वर्तमान समय में पत्रकारिता के गिरते स्तर पर चर्चा होती रहती है.
कहा जाता है कि पत्रकारिता अपने मूल्यों से भटककर मुनाफे के भंवर में फंसती जा रही है. उसे अब जनता और उससे जुड़े मुद्दों की कोई परवाह नहीं है!
किन्तु क्या आप जानते हैं कि एक दौर ऐसा भी था, जब पत्रकारिता एक मिशन हुआ करती थी.
तो आईए उस दौर के एक ऐसे हिन्दी अखबार को जानते हैं, जिसने अपने क्रांतिकारी तेवर से अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था.
कैसे आईए जानते हैं-
16 पृष्ठ के साथ शुरू हुआ अखबार
इस क्रांतिकारी तेवर वाले अखबार का नाम है 'प्रताप'. इसको महान स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी ने 9 नवम्बर 1913 को कानपुर से शुरू किया था. यह वह दौर था, जब देश अंग्रेजों के चंगुल में बड़ी बुरी तरह से फंसा हुआ था. ऐसे में प्रताप ने देश को आजाद कराने में अपना योगदान करने की ठानी. गौर करने वाली बात यह थी कि यह अखबार अपने शुरुआती दिनों से ही क्रांतिकारी तेवर से लैश था.
दूसरा, प्रताप का लक्ष्य पत्रकारिता को मिशन बनाना था. एक ऐसा मिशन जो समाज को संवेदनशील बनाने के लिए जिम्मेदार पत्रकार पैदा करे. साथ ही अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने में जरा भी ना हिचके. प्रताप ने अपने पहले ही अंक में अपनी नीति स्पष्ट करते हुए लिखा कि समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परमोद्देश्य है और इस उद्देश्य की प्राप्ति का एक बहुत बड़ा और बहुत ज़रूरी साधन हम भारतवर्ष की उन्नति को समझते हैं.
बताते चलें कि प्रताप में पहले केवल 16 पृष्ठ थे, लेकिन समय के साथ इसके पृष्ठ और लोकप्रियता दोनों बढ़ते गए.
शोषण के खिलाफ बना किसानों की आवाज
अपने मिशन के तहत प्रताप ने न केवल अंग्रेजों, बल्कि देशी जमींदारों और पूंजीपतियों के शोषण खिलाफ भी आवाज उठाई. यही कारण रहा कि जहाँ 1913 में इसकी केवल 500 प्रतियाँ छपती थीं, वहीं 1916 तक इसकी 6,000 प्रतियाँ छपने लगीं. इसके पृष्ठ भी 16 से बढ़कर 20 हो गए.
आगे अपना एक साल पूरा करने के बाद प्रताप ने पहली पुस्तिका निकाली. इस पुस्तिका का मुख्य विषय चंपारण में नील के किसानों की बदहाली था. अंग्रेज जबरदस्ती किसानों से नील उगवा रहे थे. बदले में किसानों को इसका वाजिब दाम नहीं दिया जा रहा था. दूसरी तरफ बार-बार नील उगाने से खेतों की उर्वरता भी नष्ट हो रही थी. ऐसे में प्रताप ने इस मुद्दे पर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया.
इसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजी सरकार ने प्रताप की पुस्तिका को जब्त कर लिया. इससे इसकी लोकप्रियता और बढ़ गई. 1919 तक आते-आते प्रताप की 9,000 प्रतियाँ छपने लगीं. इसी समय प्रताप ने फिर से अपनी नीति स्पष्ट करते हुए लिखा कि हमें यह भी अच्छी तरह मालूम है कि हमारा जन्म निर्बलता, पराधीनता और अल्प सत्ता के वायुमंडल में हुआ है.
असहयोग आन्दोलन का हिस्सा बना
प्रताप की लोकप्रियता लगातार बढती जा रही थी.
इसका परिणाम यह हुआ कि 23 नवंबर 1920 से इसका दैनिक प्रकाशन होने लगा. दैनिक स्तर पर प्रकशित होने से इसकी क्रांतिकारिता में बिलकुल भी कमी नहीं आई. इसने देशी राजाओं के अत्याचारों का भी विरोध करना शुरू किया. वहीं 1921 में गाँधी जी द्वारा चलाए जा रहे असहयोग आन्दोलन में भी खुद को पूरी तरह झोंक दिया. परिणाम यह हुआ कि 6 जुलाई, 1921 को गोरी सरकार ने प्रताप का प्रकाशन बंद कर दिया.
असल में प्रताप बहुत ही कम समय में देश के मजदूरों और किसानों की आवाज बन गया था.
यह बात अंग्रेजी हुकूमत को रास नहीं आ रही थी, इसलिए उसे जब भी मौका मिलता था, वह प्रताप पर जुर्माना लगाकर उसका प्रकशन बंद करने का प्रयास करती रहती थी. 19 जून,1916 को प्रताप ने दासता नाम की कविता छापी थी, जिसे अंग्रेजी सरकार ने राज्यद्रोहपूर्ण बताया. साथ ही इस पर जुर्माना लगा दिया. प्रताप की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, बावजूद इसके उसने 1000 रुपए का जुर्माना जमा किया.
हालांकि, अंग्रेज कहां मानने वाले थे. 1918 में उन्होंने इस पर फिर से 2,000 रूपए का जुर्माना लगा दिया. वह प्रताप पर लगाम लगाना चाहते थे, किन्तु वह अपने मंसूबों में कामयाब नहीं हुए.
'जलियांवाला बाग हत्याकांड' पर तल्ख तेवर
असल में प्रताप की लोकप्रियता इतनी बढ़ चुकी थी कि जनता ने अपनी तरफ से चंदा इकट्ठा करके जुर्माना भरा था. इसके बाद प्रताप ने खुद को सार्वजानिक संपत्ति घोषित कर दिया. इस बीच प्रताप लगातार अंग्रेजी सरकार कि भर्त्सना करता रहा.
आगे जलियावाला बाग़ हत्याकांड हुआ तो प्रताप ने लिखा कि यह घोर अन्याय है.
यह अन्याय है संसार के इस युग और उसके प्रवाह के प्रति. यह अन्याय है, इस देश और उसके करोड़ों बच्चों के प्रति. अन्याय और स्वेच्छाचार का यह प्रयास असहनीय है और भारतवर्ष की आत्मा यह निश्चय कर चुकी है कि वह रोका जाएगा.
...और झोंक दिया खुद को आजादी की लड़ाई में
1921 में रायबरेली में किसानों ने आन्दोलन किया. प्रताप ने उनके समर्थन में ख़बरें छाप दी. इससे प्रांतीय शासन नाराज हो गया.
प्रताप पर 15,000 रूपए का जुर्माना लग गया. खैर, प्रताप के शुभचिंतकों ने जमानत जमा करा दी और प्रताप छपता रहा. वहीं इसके थोड़े ही दिनों बाद प्रताप पर मैनपुरी में मानहानि का मामला दर्ज हुआ और एक बार फिर जुर्माना लगाया गया. इस बार प्रताप के पाठकों ने जुर्माना जमा करवाया.
1928 तक आते-आते प्रताप की लोकप्रियता बहुत बढ़ चुकी थी. इसके पृष्ठों की संख्या भी बढ़कर 40 हो गई थी. आगे आने वाले समय में भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी नाम बदलकर प्रताप में अपने लेख छाप रहे थे. देश में आजादी का आन्दोलन पूरी तीव्रता से चल रहा था.
इस समय प्रताप लिखता है कि अब मात्र इसकी ज़रूरत है कि देश के इस कोने से उस कोने तक लोग मृत्यु से जूझने के लिए तैयार हो जाएं. हम महात्मा गांधी को यह आश्वस्त करना चाहते हैं कि केवल गंगा ही नहीं वरन त्रिवेणी के जल को हम अपने रक्त की प्रचंड धाराओं में बदल देने के लिए तैयार हैं. हिंदू-मुसलमान और इस देश की दूसरी जातियां इस त्रिवेणी में अपना रक्त प्रवाहित करने के लिए तैयार हैं. इस समय अंग्रेजों ने आन्दोलन को कमजोर करने के लिए जगह-जगह सांप्रदायिक दंगे भड़का दिए थे.
ऐसे में प्रताप जनता से सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने की अपील कर रहा था और उनका हिमायती बनकर उभरा.
इस तरह प्रताप जब तक अस्तित्व में रहा वह आम जन मानस की आवाज बनकर रहा, जिसे अंग्रेज कभी दबा नहीं सके.
फिर भी इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि 1931 में इसके संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी ने हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंदी, तो प्रताप भी दम तोड़ता नज़र आया और आखिरकार बंद हो गया!
Web Title: This Newspaper Fought Britishers Till Last Time, Hindi Article
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