब्रिटिश सरकार बंगाल को एक करने के बारे में सोचने लगी.
बंगाल विभाजन को सार्वजनिक घोषित करने के बाद वे परिणाम भुगत चुके थे, इसलिए उन्होंने 1910 में गुप्त रूप से बंगाल विभाजन को समाप्त करने की योजना बनाई. पर तभी ब्रिटिश सम्राट और महारानी के 1911 में भारत आने की सूचना पहुंची. इस दौरान लॉर्ड क्यूरी को भारत का सचिव बनाया गया.
परिणामस्वरूप भारत की प्रशासनिक व्यवस्था पूरी तरह बदल गई.
हिंदू-मुस्लिम एकता का विभाजन
बंगाल विभाजन का विरोध करना अपनी जगह सही था.
किन्तु, इस विरोध को धार्मिक स्पर्श दे दिया गया. सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने स्पष्ट कहा कि बंगाल का विभाजन हिंदुओं का अपमान है और मुसलमानों की मनमानी. जबकि कहा जाता है कि बंगाल विभाजन के कारण ही पूर्वी बंगाल के निचले तबके के हिन्दुओं की प्रगति संभव हो पाई थी.
सुरेंद्र नाथ ने जानबूझकर स्वदेशी आंदोलन अथवा विभाजन विरोधी आंदोलन का शपथ ग्रहण समारोह मंदिर में आयोजित किया. हिंदू संगीतकारों ने ‘वंदे मातरम’ राष्ट्रीय गीत के रूप में गाया. हालांकि, इसमें कोई हिंदुत्ववाद नहीं दिखता पर विचार करने वाला पक्ष यह है कि गीत बंकिमचंद्र चटोपाध्याय की लिखी कविता थी. जिसे उन्होंने आनंदमठ में देवी दुर्गा के लिए लिखा था.
चूंकि यह देवी गीत था इसलिए, कहीं न कहीं मुस्लिमों की भावनाएं आहत हुईं क्योंकि इसे राष्ट्रीय गीत के रूप में पेश किया गया. ऐसे में एक बार के लिए ऐसा लगा कि विभाजन विरोधी आंदोलन अंग्रेजी सरकार के खिलाफ नहीं, बल्कि सांप्रदायिक आंदोलन के रूप में चलाया जा रहा है.
इसी दौर का फायदा उठाते हुए ब्रिटिश सरकार के कुछ विकास कार्यक्रम शुरू किए और मुस्लिमों ने उसका लाभ लिया. नतीजतन 1906-07 में कमिला, ढाका, पब्ना, राजशाही, मयमसिंह सहित कई स्थानों पर सांप्रदायिक दंगे हुए और दोनों ही संप्रदायों के लोग मौत के घाट उतार दिए गए.
बंगाल के विभाजन से पहले सभी ब्रिटिश विरोधी आंदोलनों में हिंदू-मुस्लिम एकता भारतीय शक्ति का प्रतीक थी, जो विभाजन विरोधी आंदोलन के बाद टूट गई.
विभाजन खत्म होने के बाद के जख्म
बंगाल विभाजन से न केवल हिंदुओं और मुस्लिमानों में दूरियां आ गईं थी, बल्कि खुद हिंदु और मुस्लिम दो गुटों में बंट गए थे. हिंदुआ का निचला तबका यह समझ चुका था कि नया राज्य यानि नए अवसर और आर्थिक विकास का नया मौका.
जबकि मुस्लिमों का एक तबका पूर्वी बंगाल के पक्ष में इसलिए था क्योंकि वहां उनकी बाहुल्यता ज्यादा थी.
जबकि, विभाजन के विरोध में उतरे हिंदुओं की समस्या हिंसक युवाओं को रोक पाने में नाकामी थी, जो बाद में हिंदू-मुस्लिम दंगों के रूप में सामने आई. इस बीच अंग्रेज हुकूमत ने लगातार होते विरोध, आंदोलन, हिंसक घटनाओं के कारण बंगाल विभाजन प्रस्ताव को 1911 में वापिस ले लिया.
किन्तु, इन 6 सालों में जो हुआ वो अपेक्षाओं से बिल्कुल अलग था.
पूर्वी बंगाल में आर्थिक स्थिति बेहतर तो हुई पर कुछ समय के बाद रूक गई. जबकि, कोलकाता जैसे विभिन्न शहरों का विकास तेजी से हुआ. आर्थिक पहलुओं को किनारे कर दिया जाए, तब भी बंगाल ने इन कुछ सालों में सामाजिक एकता को खो दिया.
भाईचारे पर वार हुए, देश से ज्यादा संप्रदाय की चिंता हुई और यहां से उपजी हिंदू-मुस्लिमों की दरार धीरे-धीरे पूरे देश को बांटती चली गई.
दवाब में आकर अंग्रेजों ने बंटवारे को भले ही खत्म कर दिया, पर वे जो बांटना चाहते थे वो बंट चुका था! उस वक्त दोनों कोमों को मिले जख्मों से आज भी खून रिस रहा है और रिसता ही जा रहा है…
क्या इस घाव को भरने की कोशिश की जा सकती है!
Web Title: Community Unity Ended with Partition of Bengal, Hindi Article
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