हिन्दुस्तान का दिल बहुत बड़ा है, जिसकी दरिया दिली का कोई सानी नहीं!
यहां अगर कोई प्यासा किसी से पानी की तलब करता है, तो वह पानी के साथ गुड़ की भेली या कुछ और भी खाने को देता हैं. ऐसे में अगर कोई बेसहारा हिन्दुस्तान से सहारे की आशा रखता हो तो उसकी ऐसी इच्छा रखना जायज़ है.
उन्हीं बेसहारों में चकमा और हाजोंग शरणार्थियों का नाम भी शामिल था, जिसे लगभग 50 सालों के बाद हिन्दुस्तान ने सहारा दिया और उन्हें भारतीय नागरिकता प्रदान किया गया.
ऐसे में इन चकमा और हाजोंग शरणार्थियों के बारे में जानना दिलचस्प होगा.
बंगलादेश से भागकर आये थे भारत
चकमा और हाजोंग जनजातियाँ चटगांव पहाड़ी इलाकों के मूल निवासी हैं, जो पहले पाकिस्तान और अब बांग्लादेश में स्थित है. एक तरफ जहाँ चकमा समुदाय मुख्य रूप से बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं, वहीं हाजोंग हिन्दू हैं. इनमें से हाजोंग पूर्वोत्तर भारत, पश्चिम बंगाल, और म्यांमार में भी पाए जाते हैं.
खैर, 1964-65 के दौरान बांग्लादेश में काप्ताई बांध बन रहा था, जिसके कारण एक बड़ा इलाका पानी में डूब गया था. ऐसे में लोगों के घर-बार सब कुछ बिखर चुके थे, जिसकी वजह से उनको वह स्थान खाली करना पड़ा.
ऐसी परिस्थिति में कई चकमा और हाजोंग शरणार्थी भारत की तरफ विस्थापन करने लगे और यहीं आकर बस गए. वहीं ऐसा भी माना जाता है कि धार्मिक हिंसा भी विस्थापन का एक बड़ा कारण था.
बहरहाल, तभी से ये जनजातियाँ भारत में आकर आबाद हो गई थी. तब इनकी संख्या लगभग 5000 के आसपास थीं, जो कि अब बढ़कर 1 लाख के करीब हो गयीं हैं. इन दोनों जनजातियों में ज्यादा चकमा समुदाय के लोग थे.
अरुणाचल प्रदेश ने किया था विरोध!
शुरुआत में ये लोग असम के लुशाई क्षेत्र की तरफ आये थे, जो अब मिजोरम का हिस्सा है, लेकिन मिजोरम के लोगों और चकमा शरणार्थियों के बीच कुछ विवादों के डर से सरकार ने उन्हें पूर्वोत्तर के फ्रंटियर एजेंसी के तिरप डिवीजन की तरफ भेज दिया, जो अब अरुणाचल प्रदेश के रूप में जाना जाता है.
हालांकि कुछ लोग तब भी असम में ही रुक गए थे. वहीं 1964-69 तक अरुणाचल प्रदेश में 2,748 परिवारों के साथ 14 हजार 888 लोग आकर बसे थे. तभी से उन सभी को शरणार्थियों के रूप में माना जाने लगा.
फिर भारत सरकार ने 1972 में भारत और बांग्लादेश के प्रधानमंत्री द्वारा संयुक्त वक्तव्य के आधार पर एक बैठक आयोजित की गई, जिसमें नागरिकता अधिनियम के अनुसार उन्हें नागरिकता प्रदान करने का निर्णय लिया गया.
हालांकि अरुणाचल प्रदेश जो कि अभी नया राज्य घोषित हुआ था, उसने सरकार के निर्णय का विरोध करना शुरू कर दिया और उसका ये विरोध लगातार जारी रहा.
ऐसे में उन शरणार्थियों को कुछ परेशानियों का भी सामना करना पड़ रहा था. अरुणाचल प्रदेश की सरकार का कहना था कि, बाहरी लोगों के बसने से यहाँ के निवासियों की जनसांख्यिकी पर प्रतिकूल असर पड़ेगा, क्योंकि यहाँ पर मूल निवासियों के संसाधनों में खुद कमी है. ऐसे में ये जनजातियाँ भी आकर बस गई तो राज्य को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.
नागरिकता न होने से, होती रहीं परेशानियां!
दरअसल, जब अरुणाचल प्रदेश एनईएफए के नाम से जाना जाता था, तब वहां कोई निर्वाचित सरकार नहीं थी. तब यह कमोबेश प्रशासन द्वारा चलाया जा रहा था. तब वहां की कुछ राजनितिक दलों का एक प्रकार से जन्म ही हो रहा था.
जो भविष्य में आने वाले संभावित खतरों को भापते हुए इन जनजातियों का विरोध कर रही थीं. 1987 में अरुणाचल प्रदेश सरकार को पूर्ण रूप से राज्य का दर्जा मिला. इससे पहले ही प्रदेश के छात्र संघ ने पहले से ही चकमा और हाजोंग के खिलाफ एक मजबूत आन्दोलन खड़ा कर लिया था.
उनका कहना था कि वे हमारी सहमति और ज्ञान के बिना हमारे राज्य में भेजे गए हैं.
खैर, इस जद्दोजहद में इनकी संख्या 1995 में लगभग 60 हजार के आसपास हो चुकी थीं. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के अनुसार भारत में इस जनजाति के पैदा होने वाले लोग नागरिकता अधिनियम के तहत नागरिकता का आवेदन कर सकते थे. इसके बाद कुछ लोगों ने नागरिकता हासिल करने के लिए आवेदन भी किया था. मगर उन्हें नागरिकता प्रदान नहीं की गई.
शुरुआत में इन शरणार्थियों को पूर्वी अरुणाचल प्रदेश के चांगलांग जिले में खेती बाड़ी करने के लिए कुछ ज़मीनें भी आवंटित की गई थीं., जहाँ कुछ लोग खेती से अपना जीवन यापन करने लगे.
आगे, धीरे-धीरे चकमाओं ने असम और अरुणाचल प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में भिन्न-भिन्न सेक्टरों में नौकरियां भी करने लगे थे. वहीं युवा वर्ग शिक्षा और रोजगार के लिए बाहर राज्यों में भी चले गए थे, लेकिन उन्हें नागरिकता प्रदान न होने की वजह से काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था.
इसी कड़ी में दिलचस्प बात यह है कि आकड़ों की माने तो विरोध के बावजूद लगभग 1500 चकमाओं के राज्य चुनावों की वोटर लिस्ट में नाम पड़ चुके थे.
नागरिकता मिली, मगर अधिकार नहीं!
बाद में इन शरणार्थियों की स्थिति को देखते हुए राज्य सरकार ने उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, और राशन जैसे बुनयादी सुविधाएं प्रदान करने का फैसला लिया.
फिर 2015 में, सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को तीनमाह के भीतर इनको नागरिकता प्रदान करने का फरमान जारी किया.
ऐसे में सरकार ने भी फैसला लिया कि पूर्वोत्तर में रहने वाले चकमा और हाजोंग शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान की जायेगी, जिसके लिए अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्रीपेमा खांडू, केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू और गृह मंत्री राजनाथ सिंह के द्वारा एक बैठक आयोजित की गई, जिसमें इस बात पर चर्चा हुई.
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट से नागरिकता प्रदान करने के आदेश में कुछ संशोधन करने का आग्रह किया गया. फिर इन शरणार्थियों को नागरिकता तो प्रदान की गई, मगर उनकी ज़मीनों पर उनका कोई हक़ नहीं दिया गया. उन्हें राज्य में रहने के लिए इनर लाईट परमिट का आवेदन करने की शर्त रखी गई.
यह वही दौर था, जब रोहिंग्या मुस्लिमों का मामला भी गरमाया था. वो भी भारतीय नागरिकता हासिल करने के लिए जदोजहद कर रहे थे. ऐसे में राजनीतिक दलों का आपसी टकराव भी देखने को मिला.
फिलहाल, हिंदुस्तान ने चकमा और हाजोंग जनजातियों को भारतीय नागरिकता देकर अपनी दरियादिली का सबूत पेश किया.
तो ये थी चकमा और हाजोंग शरणार्थियों से जुड़ीं कुछ बातें, अगर आप भी इनसे जुड़ीं कुछ बातों के बारे में जानते हैं तो कमेंट बॉक्स में बताएं.
Web Title: Chakma and Hajong Refugees got 50 years After Indian Citizenship, Hindi Article
Featured Image Credit: kunzum