भारतीय सिनेमा का जब भी ज़िक्र होता है, तो जेहन में पहली शक्ल धुंडीराज गोविंद फाल्के यानी दादासाहेब फाल्के की उभरती है. उन्हें भारतीय सिनेमा का पिता भी कहा जाता है.
किन्तु, बहुत कम लोगों को पता होगा कि दादासाहेब फाल्के से पहले भी भारत में फिल्म बनी थी. ये 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की बात है. उन दिनों भारत में नाटकों के मंचन के लिए पश्चिमी स्थापत्य शैली में थियेटर बनना शुरू हो चुका था.
कलकत्ता (फिलवक़्त कोलकाता) उस दौर में भी कला और संस्कृति का केंद्र हुआ करता था. उन्हीं दिनों सिनेमा को लेकर एक प्रयोग हुआ था और पहली चलती फिल्म बनाई गई थी. फिल्म के निर्देशक थे हीरालाल सेन.
हम इस लेख में हीरालाल सेन और भारतीय सिनेमा के उस संघर्ष भरे सफ़र के बारे में बताएंगे, जो दादासाहेब फाल्के के बिना तय किया गया.
कलकत्ते में स्टार थियेटर की तामीर
19वीं शताब्दी. यह कालखंड अंग्रेजों के हिन्दुस्तान में पैर जमा लेने और उनके खिलाफ़ विद्रोह के शुरू होने का था.
1857 का सैनिक विद्रोह खत्म हो चुका था. हिन्दुस्तान की आवाम अंग्रेज़ों के खिलाफ छिटपुट लड़ाई लड़ रही थी. इसी दौर में अंग्रेजी हुकूमत की राजधानी बन चुके कलकत्ते में एक क्रांति दबे पांव दस्तक दे रही थी. इसका मुल्क की खुदमुख़्तारी से कोई राब्ता नहीं था.
यह क्रांति हो रही थी थियेटर के क्षेत्र में.
गैर-बंगालियों व बंगालियों की मिश्रित आबादी वाले उत्तर कलकत्ता में 25 मई 1888 को स्टार थियेटर की तामीर की गई. थियेटर में तमाम नाटकों का मंचन किया गया.
कहते हैं कि इस थियेटर में कभी रामकृष्ण परमहंस, कविगुरू रवींद्रनाथ टैगोर आदि नियमित नाटक देखने आया करते थे. यही स्टार थियेटर भारत में सिनेमा के आग़ाज का गवाह बना.
हीरालाल सेन, फोटोग्राफर से फिल्मकार तक
19वीं शताब्दी का छठवां दशक. तब पश्चिम बंगाल अस्तित्व में नहीं आया था. बंगाल, बिहार, ओडिशा और बांग्लादेश एकमुश्त बंगाल के नाम से जाना जाता था. बंगाल में ही मानिकगंज में एक गांव हुआ करता था. नाम था बागजुरी. फिलहाल यह बांग्लादेश में है. खैर...!
बागजुरी में एक जमींदार हुआ करते थे. नाम था चंद्रमोहन सेन. वे पेशे से वकील थे. उन्हीं के घर में 1866 में हीरालाल सेन का जन्म होता है.
हीरालाल सेन पढ़ाई से ज्यादा फोटोग्राफी जैसी कलाओं में रुचि लेते थे. प्राथमिक शिक्षा अपने गांव में लेने के बाद वह उच्चशिक्षा के लिए कलकत्ता आ गए. यहां उनका रुझान धीरे-धीरे फोटोग्राफी की तरफ बढ़ने लगा और उन्होंने फोटोग्राफी शुरू कर दी.
1887 में फोटोग्राफी से जुड़ी एक कंपनी के फोटोग्राफी कंपीटिशन में उन्होंने हिस्सा लिया और अवार्ड भी जीता. इसके अलावा भी उन्होंने कई अवार्ड जीते. 1890 तक उन्होंने कलकत्ता और मानिकगंज में अपनी फोटोग्राफी स्टूडियो खोल ली.
इधर, हीरालाल सेन फोटोग्राफी में रमे हुए थे और दूसरी ओर सिनेमा गर्भ से निकलकर वैश्विक स्तर पर प्रयोग के दौर से गुजर रहा था.
‘दी अराइवल ऑफ अ ट्रेन’ बनी कौतूहल
लुमियर बंधु सिनेमा को लेकर प्रयोग कर रहे थे. उनकी 50 सेकेंड की फिल्म ‘दी अराइवल ऑफ अ ट्रेन’ पेरिस और फिर मुंबई में प्रदर्शित होकर लोगों में कौतूहल जगा चुकी थी.
इसके कुछ ही समय बाद यानी 1898 में प्रोफेसर स्टीवेंसन एक प्ले करने कलकत्ता आए. प्ले के लिए उन्होंने स्टार थियेटर को चुना. खचाखच भरे हॉल में उनके प्ले ‘फ्लावर ऑफ पर्सिया’ का मंचन हुआ. स्टार थियेटर के दर्शक दीर्घा में हीरालाल सेन भी मौजूद थे.
यहां यह भी बता दें कि उन दिनों प्ले के दौरान एक बेहद छोटी फिल्म का भी प्रदर्शन हुआ करता था. चुनांचे इस प्ले के दरम्यान जब एक लघु फिल्म का प्रदर्शन हुआ, तो हीरालाल के मन में भी फिल्म बनाने की इच्छा कुलांचे भरने लगी.
उन्होंने स्टीवेंसन को यह बात बताई, तो उन्होंने फिल्म शूट करने के लिए अपना कैमरा उन्हें दे दिया. हीरालाल ने उस कैमरे से ‘फ्लावर ऑफ पर्सिया’ के एक डांस सीक्वेंस को शूट किया.
यह डांस सीक्वेंस मुकम्मल फिल्म नहीं थी. कहानी भी यहीं खत्म नहीं होती है. अभी संघर्ष का आख्यान बाकी है.
...और बनाई अपनी फिल्म प्रोडक्शन कंपनी
स्टार थियेटर में पहली फिल्म शूट करने के बाद हीरालाल के दिमाग में सिनेमा दौड़ने लगा था.
उन्होंने हर हाल में खुद के संसाधनों से फिल्म बनाने का फैसला कर लिया. इसके लिए जरूरी था अपना कैमरा.
हीरालाल और उनके भाई मोतीलाल ने किसी तरह 5 हजार रुपये जुगाड़ कर 1898 में ही लंदन से बाइस्कोप सिनेमैटोग्राफिक मशीन खरीद ली. उसी साल 4 अप्रैल को इस मशीन की मदद से बाहर से लाई गई कुछ फिल्में दिखाई गईं.
बाद में उन्होंने फिल्म निर्माण कंपनी रॉयल बायस्कोप कंपनी की स्थापना की. कंपनी का दफ्तर बनाया कलकत्ते के चित्तपुर में.
ये सब भारतीय सिनेमा के स्क्रीन पर दादासाहेब फाल्के के उभरने से पहले हो रहा था.
चूना व ऑक्सीजन से करते थे स्क्रीन को रोशन
किसी भी सिनेमा को स्क्रीन पर दिखाने के लिए उसे रोशन करना पड़ता है.
जिस दौर में हीरालाल फिल्मों की स्क्रीनिंग कर रहे थे, बिजली नहीं के बराबर थी. नहीं के बराबर क्या, यों समझिए कि नहीं ही थी.
अलबत्ता, अंग्रेजों की बदौलत कलकत्ते के दो इलाकों हावड़ा ब्रिज और मैदान में बिजली की सप्लाई शुरू हो चुकी थी, लेकिन थियेटरों तक बिजली नहीं पहुंची थी. ऐसे में हीरालाल ने एक तरकीब निकाली और इसमें उनकी मदद की एक प्रोफेसर ने.
सेंट जेवियर्स में पढ़ानेवाले प्रोफेसर ने चूना और ऑक्सीजन के जरिए स्क्रीन को रोशन करने का गुर सिखा दिया, जिससे हीरालाल का काम बेहद आसान हो गया. फिल्म की स्क्रीनिंग के साथ ही उन्होंने फिल्म भी बनाना शुरू कर दिया.
उन्होंने पहली फुल लेंथ फीचर फिल्म बनाई– अलीबाबा और चालीस चोर.
यह फिल्म 1903 में बन कर तैयार हो गई थी. ‘अलीबाबा और चालीस चोर’ के बनने के करीब एक दशक बाद दादा साहेब फाल्के ने ‘राजा हरिश्चंद्र’ नाम से फिल्म बनाई. इस फिल्म को भारत की पहली फिल्म का खिताब मिला.
अलीबाबा के अलावा हीरालाल ने और भी कई फिल्में बनाईं. इनमें एक राजनीतिक फिल्म भी शामिल थी. यह फिल्म कलकत्ते में निकली एक रैली को लेकर थी.
करियर का ढलान और वे आखिरी दिन
1913 तक हीरालाल ने खूब फिल्में बनाईं. बताते हैं करीब 40 फिल्मों का उन्होंने निर्देशन किया. यही वह दौर था, जब सिनेमा में अत्याधुनिक तकनीकें पुरानी तकनीकों को धकियाकर किनारे कर रही थीं.
दादा साहेब फाल्के फिल्म बनाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, तो दूसरी तरफ हीरालाल सेन अपने पुराने उपकरण और स्टूडियो बेच रहे थे.
इसी बीच एक खबर 1917 में उन तक पहुंचती है. यह खबर हीरालाल सेन के लिए तो दुखदायी थी ही, साथ ही भारत के सिनेमाई इतिहास को भी झकझोर देनेवाली थी.
खबर यह थी कि चित्तपुर में स्थित उनकी रॉयल बायस्कोप कंपनी का दफ्तर में आग लग गई. आग में उनकी बनाई सारी फिल्में जल गईं.
अलीबाबा और चालीस चोर ही एकमात्र फिल्म थी, जो यह साबित करती कि हीरालाल सेन ने ही पहली फिल्म बनाई थी, लेकिन इस फिल्म की रील भी जल गई. इस सदमे को हीरालाल बर्दाश्त नहीं कर सके और कुछ सालों के बाद ही उनकी मौत हो गई.
इस तरह भारतीय सिनेमा को गढ़नेवाले हीरालाल सेन गुमनाम रह गए.
Web Title: Hiralal Sen ,Who Made First Film In India, Hindi Article
Feature Image Credit: BizWatchNigeria