‘सबका खून शामिल है वतन की मट्टी में, किसी के बाप का हिन्दुस्तान नहीं है’
मशहूर शायर राहत इन्दौरी द्वारा रचित यह पंक्ति बहुत कुछ कहती है. यह कहती है कि जब देश ने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ी, तो उसमें हर धर्म और हर जाति के लोगों ने बराबर योगदान दिया. इसलिए यह देश सबका है.
लेकिन अगर हम इतिहास उठाकर देखें, तो पाएंगे कि अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए कई वीर शहीद तो हो गये. लेकिन नीची जाति का होने के कारण इतिहास में उन्हें उपयुक्त सम्मान और स्थान नहीं मिला.
गंगू मेहतर एक ऐसे ही वीर क्रांतिकारी थे. उन्होंने अपनी अंतिम सांस तक ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ लड़ाई जारी रखी और अंत में शहीद हो गए. इस तरह उन्होंने आदिविद्रोही का तमगा हासिल किया.
तो आइए उनके बारे में जरा करीब से जानते हैं.
शोषण की वजह से बसना पड़ा दूसरी जगह
यदि हम 1857 के विद्रोह के बारे में बात करें, तो पाएंगे कि यह एक सिपाही विद्रोह था. इसमें हिंदू और मुसलमान सैनिक कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़े थे. एक ख़ास बात और कि अंग्रेजों ने अपनी फौज में बड़ी संख्या में निम्न जातियों के पुरुषों को भर्ती किया था.
ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि अंग्रेजों के आने से पहले उच्च जातियों ने कभी भी निम्न जाति के लोगों को सम्मान नहीं दिया था. निम्न जाति के लोगों के पास समाज के सबसे घृणित काम करने का जिम्मा था.
चूँकि यह विद्रोह मूलतः एक सिपाही विद्रोह था और अंग्रेजी फौज में बड़ी संख्या में निम्न जाति के सैनिक शामिल थे, इसलिए बड़े पैमाने पर इन सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोला था और लड़ते-लड़ते कुर्बान हो गए थे.
गंगू मेहतर का जन्म कानपुर के पास अकबरपुर में हुआ था. उनके बचपन के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं प्राप्त है. ऐसा इसलिए है क्योंकि इतिहास लिखने वाले तथाकथित राष्ट्रभक्त इतिहासकारों ने जानबूझकर निम्न जाति के वीरों के योगदान को नज़रअंदाज किया है.
खैर, हम क्रांतिकारी गंगू मेहतर की कहानी पर आते हैं. किवदंतियों के अनुसार गंगू मेहतर भंगी जाति से थे. इस जाति का होने के कारण पढ़ने-लिखने का मौक़ा तो उन्हें कभी मिला नहीं, इसलिए मजबूरन उन्हें परिवार का पारंपरिक पेशा अपनाना पड़ा. इस पेशे के तहत उन्हें सर पर मैला ढोना पड़ता था.
यह तथ्य है कि भारतीय समाज में उच्च जातियों ने निम्न जातियों के ऊपर सदियों तक अनगिनत जुल्म ढहाए हैं. निम्न जातियों से बेगार कराना और उनका शोषण करना तो जैसे उच्च जातियों का जन्मसिद्ध अधिकार रहा है. इस शोषण के कहर से गंगू मेहतर का परिवार भी अछूता नहीं रहा. इससे बचने के लिए गंगू का परिवार कानपुर के चुन्नीगंज में बस गया.
पहलवानी सीखी और पेशवा की सेना में शामिल हुए
यहाँ बसने के बाद उन्होंने पहलवानी करनी शुरू की. उन्होंने एक मुस्लिम उस्ताद से पहलवानी के दांव-पेंच सीखे और थोड़े ही वक्त में वे खुद उस्ताद बन गए. लोग उन्हें सम्मान से गंगूदीन बुलाने लगे थे.
इससे पहले उन्नीसवीं शताब्दी की शुरुआत में अंग्रेजों की राज्य हड़प नीति और मराठों की हार के बाद अंतिम पेशवा बाजीराव कानपुर के बिठूर में बस गए. यहाँ आने के बाद उन्होंने कुल पांच विवाह किए, इससे पहले भी वो छह विवाह कर चुके थे. लेकिन उन्हें किसी भी संतान की प्राप्ति नहीं हुई थी. मजबूर होकर उन्होंने नाना साहब को गोद लिया था.
1851 में उनकी मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने नाना को बाजीराव का दत्तक वारिस मानने से इंकार कर दिया था. परिणाम स्वरुप नाना साहब ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ने का फैसला किया था. इसी क्रम में उन्होंने सैनिकों को अपनी सेना में शामिल करना शुरू किया था. गंगू मेहतर भी उनकी सेना में शामिल किए गए थे.
प्रारम्भ में गंगू मेहतर नाना साहब की सेना में नगाड़ा बजाते थे. लेकिन धीरे-धीरे अपनी प्रतिभा के बल पर उन्होंने एक वीर सैनिक के रूप में सेना में अपनी छवि बना ली.
1857 का विद्रोह जब शुरू हुआ, तो कानपुर इसमें एक प्रमुख केंद्र था. नाना साहब और अंग्रेजों की सेना के बीच घमासान लड़ाई हुई. प्रारंभ में नाना साहब की सेना अंग्रेजों के ऊपर भारी पद रही थी, लेकिन जल्द ही अंग्रेजों के आधुनिक हथियारों के आगे उसके पैर उखड़ने लगे.
इस बीच गंगू मेहतर ने एक महान लड़ाके की तरह लड़ना जारी रखा. उन्होंने अपने शागिर्दों की मदद से सैंकड़ों अंग्रेजी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया. अंग्रेजी सरकार इससे बुरी तरह सहम गई. उसने गंगू मेहतर से निपटने के लिए विशेष इंतजाम किए.
खुशी-खुशी चढ़े सूली, लेकिन...
अंग्रेजों ने किसी भी हाल में गंगू मेहतर को जिन्दा पकड़ लेने का आदेश दिया. यह आदेश इसलिए दिया गया था, ताकि गंगू को जनता के सामने सज़ा देकर अंग्रेजी सरकार के विद्रोहियों के प्रति क्रूर होने की मिशाल पेश की जा सके. उधर गंगू मेहतर अपने घोड़े पर सवार होकर पूरी वीरता से लड़ते रहे. हालाँकि, थोड़े दिनों के बाद अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया.
उनके पकड़े जाने के समय तक 1857 के विद्रोह को अंग्रेजों द्वारा लगभग कुचला जा चुका था. अंग्रेजों ने गंगू मेहतर को घोड़े से बांधकर पूरे में शहर में घुमाया. लेकिन उनके चेहरे पर सिकन का एक भी भाव नहीं आया. उन्हें पता था कि उन्होंने अपने हिस्से की लड़ाई पूरी वीरता से लड़ी है.
इसके बाद उन्हें बेड़ियाँ पहनाकर काल-कोठरी में डाल दिया गया. अंग्रेजों ने उनके ऊपर महिलाओं और बच्चों को मारने का आरोप लगाया. मुकदमा चलाया गया और उन्हें फांसी की सजा मुक़र्रर हुई. यह उनके लिए किसी इनाम से कम नहीं थी.
आगे 8 सितंबर 1859 के दिन उन्हें कानपुर के एक चौराहे पर सबके सामने सूली पर लटका दिया गया. इस तरह वे शहीद हो गए. सूली पर चढ़ाए जाने से पहले उनके चेहरे पर संतुष्टि का वही भाव था, जो भगत सिंह के चेहरे पर उन्हें सूली पर चढाते वक्त था. बाद में उन्हें भारत का दलित भगत सिंह भी कहा गया.
गंगू मेहतर अक्सर कहा करते थे कि भारत की मिट्टी में हमारे पूर्वजों का खून व कुर्बानी की गंध है, एक दिन यह मुल्क जरूर आजाद होगा.
Web Title: Gangu Mehtar: The Unsung Rebel Of 1857 Mutiny, Hindi Article