फरवरी-मार्च 2018 के ‘द इकोनॉमिस्ट’ के संस्करण में जिस मुद्दे को कवर स्टोरी बनाया गया है, वह मुद्दा है रूस द्वारा पश्चिमी देशों के लोकतंत्र में हस्तक्षेप करना. इस संस्करण में बताया गया है कि किस तरह रूस डिजिटल प्रोपोगंडा के तहत पश्चिमी देशों के चुनाव में दखलअंदाजी कर रहा है.
इन पश्चिमी देशों में जो 2 सबसे बड़े देश बताए गए हैं, वह ब्रिटेन और अमेरिका है. किन्तु, यदि इतिहास की कुछ घटनाओं को उठाकर देखा जाए तो यह दोनों देश ही दुनिया के कई देशों में लोकतंत्र को खत्म करने के इल्जामों से घिरे हुए नजर आते हैं.
इनमें ईरान का उदाहरण सबसे ऊपर आता है, जहां इन दोनों ही देशों ने अपनी महत्वकांक्षाओं के लिए ईरान के लोकतंत्र का गला घोंट दिया था.
ईरान में 1951 के राष्ट्रीयकरण कार्यक्रम और संसदीय बदलाव के दौरान जो हुआ उसे रोकने के लिए ब्रिटेन और अमेरिका ने जो किया था, उससे खींची दीवारें आज भी वैसे की वैसे खड़ी हैं.
तो आईए जानते हैं कैसे अमेरिका ने बदला था ईरान के लोकतंत्र का भविष्य-
ईरान में लोकतंत्र की शुरूआत
ईरान में लोकतंत्र की प्रक्रिया कई अंतरालों से होकर गुजरी. बीसवीं सदी से शुरू हुए ईरान के लोगों के लोकतंत्र के संघर्ष में कुछ ना कुछ घटक रोड़ा बन कर सामने आते ही रहे. कभी देश के सत्ताधारी लोग ही लोकतंत्र के फलने-फूलने में बड़ी बाधा बने तो कभी यह काम विदेशी ताकतों ने किया.
20वीं सदी की शुरुआत की बात की जाए, तो यह वह समय था, जब मॉडर्न ईरान की नींव रखी जा रही थी. 1986 ईरान के संविधान में संसद का प्रावधान किया गया था. इससे सत्ता ईरान के शाह के हाथों से निकलकर लोगों के हाथों में पहुंची.
यही वक्त था जब सभी पार्टियां आधिकारिक रूप से ईरान की मजलिस यानी संसद के चुनाव में हिस्सा लेने के लिए संगठित हुई थी. इनमें डेमोक्रेट्स, मॉडरेट्स सोशलिस्ट, और दो छोटी पार्टियां द लिबर्लस और यूनियन एंड प्रोग्रेस भी थे.
हालांकि, कुछ ही समय बाद फिर से संसद का इस्तेमाल केवल एक रबर स्टैंप के तौर पर किया जाने लगा था और शक्तियां ईरान के शाह के हाथों में एकत्रित होने लगी थी. 1920 के दशक में जब संविधान कमजोर पड़ने लगा तो लोगों की भी शक्तियां घटने लगी.
इसी के साथ-साथ ईरान में राजशाही ने अपना परचम फिर से लहराया शुरू कर दिया.
ईरान में मजाक के तौर पर एक कहावत कही जाती है, जो कुछ इस तरह है. “मुल्लों के आने से पहले खुले में शराब पी जाती थी और निजी तौर पर नमाज पढ़ी जाती थी, अब खुले में नमाज पढ़ी जाती है और निजी तौर पर शराब पी जाती है.”
इस कहावत से समझा जा सकता है कि ईरान में जब से खोमिनी का शासन शुरू हुआ है और सत्ता का मुख्य केंद्र कुछ धार्मिक गुरुओं के हाथों पड़ गया है, तब से लोगों की जिंदगी में कितना बदलाव आया. लोगों की जिंदगी और निजता से जुड़े फैसले एक सोच पर आधारित रहते हैं.
किन्तु, खोमिनी के सत्ता में आने के पहले की कहानी ही ईरान के इस हालात की बड़ी वजह है.
कौन थे मोहम्मद मोसाद्देक!
दरअसल, इस कहानी की शुरुआत 1950 के दशक से होती है, जब ईरान में लोगों द्वारा लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई सरकार सत्ता में थी और प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसाद्देक प्रधानमंत्री के रूप में उनके नेता के तौर पर नियुक्त थे.
मोहम्मद मोसाद्देक जो 1921 में पढ़ाई के बाद ईरान लौटे थे वो ईरान के रेजा के वित्त मंत्री के पद पर नियुक्त किए गए. 1924 में उनकी छवि गैर राजशाही और पूरी तरह देश में लोकतंत्र लाने वाले नेता के तौर पर बन गई थी.
वह धर्मनिरपेक्षता का पालन करते थे. उन्होंने ईरान की संसद में भी जगह हासिल कर ली थी, लेकिन 1928 के राजनीतिक उठापटक के दौर में उन्हें अपनी सीट गंवानी पड़ी. 1941 में जब शाह को अपना तख्त छोड़ना पड़ा तो उस समय मोहम्मद मोसाद्देक फिर राजनीति में एक्टिव हुए.
मोसाद्देक 1945 में ईरान की संसद के लिए एक बार फिर चुन लिया गया और 1950 आते-आते वो ईरान के प्रधानमंत्री के पद तक पहुंच गए.
मोहम्मद मोसेद्देक वाली सरकार ने तेल और तेल कंपनियों को सरकार के तहत लेने का फैसला किया था यानी कि उनके राष्ट्रीयकरण की योजना बनाई थी, जिससे विंस्टन चर्चिल के नेतृत्व वाली ब्रिटेन सरकार को खासा नुक्सान हो सकता था.
यूं तो ईरान कभी किसी देश का गुलाम नहीं रहा लेकिन उसके प्राकृतिक स्त्रोत हो जैसे तेल उत्पादन आदि पर विदेशी हुकूमत को नकारा नही जा सकता है. प्रथम विश्व युद्ध से पहले विंस्टन चर्चिल ने ईरान की एंग्लो प्रशियन ऑयल कंपनी के काफी स्टेक्स बड़ी छूट पर खरीदे थे.
इस फैसले से ब्रिटेन को काफी फायदा पहुंचता था. लेकिन जब ईरान के प्रधानमंत्री ने उन कंपनियों और तेल उत्पादन का राष्ट्रीयकरण करने का फैसला लिया तो चर्चिल को दुनिया भर में ब्रिटेन के दबदबे के कम होने का डर सताने लगा.
जब सोवियत यूनियन और अमेरिका हुए आमने-सामने
1950 का दौर रहा होगा, जब ताकत की आजमाइश के लिए सोवियत यूनियन और अमेरिका एक दूसरे के आमने सामने खड़े थे. यह दोनों देश शीत युद्ध में किसी भी तरह एक-दूसरे के दबदबे को कम करने के लिए संघर्ष में रहते थे.
दुनिया के देशों को किसी भी तरह एक दूसरे के पाले में जाने से रोकते थे. हालांकि, ईरान उस समय न तो रूस का समर्थक था और ना अमेरिका का वह भारत और कई और अफ्रीकी देशों की तरह गुट निरपेक्ष नीति का समर्थक था.
न र्सिफ ईरान बल्कि अमेरिका को भी ईरान में इतनी दिलचस्पी नहीं थी लेकिन यह सब जल्द ही बदलने वाला था.
ब्रिटेन को लगातार ये बात खटक रही थी कि ईरान तेल का राष्ट्रीयकरण करने जा रहा है, ईरान के इस फैसले के खिलाफ ब्रिटेन इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस भी पहुंचा, लेकिन वहां भी उसे नाकामयाबी ही हासिल हुई और फैसला ईरान के हक में आया.
ये मुद्दा युएन में भी उठा जहां ईरान के प्रधानमंत्री ने कहा कि जिस तरह ईरान के पहाड़, नदियां और मिट्टी ईरान के लोगों की है ठीक उसी तरह ईरान के तेल पर भी ईरान के लोगों का हक है.
...और ब्रिटेन ने अमेरिका को भड़काना शुरू कर दिया
ऐसे हालातों में ब्रिटेन ने अमेरिका को ईरान के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया और उसके रूस की तरफ झुकाव के दावे पेश किए जाने लगे. शुरूआत में हैरी ट्रुमन की सरकार ने ईरान के खिलाफ कोई सैन्य कार्यवाही के लिए मना कर दिया.
किन्तु, बाद में जब अमेरिका और ब्रिटेन में सत्ता बदली और आसनहोवर और चर्चिल अपने-अपने देश के नेता के तौर पर उभरे तो ब्रिटेन का अमेरिका का आसान हो गया.
मोहम्मद मोसाद्दक की चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार के तख्तापलट में ब्रिटेन औऱ अमेरिका ने वहीं नुस्खे अपनाए जो अब द इकनॉमिस्ट के मुताबिक रूस पश्चिमी देशों के लोकतंत्र को खतरे में डालने के लिए आजमा रहा है.
अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए ने इसमें अहम भूमिका निभाई थी, सीआईए ने अमेरिका की फॉरेन पॉलिसी के तहत ये काम किया था. सीआईए ने तख्तापलट के लिए नेताओं और ईरानी समाज के असामाजिक तत्वों को बुरा माहौल बनाने के लिए खरीदा.
ईरान के लोगों के बीच उनका सरकार के प्रति गलत भावनाऐं पैदा कर उनका भरोसा तोड़ा गया, उन्हें गलत जानकारी दी गई.
2013 में खुद सीआईए द्वारा यह मान लिया गया की उन्होंने ईरान सरकार के तख्तालट में अहम भूमिका निभाई थी. हालांकि, ईरान और अमेरिका के रिश्ते आज भी उतने मधुर नहीं हैं और हाल के समय में ऐसी कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती है.
आज बार-बार अमेरिका पर उसकी गलत विदेशी नीतियों को लेकर सवाल उठते रहते हैं. बावजूद इसके ईराक और सीरिया में, जो हुआ और हो रहा है उसे देखकर नहीं लगता की अमेरिका और ब्रिटेन जैसे बड़े देशों ने ईरान की गलती से कोई सबक सीखा है!
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Web Title: Did America Break The Foundation of Iranian Democracy, Hindi Article
Representative Feature Image Credit: rarephoto