तवायफ का नाम लेना फर्क की बात है... यह जुमला आज से दो तीन दशक पहले किसी चौराहे पर सुन लिया जाता, तो पूरे जग से तौबा हो जाती. लोग मारते अलग और दौड़ाते अलग!
शुक्र मनाइए कि आप 'मॉर्डन' कहे जाने वाले युग में जी रहे हैं. जहां तवायफों का नाम लोग इसलिए भी ले लेते हैं, क्योंकि वे आज हैं ही नहीं. नाम तो छोड़िए अब तो उनके जीवन पर डॉक्यूमेंट्री बनने से लेकर किताबें तक छप चुकी हैं.
रेखा, माधुरी, रानी मुखर्जी और कैटरीना कैफ जैसी हस्तियां खुद को तवायफ के रुप में बड़े पर्दे पर उतार चुकी हैं. इस लिहाज से यह युग तवायफों का नाम लेने से आपको दूषित नहीं समझेगा.
अब सवाल आता है कि आखिर वो कौन सी तवायफें हैं, जिनका नाम सम्मान का हकदार है?
तो चलिए हम उनसे मिलवाते हैं—
पहली भारतीय गायिका गौहर जान
2 नवंबर 1902 की तारीख शायर आपको याद ना हो, पर यह दिन भारतीय संगीत जगत के लिए बेहद खास था. चूंकि इस दिन पहला भारतीय गीत डिस्क पर रिकॉर्ड हुआ था. रिकॉर्डिंग में राग जोगिया में ‘ख़याल’ गाने वाली इस गायिका का नाम था गौहर जान. वे बनारस और कलकत्ते की मशहूर तवायफ थीं
आर्मेनियाई दंपति की संतान गौहर जान का असली नाम एंजलिना योवर्ड था. उनके पिता का नाम विलियम योवर्ड और मां का नाम विक्टोरिया था. माता-पिता के तलाक के बाद मां ने कलकत्ता के मलक जान से शादी कर ली और एंजलिना गौहर जान बन गई. रामपुर के उस्ताद वज़ीर ख़ान और कलकत्ता के प्यारे साहिब से गायन की तालीम हासिल कर गौहर शानदार गायिका बन गईं. उस्ताद मौजुद्दीन खां ने उन्हें ठुमरी सिखाई. उनके कलकत्ता में कई कोठे थे.
गौहर जान 19वीं शताब्दी की शुरुआत में सबसे महंगी तवायफ थीं. कहा जाता है कि सोने की एक सौ एक गिन्नी लेने के बाद ही वह किसी महफिल में गाने के लिए हामी भरती थीं. इसके बाद गौरह जान ने अधेड़ उम्र में अपनी उम्र से आधे एक पठान से शादी कर ली पर जल्दी ही उनका तलाक हो गया. सारा पैसा कोर्ट कचहरी में खर्च हो गया और वे रास्ते पर आ गईं.
कहा जाता है कि दक्षिण भारत गुमनामी की हालत में उनकी मौत हो गई.
अंग्रेजों को धूल चटाने वाली बेग़म हज़रत महल
‘अवध की बेग़म’ के नाम से पहचानी जाने वाली मुहम्मदी ख़ानम पेशे से तवायफ थीं. अवध में उनके दर्जनभर कोठे थे. उनकी नृत्य और संगीत का जादू ऐसा चला कि अवध के नवाब वाजिद अली शाह ने उनसे शादी कर ली और नाम दिया बेगम हजरत महल. 1856 में जब अंग्रेजों ने अवध पर कब्ज़ा कर लिया तो वाजिद अली शाह कलकत्ता भाग गए.
किन्तु, बेगम अपने महल से कहीं नहीं गईं. उन्होंने अपने बेटे बिरजिस कादरा को अवध का राजा घोषित किया और शासन की बागडोर सम्हाल ली. 1857 की क्रांति में अंग्रेजों के नाक में दम करने वालों में बेगम हजरत महल का नाम भी लिया जाता है. उन्होंने तात्या टोपे के साथ मिलकर इस जंग को जीतने का प्रयास किया. लेकिन जब हार गईं तो उन्हें नेपाल में शरण लेनी पड़ी.
1879 में, गुमनामी की हालत में उनकी मौत हो गई. काठमांडू की जामा मस्ज़िद में उनकी एक बेनामी कब्र आज भी है.
संजय दत्त की नानी जद्दनबाई
जी हां यह सच है कि नर्सिग जद्दनबाई की बेटी थीं और संजय दत्त उनके नवासे. उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में जद्दनबाई का नाम संगीत के कदरदानों में बेहद अदब से लिया जाता था. जद्दनबाई का जन्म 1892 में हुआ था. उन्होंने कलकत्ता के भैया साहब गणपत से शुरूआती संगीत प्रशिक्षण लिया इसके बाद उस्ताद मोईनुद्दीन ख़ान ने उन्हें गजल गायकी सिखाई.
कोलंबिया ग्रामोफोन कंपनी ने उनके रिकॉर्ड्स मार्केट में उतार कर उन्हें रातों रात फेमस बना दिया. बताया जाता है कि जद्दनबाई के कोठे बनारस, कलकत्ता से लेकर मुंबई तक में फैले थे. एक तवायफ के अलावा उनकी दूसरी पहचान यह है कि वे भारतीय फिल्म इंडस्ट्री की पहली महिला संगीत निर्देशक रहीं.
अंग्रेजों के जमाने में सबसे ज्यादा छापे जद्दनबाई के कोठे पर ही पड़े.
चूंकि उन्हें शक था कि वे अपने कोठे पर क्रांतिकारियों को पनाह देती हैं. हालांकि यह बात काफी हद तक सही भी थी. जद्दनबाई ने देश के क्रांतिकारियों की अलग-अलग तरीके से कई बार मदद की. जद्दनबाई ने बदलते समय की नब्ज़ पहचान बेटी नर्गिस को अपने काम से दूर रखा और उन्हें अच्छी तालीम हासिल करवाई. बाद में उन्होंने ही नर्गिस के बॉलीवुड डेब्यू में मदद की.
भक्तिभाव में डूबी ज़ोहरा बाई
लोगों का ख्याल है कि तवायफें कव्वली गाती हैं, गजलें और नज्में सुनाती हैं. वे कुछ ऐसा गाती हैं जिससे टूटे दिलों को राहत मिले. इन सबसे अलग थीं जोहरा बाई. उनकी गायकी में गजल, नज्म, शायदी तो थी ही साथ ही थी भक्ति.
जोहरा बाई अपने दौर की एकमात्र तवायफ थीं, जो भक्तिभाव में डूबे भजनों को अपनी आवाज देती थीं.
ज़ोहरा बाई को भारतीय शास्त्रीय संगीत के पिलर्स के रूप में देखा जाता है. उनका नाम गौहर जान की तरह ही सम्मानीय है. मर्दाना आवाज़ की मलिका ज़ोहराबाई आगरा घराने से ताल्लुक रखती थीं.
उनकी फनकारी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उस्ताद शेर खान जैसे संगीतज्ञों ने उन्ही से संगीत की तालीम हासिल की थी. रिकॉर्ड पर उनकी कोई 78 रचनाएं उपलब्ध हैं.
फैयाज़ ख़ान और गुलाम अली जैसे अजीज फनकार आज भी उनकी नज्में गाते हैं.
देश की माटी से प्यार करने वाली रसूलन बाई
बनारस घराने की फनकार रसूलन बाई का जन्म 1902 में हुआ. उनके पास दौलत के नाम पर केवल मां की दी हुई संगीत शिक्षा थी. जिसे पांच साल की उम्र से ही उस्ताद शमू ख़ान ने संवारना शुरू किया.
सारंगी वादक आशिक खान और उस्ताद नज्जू ख़ान ने उन्हें वाद्य यंत्रों से परिचय करवाया.
रसूलन बाई की फनकारी के दीवाने तो उस्ताद बिस्मिल्लाह खां भी रहे. वे उन्हें ईश्वरीय आवाज़ कहा करते थे. रसूलन बाई ठुमरी पूरे उत्तर प्रदेश को दीवाना बनाए हुई थी. 1947 में जब देश का बंटवारा हुआ तो उन्होंने पाकिस्तान जाने से इंकार कर दिया और बनारस में ही अपना कोठा सम्हालती रहीं. जबकि उनके शौहर सुलेमान पाकिस्तानवासी हो गए.
देश की आजादी के बाद बनारस की आवो हवा बदलने लगी. तवायफों की गलियां बदनाम कही जाने लगीं.
धीरे-धीरे कद्रदानों की कमी हुई और रसूलन बाई फुटपाथ पर आ गई. कहा जाता है कि इलाहाबाद के फुटपाथ पर वे बच्चों की टाफियां बेचा करती थीं. कई बार तो वे उसी रेडियो स्टेशन के बाहर भीख मांगती देखी गईं, जहां पीछे से उन्ही की रिकॉडिंग बजा करती थी. इसी तरह मुफलिसी के दौर में उनकी गुमनाम मौत हो गई.
भारत में तवायफ शब्द की परिभाषा को 1947 के बाद से बिगाड दिया गया वरना इसके पहले तो कोठे तहजीब की पाठशाला कहलाते थे. जहां संगीत, नृत्य और संस्कार बांचे जाते थे.
बहरहाल उस दौर में कई तवायफें ऐसी भी थीं, जो हालात से समझौता करते-करते 'देवी' बन गईं और कुछ 'बाई' ही रह गईं. तो ये थी तवायफों के जीवन की कड़ी जानने की पहली सीढ़ी पर मिली इन पांच मशहूर तवायफों से संबधित कुछ जानकारी.
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Web Title: India's Five Famous Tawaif, Hindi Article
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