ये बात गुलाम भारत की है. भारत अंग्रेजों की गिरफ्त में जकड़ा हुआ था और अपनी स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारी आंदोलन जारी थे.
उस समय भारत में लगभग 500 के आसपास छोटी-बड़ी रियासतें थीं. उनके पास भी अपनी सेना थी. इधर अंग्रेजों ने भी भारतीय कॉलोनी में अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए भारतीय लोगों को अंग्रेजों के मातहत लाकर एक सेना बना डाली.
बहरहाल, अंग्रेजों का साम्राज्यवाद चरम पर था. इसी का दुष्परिणाम हुआ प्रथम विश्व युद्ध. इस युद्ध में गुलाम भारत की सेना ने भी भाग लिया.
प्रथम विश्व युद्ध में भारत के 6 महान सपूतों को ब्रिटेन के सर्वोच्च वीरता सम्मान विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया था.
उन्हीं में से एक थे दरवान सिंह नेगी, जिन्होंने अपनी बेमिसाल बहादुरी से इस सम्मान को प्राप्त कर इसकी प्रतिष्ठा को और ऊंचा कर दिया.
तो आइए, जानते हैं प्रथम विश्व युद्ध में विक्टोरिया क्रॉस जीतने वाले इस पहले भारतीय योद्धा की कहानी –
भारत से फ्रांस में हुई तैनाती
अब तक भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन लगभग समाप्त हो गया था. इंग्लैंड की महारानी ने भारतीय उपनिवेश पर खुद का नियंत्रण स्थापित कर लिया.
इसी समय 4 मार्च 1883 को गढ़वाल के करबर्तिर गांव में दरवान सिंह नेगी का जन्म हुआ.
इनके पिता कलम सिंह नेगी एक किसान थे. हालांकि इनके परिवार के बारे में ज्यादा कुछ नहीं पता चलता, लेकिन हां! इन्होंने अपनी शुरूआती पढ़ाई एक स्थानीय स्कूल से की और फिर अपने पिता के साथ ये खेतीबाड़ी में लग गए.
हालांकि इस काम में इनका मन नहीं लगा और 4 मार्च 1902 को ये सेना में भर्ती हो गए.
दरवान सिंह जब अपने 31वें बसंत में थे, तभी 28 जुलाई, 1914 को पहला विश्व युद्ध शुरू हो गया. इस समय दरवान सिंह 39वीं गढ़वाल राइफल्स की पहली बटालियन में नायक के पद पर तैनात थे.
सो, 9 अगस्त 1914 को इन्हें बुलावा आदेश प्राप्त हुया और 20 अगस्त को ये लांसडाउन मुख्यालय से अपनी यूनिट संग निकल पड़े.
3 सितंबर को कराची होते हुए 27 अक्टूबर 1914 को फ्रांस के लिलर्स पहुंचे. जहां इन्हें जर्मन सैनिकों को खदेड़कर ब्रिटिश ट्रैंच पर दोबारा से अपना कब्जा जमाना था.
इन्हें अपनी रेजीमेंट के साथ फ्रांस में फेस्तुबर्त के पास तैनात कर दिया गया.
जर्मन दुश्मन होशियार थे, इधर दरवान सिंह भी पूरी बहादुरी के साथ अपने सिर पर कफन बांधकर निकले थे.
सिर और बांह में हुए घाव, लेकिन...
और फिर 23 नवंबर, 1914 को उनकी रेजीमेंट और जर्मन सेनिकों के बीच ब्रिटिश इलाकों को हासिल करने के लिए जंग छिड़ गई. जिन पर पहले से ही ब्रिटेन के सैनिक अपना हक खो चुके थे.
अगले दो दिन तक दोनों सेनाओं के बीच भयंकर लड़ाई लड़ी गई. कुछ हिस्सों पर भारतीय सैनिक अपना कब्जा करने में सफल रहे. वहां भारी गोलीबारी जारी थी.
बम धमाकों और भीषण हथियारों की धमक के बावजूद दरवान सिंह आगे बढ़ते रहे.
इस दौरान उन्हें दुश्मन की गोली का कई बार सामना करना पड़ा, लेकिन वो डटे रहे और पीछे नहीं हटे. दो बार उनका सिर भी घायल हो चुका था, और गोलियों से छलनी उनकी बांह से खून की धार बह रही थी.
सिर और बांह में घाव की पीड़ा को अनदेखा करते हुए दरवान सिंह नेगी आगे बढ़ते रहे.
इस दौरान इनके कई साथी घायल हुए और शहीद हो गए. और इन्होंने दुश्मनों को खदेड़ दिया. इस युद्ध में दरवान सिंह पहले सैनिक थे, जिन्होंने जर्मन सैनिकों से ब्रिटेन की जमीनों को आजाद कराया.
किंग जॉर्ज पंचम ने प्रदान किया विक्टोरिया क्रॉस
साहस और उत्साह इस भारतीय योद्धा में कूट-कूट कर भरा हुआ था. लिहाजा, ये लड़ाई ज्यादा दिनों तक नहीं चली और 23-24 नवंबर की रात को ही दरवान सिंह ने खाइयों में घुसकर ब्रिटिश इलाकों को जर्मन सैनिकों से मुक्त करा दिया.
इस प्रकार, दरवान सिंह नेगी को उनकी अनुपम वीरता और अदम्य साहस के लिए लंदन गैजेट में इनके नाम आने से दो दिन पहले 5 दिसंबर, 1914 को सेंट ओमर, फ्रांस स्थित जनरल मुख्यालय में किंग जॉर्ज पंचम ने अपने हाथों से विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया.
विक्टोरिया क्रॉस पदक देते समय, जब किंग जॉर्ज पंचम ने उनसे पूछा कि "मै आपके लिए क्या कर सकता हूं?" तब बेहद साधारण जवाब में दरवान सिंह ने कहा कि उनके क्षेत्र में कोई भी स्कूल नहीं है, अगर आप करणप्रयाग (चमोली जिला, उत्तराखंड) में एक माध्यमिक विद्यालय शुरू करा सकते हैं! और उनके इस अनुरोध को तुरंत स्वीकार कर लिया गया
... और गढ़वाल रेजिमेंट के सुपुर्द कर दिया पदक
इससे पहले 23 नवंबर 1914 को दरवान सिंह को लेफ्टिनेंट के पद पर कमीशन किया गया. और इसी के साथ जनवरी 1915 को इन्होंने भारत में अपनी सैन्य सेवाएं देनी शुरू कर दीं.
9 अगस्त 1915 को इन्हें सूबेदार (कप्तान) के पद पर पदोन्नत कर 1/18वें गढ़वाल राइफल्स में स्थानांतरित कर दिया गया.
इसके बाद की अन्य विदेशी लड़ाईयों में भी इन्होंने अपने अदम्य साहस का परिचय दिया. इन्होंने इराक और कुर्दिस्तान में सैन्य सेवाएं दीं.
लगभग 18 साल तक सेना में काम करने के बाद 1 फरवरी 1920 को ये सेवानिवृत्त हो गए.
इन्हें सेना में उत्कृष्ट योगदान और युद्ध में अदम्य साहस दिखाने के लिए कई पुरस्कारों और उपाधियों से नवाजा गया.
1926 में इन्हें बहादुर की उपाधि से सम्मानित किया गया. सन 1914 में इन्हें स्टार मिला, और ब्रिटिश युद्ध पदक 1914-20, विजय पदक 1914-19, सामान्य सेवा पदक 1918-62, और 1937 में जॉर्ज पंचम कोरोनेशन पदक से इन्हें सम्मानित किया गया.
1911 तक भारतीय सैनिकों को विक्टोरिया क्रॉस सम्मान नहीं दिया जाता था. साल 1914 की तारीख 7 दिसंबर को इस सैन्य सम्मान का राजपत्र पर नोटिफिकेशन जारी किया गया.
दरवान सिंह नेगी प्रथम विश्व युद्ध में 11 राष्ट्रमंडल देशों के 175 विक्टोरिया क्रॉस प्राप्तकर्ताओं में से एक भारतीय सैनिक बने. जिनकी वीरता की कहानियों और फोटोज को यूनाइटेड किंगडम (यूके) सरकार के विदेशी और राष्ट्रमंडल कार्यालय द्वारा पहले विश्व युद्ध शताब्दी कार्यक्रम के एक हिस्से के रूप में 20 जून 2016 को डिजिटलीकरण किया गया.
प्रथम विश्व युद्ध की शुरूआत के लगभग 36 साल बाद सन 1950 में भारत के इस महान सपूत की मौत हो गई.
अपनी मौत से पहले इन्होंने अपना विक्टोरिया क्रॉस पदक अपनी रेजिमेंट के सुपुर्द कर दिया था. ये आज भी 39वें गढ़वाल राइफल्स अधिकारी मेस, जीआरआरसी लांसडाउन में इनके अदम्य साहस की दास्तान सुनाता है.
Web Title: Darwan Singh Negi: First Indian Victoria Cross Recipient of WWI, Hindi Article
Feature Image Credit: 45enord/voicesofwarandpeace