सिर का दर्द हो या ब्रेन ट्यूमर. ऐसा बहुत कम होता है, जब किसी रोग की दवा न मिले. दवा नहीं तो सजर्री. नहीं तो कम से कम बीमारी के प्रभाव को कम करने का तरीका तो मिल ही जाता है.
किन्तु, क्या आपने कभी सोचा है कि वह दौर कैसा रहा होगा, जब लोगों के पास आधुनिक इलाज की व्यवस्था नहीं होती थी! मानव को रोग जन्म से ही मिले, पर समय के साथ-साथ उन्हें दूर करने के साधानों को भी खोजा गया.
पहले यूनानी चिकित्सा, फिर हर्बल और इसके बाद आयुर्वेद, होम्योपैथी और आखिरी में एलोपैथी का विकास हुआ. आधुनिक मेडिकल सुविधाओं के इतिहास पर गौर करने के लिए हमें लंबे सफर पर निकलना होगा.
फिलहाल बात उस दौर की, जब इलाज के लिए इंसानी लाशों तक को खा लिया जाता था—
इंसानी खून का सीरप की तरह प्रयोग
यह बात है 1600-1700 ईस्वी की. जब यूरोपीय क्षेत्रों में सिरदर्द, गांठे, मिर्गी, खांसी, अल्सर और महामारी के प्रभाव को खत्म करने के लिए इंसानी लाशों का इस्तेमाल होता था. लोग इंसानी खून को सीरप की तरह पीते थे. शरीर की हडडि्यों के साथ-साथ मांस को दवा के रूप में बड़े चाव से खाते थे. ऐसा करने में न तो आम लोगों को कोई गुरेज था. न ही पुजारियों और धर्माचार्यों को.
बल्कि, इंसानी जिस्म से मिलने वाली वे इन दवाओं को यह सोचकर सेवन करते थे कि यह मरने वाले के प्रति उनकी श्रद्धांजलि है. माना जाता है कि मानव अंगों को सहज रूप से नहीं खाया जा सकता था, इसलिए इसे स्वादिष्ट व्यंजन के तौर पर तैयार कर परोसा जाता था.
हांलाकि, इस उपचार का अमेरिकी देशों में पुरजोर विरोध हुआ था, लेकिन यूरोप में चिकित्सा के इस तरीके को हर वर्ग ने स्वीकार किया. आलम यह था कि लोग मिस्त्र के पिरामिडों से मम्मीज की चोरी करते थे. लोगों को विश्वास था कि यदि पवित्र मम्मीज के मांस और हडडि्यों का सेवन किया जाए तो उन्हें रोग से जल्दी ही निजात मिल जाएगी.
Corpses as Medicine (Pic: Technology )
मम्मीज के खून से ब्रेन ट्यूमर का इलाज
प्राचीन मिस्त्र में मृत शरीर को विशेष रूप से संरक्षित करके रखने की प्रथा थी. यह उनके धार्मिक विश्वास को भी दर्शाता था. खास बात यह है कि यदि मम्मी के किसी हिस्से से खून रिस रहा होता था, तो उसके शरीर के मांस को आहार के रूप में खा लिया जाता था.
मम्मीज की खोपडियों को जमा कर उन्हें तोड़ा जाता था. उससे एक पाउडर तैयार किया जाता था. इस पाउडर का इस्तेमाल सिर दर्द को दूर करने के लिए करते थे. इस इलाज का मिस्त्र और मध्य यूरोप में काफी प्रचलन था. इलाज के लिए लोग पिरामिड खोदकर मम्मीज की चोरियां करने लगे. मम्मीज की चोरी कर इन्हें जहाज में छिपकर यूरोप के देशों में भेजा जाता था.
यूरोप में मम्मीज के मांस और खून से ब्रेन ट्यूमर का इलाज सबसे ज्यादा होता था.
1594 के दौरान फ्रेंच चिकित्सकों के एक दल ने मिस्त्र की यात्रा की और इलाज के लिए मम्मीज को इकट्ठा किया. इसके लिए उन्होंने कई पिरामिडो को तोड़कर नष्ट तक कर दिया. यह काम फ्रांस के राजा फा्रंसिस और महारानी कैथरीन के पिता के कहने पर हुआ था.
वे चाहते थे कि जब भी उन्हें इलाज की जरूरत हो, तब उन्हे लाशों की कमी न पड़े.
मानव खोपड़ियों से सिरदर्द का इलाज
मानव लाशों की खोपडि़यों से सिरदर्द का इलाज करने के अलावा शरीर के वसा का भी इस्तेमाल किया जाना शुरू हुआ. इसके लिए शरीर से मांस काटकर अलग कर लिया जाता था. इसके छोटे-छोटे टुकड़ों को लोहे की रॉडों की मदद से सेंका जाता था.
पके हुए मांस को गहरे जख्मों पर रखकर पट्टी बांध दी जाती थी. इससे घाव जल्दी भर जाते थे. खोपड़ी से बने पाउडर को सहज रूप से नही खाया जा सकता था, इसलिए इसमें शक्कर की थोड़ी सी मात्रा या चॉकलेट के बारीक टुकड़े मिलाए जाते थे.
लाशों की दुगर्ति कर इलाज करने के बाद भी लोगों के लिए नाकाफी रहा. उन्होंने दफन हुई लाशों से भी दवाएं बनाने की प्रक्रिया खोज निकाली.
दरअसल शरीर के दफन होने के बाद सिर के ऊपर एक किस्म का शैवाल पैदा हो जाता है. इस शैवाल को ओशिनिया कहा जाता है. उस दौर में कब्रों को खोदकर लाशों के सिर से वह शैवाल निकाला जाता था. फिर इसे पीस कर दवा तैयार होती थी.
दवा का प्रयोग रक्त प्रवाह को रोकने के लिए किया जाता था. जैसे किसी जख्म से लगातार रक्त बह रहा हो या नाक से खून आना बंद न हो रहा हो. कहते हैं इसके प्रयोग से महज कुछ ही मिनिटों में रक्त प्रवाह रुक जाता था.
Human Skull (Pic: greencross)
खूनी शहद से हड्डी टूटने का इलाज
उस दौर में मीठे के रूप में शहद का काफी प्रचलन रहा. लोग आमतौर पर शहद का इस्तेमाल मिठाई बनाने या खाने में करते थे, लेकिन इसका एक और प्रयोग दवा के रूप में भी किया गया. खास बात यह है कि यह शहद इंसानी खून से सना होता था.
जी हां, किसी भी लाश से खून निकालकर उसे शहद में मिलकर रख लेते थे. यह लंबे समय तक ना खराब होने वाली दवाओं में से एक थी. इस दवा के माध्यम से हड्डी टूटने पर इलाज किया जाता था. यह तो लाशों के खून से बनी दवा थी, लेकिन लोगोें ने तो ताजे खून को भी दवा के रूप में प्रयोग किया.
छठवीं शताब्दी के जर्मन चिकित्सक पैरासेल्यूस का मानना था कि ताजा रक्त पीना शरीर के लिए फायदेमंद होता है. खासतौर पर नवयुवकों को इसका सेवन करना चाहिए. यह शरीर में रोगप्रतिरोधक क्षमता का विकास करता है, इसलिए जब भी किसी कैदी को फांसी दी जाती थी तो उसके मरने के बाद बड़ी संख्या में लोग उसका रक्त पीने के लिए जमा होते थे.
कई लोगों ने तो इसे रोजगार ही बना लिया था. वे दवा बनाने वालों से कुछ पैसों के बदले अपना खून देने लगे थे. रोमन सैनिक तो युद्ध में मारे गए अपने दुश्मनों के रक्त को तक नहीं छोड़ते थे.
पेट दर्द के लिए ‘इंसानी दिल का पेस्ट’
इंसान के दिलों को उनकी लाशों से निकालकर एक पेस्ट तैयार किया जाता था. इसका सेवन सिरदर्द दूर करने के लिए किया गया. इसके बाद पेट के रोग दूर करने में भी पेस्ट कारगर रहा. महिलाओं की मासिक धर्म की अनियमित्ता को दूर करें या अत्यधिक रक्तस्त्राव को कम करने के लिए नवजात बच्चों की नाल से दवा तैयार की जाती थी.
उस दौर में चिकित्सा उपचार पर लिखी किताबें किसी पवित्र शास्त्र से कम नही थी. इन उपचारों को बताने वाली एक किताब 1690 में लंदन में लिखी गई. इसका नाम है ‘द ट्रेज़री ऑफ़ ड्रग्स अन्लॉक‘. इस किताब में उन सारे रोग और उनकी दवाओं के बारे में लिखा है, जिन्हें ठीक करने में मानव शरीर का इस्तेमाल किया गया.
Eating Corpses as Medicine (Pic: MyCentralJersey)
17वीं शताब्दी की शुरूआत तक इस तरह के उपचार का प्रचलन रहा, लेकिन जब आयुर्वेद और हर्बल दवाओं का अविष्कार शुरू हुआ तो चिकित्सा की इस विधा का पुरजोर विरोध हुआ.
परिणाम स्वरूप 17वीं शताब्दी के अंत तक चिकित्सा के लिए मानव शरीरों का इस्तेमाल लगभग बंद हो गया. 18वी शताब्दी में ऐसी किसी प्रयोग का जिक्र नहीं मिलता, जिसके लिए मानव के अंगों से खिलवाड़ किया गया हो.
आज हम आधुनिक इलाज का लाभ ले रहे हैं और शुक्र मनाते हैं कि कम से कम हमें उस वीभत्सय दौर से नहीं गुजरना पड़ा, जहां अपनों की लाशों को पकाकर खा जाने से भी किसी को कोई परेशानी नही थी.
Web Title: History of Eating Corpses as Medicine, Hindi Article
Feature Image Credit: anthropology