भगवान बुद्ध का मौन, कथाएं, अनात्मवाद और निर्वाण…यह मानव जीवन को रास्ता दिखाने वाले चार तत्व हैं. उन्होंने अहिंसा पर विश्वास किया. उनकी शिक्षाओं का ही प्रभाव था, जो सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध जीतने के बाद भी खुद को हारा हुआ महसूस किया और फिर हिंसा का मार्ग जीवन पर्यन्त के लिए त्याग दिया.
हालाकि, कहानी यहां खत्म नहीं होती. बल्कि यहां से सम्राट अशोक के एक नए जीवन की शुरूआत होती है.
वह जीवन, जो शांति और प्रेम से भरा हुआ था. बेशक उस प्रेम में उनकी जीवनसंगिनी देवी साथ नहीं थीं, लेकिन अशोक ने इस कमी को भी पूरा किया. उन्होंने सांची में बौद्ध धर्म को समर्पित शांति स्तूप की स्थापना की.
एक ओर जहां अशोक और देवी के बच्चे महेन्द्र-संघमित्रा बौद्ध धर्म का प्रचार करते हुए श्रीलंका में जा बसे थे, वहीं अशोक ने भारत में ही रहकर बुद्ध के शांति संदेश को प्रचारित किया और एनकी शिक्षाआें को फैलाया.
तो चलिए जानते हैं, अशोक के सांची स्तूप निर्माण के बारे में, जो आज भी देश-दुनिया में बुद्ध के अंहिसा संदेशों को फैला रहा है-
बुद्ध की अस्थियों पर हुआ निर्माण!
भगवान बुद्ध की मृत्यु के बाद उनके अनुयायी और राजाओं के बीच उनकी अस्थियों को लेकर विवाद छिड़ गया. तब बौद्ध संतों की एक बैठक में तय किया गया कि भगवान बुद्ध की अस्थियों का सभी में समान वितरण किया जाएगा. इन अस्थियों को केंद्र बनाकर स्तूपों का निर्माण होगा. आगे चलकर लोग स्तूपों को ही बौद्ध साधना का केंद्र मानते हुए भगवान बुद्ध की शिक्षाओं का अनुसरण करेंगे.
पहले चरण में आठ स्तूपों का निर्माण किया गया. इसके बाद अन्य अस्थियों से बाकी स्तूप बने. सांची के स्तूप का निर्माण भी भगवान बुद्ध की अस्थियों के एक हिस्से को केंद्र में रखकर ही हुआ है. इसके पास अन्य दो स्तूप और बने हैं, जिसमें बौद्ध संतों की अस्थियों को रखा गया है.
स्तूप बनाने के लिए अस्थियों को केंद्र में रखा जाता है और फिर उस पर मिट्टी-रेत और ईंट-पत्थरों की मदद से ढेर तैयार करते हुए गोलाकार स्तूप तैयार होता है. इसमें कोई भवन या कक्ष नहीं होता.
सम्राट अशोक ने सांची के स्तूप के निर्माण में चिकनी मिट्टी और पत्थरों का इस प्रकार प्रयोग किया कि आज तक उस पर मौसम का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है.
वहीं स्तूप बनाने के लिए 42 फुट लंबे और 50 टन के एक पत्थर को उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर से मध्य प्रदेश के सांची में 800 किमी. की दूरी तय करके लाया गया था. स्तूप के प्रवेश द्वार पर बुद्ध के जीवन की प्रमुख झ लकियां उकेरी गई हैं.
सम्राट अशोक के बाद स्तूप का विस्तार शुंग काल में हुआ. इस अवधि में स्तूप के चारों ओर की रेलिंग, एक सीढ़ी, हर्मिका (शीर्ष वेदिका) और छत्रावली (छतरियों जैसी मुकुट चक्री) को भी जोड़ा गया था.
इसके अलावा, स्तूप सं. एक के उत्तर में स्थित स्तूप सं. 3 और स्तूप सं. एक के पश्चिम में निचले स्तर पर स्थित स्तूप सं. 2 भी शुंग शासकों द्वारा ही बनाए गए थे.
The Hill of Sanchi is Situated in MP (Pic: World secret locations)
कुछ ऐसे हैं सांची के स्तूप…
सांची स्तूप में क्रमांक एक का स्तूप सबसे बड़ा है, जिसका आकार उल्टे कटोरे की तरह है. इसके शिखर पर तीन छत्र लगे हुए हैं, जो कि महानता को दर्शाते हैं.
यह स्तूप गौतम बुद्ध के सम्मान में बनाया गया, जिसका निर्माण अशोक ने यहीं रोक दिया था. इसके बाद स्तूप में प्रस्तर की परत और रेलिंग लगाने का कार्य शुंग वंश के राजाओं ने किया. इसके बाद एक बार फिर से स्तूप का काम यहीं तक रोक दिया गया.
आगे जब सात वाहन राजाओं का काल आया, तो उन्होंने अशोक और शुंग के छोड़े गए अधूरे काम को पूरा किया गया. उन्होंने स्तूप में चार द्वार बनवाए. इन द्वारों पर जातक और अलबेसंतर की कथाओं को दर्शाया गया है. इस स्तूप की पूर्व दिशा में स्तूप क्रमांक तीन है, जो बिल्कुल साधारण है. सांची में कुल मिलाकर बड़े-छोटे 40 स्तूप हैं. इनका निर्माण मौर्यकाल से लेकर गुप्तकाल तक के दौरान में हुआ.
अशोक के काल में बने क्रमांक एक के स्तूप के पास ही उन्होंने मंदिर क्रमांक 17 का निर्माण भी करवाया था. हालांकि, अब इसके केवल पिलर ही सुरक्षित बचे हैं. इसी मंदिर के पास एक और छोटा मंदिर है, जो पूरी तरह विकसित है और यहां जैन तीर्थंकर की मूर्ति भी स्थापित की गई है.
आसपास कई छोटे मंदिरों के खंडहर शेष रह गए हैं, जिनका निर्माण गुप्तकाल के दौरान हुआ था. मुगल काल में इन मंदिरों को तोड़ दिया गया और अब यहां केवल अवशेष बाकी हैं. स्तूप क्रमांक एक के पश्चिमी द्वार के पास कभी पिलर पर अशोक स्तंभ स्थापित था, जिसे अब सांची के संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है.
यहां के मंदिर नागर शैली में डिजाइन किए गए थे. स्तूप क्रमांक दो से ही गौतम बुद्ध के दो सारिपुत्त और महामोदगलायन शिष्यों की अस्थियां मिली थीं. इन अस्थियों को अब महाबोधि सोसाइटी के चैत्य में रखा गया है.
हर साल वैशाख पूर्णिमा के अवसर पर इन्हें दर्शनों के लिए बाहर निकाला जाता है.
Samrat Ashoka Pillar in Sanchi. (Pic: Wikipedia)
…और इतिहास की गर्त में खो गए स्तूप
मौर्यकाल में बने सांची के स्तूप को शुंग काल में और विस्तार दिया गया, हालांकि गुप्तकाल तक बौद्ध धर्म और स्तूपों की देखरेख हुई. किन्तु इसके बाद समाज में धार्मिक बदलाव आया और स्तूपों पर अनदेखी की पर्तें चढ़ती गईं.
वहीं देश में मुगलकाल आते-आते स्तूप पूरी तरह गुमनाम हो गए. उसके अधिकांश हिस्से को तोड़ दिया गया और जो बच गया था उस पर झाडि़यां ऊग आईं.
मुगलों के बाद भारत में अंग्रेजों का शासन कायम हुआ. 1818 में ब्रिटिश इतिहासकार जनरल टेलर ने सांची के स्तूप के अवशेषों को खोज निकाला. कुछ सालों बाद कैप्टन जानॅसन ने 1822 में स्तूप का पूरा पश्चिमी भाग खोद दिया और जिसके बाद स्तूप का काफी बड़ा आकार निकलकर सामने आया. हालांकि, तब भी सांची के स्तूपों को संरक्षित करने के लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठाया गया.
1851 में पुरातत्वविद् और इतिहासकार अलेक्जेंडर कनिंघम और कैप्टन एफ. सी. मैसी ने इस काम को आगे बढ़ाया, लेकिन अब भी स्तूप का खंडहर हिस्सा अधूरा था. 1911-12 के दौरान भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक सर जॉन मार्शल ने सांची स्तूप के महत्व को समझा और इसके खोए हुए हिस्से की तलाश कर उसे जोड़ा.
यह बात और है कि जो हिस्सा आज देखने लायक है वह शंकुकाल के दौरान निर्मित हुआ था. मौर्यकाल का हिस्सा अब केवल अवशेष बनकर रह गया है.
1989 में यूनेस्को ने सांची को विश्व विरासत का दर्जा दिया और हाल ही में भारत सरकार ने सांची की खोज के 200 साल पूरे होने पर 200 का नया नोट जारी किया है, जिसमें सांची का स्तूप अंकित गया है.
Buddhist Art and Architecture of 1300 Years. (Pic: Antilog Vacations)
यहां भी हैं कुछ शांति स्तूप…
सांची के अलावा भी भारत के विभिन्न हिस्सों में शांति स्तूपों की स्थापना की गई. ज़िला बस्ती, उत्तर प्रदेश में स्थित पिपरावा स्तूप भी मौर्यकालीन है, जिसका व्यास 116 फुट और चौड़ाई 22 फुट है और खोदाई के दौरान यहां भगवान बौद्ध की मंजूषा मिली थी.
इसके अलावा 1873 में ‘अलेक्जेण्डर कनिंघम’ ने भरहूत स्तूप की तलाश की थी. भगवान बुद्ध के भस्मों के ऊपर निर्मित यह स्तूप मध्य प्रदेश के सतना ज़िले में स्थित है, जिसका विस्तार शंकुकाल में हुआ था.
बिहार के बोधगया में स्थित स्तूप का निर्माण भी अशोक ने करवाया था. सांची स्तूप से अलग यह स्तूप ग्रेनाइट से निर्मित है.
इसी क्रम में आन्ध्र प्रदेश के ‘गुंटूर ज़िले’ में कृष्णा नदी के दाहिने तट पर भी एक स्तूप का निर्माण किया गया. इसे संगमरमर के पत्थरों से बनाया गया था, जिसकी खोज ‘कर्नल कालिन मैकेंजी’ ने की थी. इसी क्षेत्र में एक और स्तूप है, जिसका नाम है नागार्जुनकोण्डा स्तूप, जिसे 1926 में खोजा गया था. आंध्र प्रदेश में इक्ष्वाकु शासकों का बनाया हुआ एक और शांति स्तपू जग्गरयमपेट्ट में स्थित है.
वाराणसी के पास सारनाथ और बिहार के नालंदा में भी एक-एक स्तूप हैं, जिसे अशोक ने ही बनवाया था. सारनाथ में बना स्तूप ईंट से निर्मित है और इसकी ऊंचाई 128 फुट है. खास बात यह है कि यह अन्य स्तूपों की तरह किसी पहाड़ी पर नहीं, बल्कि धरातल पर बना है और अन्य स्तूपों की तरह इसमें चबूतरा नहीं बनाया गया.
Stupas are Educative field for the study of Buddhism. (Pic: Chic Travel)
तो अब जब भी विश्व विरासतों को देखने की लालसा हो या शांति की असीम इच्छा तो शांति स्तूप देखने जरूर जाएं. वहां आपको बौद्ध वास्तुकला और भारतीय शिल्पकारी का खूबसूरत नमूना देखने को मिलेगा.
Web Title: Historical Story of Stoops, Hindi Article
Featured Image Credit: asearchformore