सन 1948 से पहले इजराइल नाम का कोई भी देश इस धरती पर मौजूद नहीं था.
लेकिन एक दिन विश्व के भूगोल पर इस देश का नक्शा अस्तित्व में आया और देखते ही देखते ये सैन्य ताकत व तकनीक के मामले में दुनिया भर में अव्वल बन गया.
जी हां! यहूदी बाहुल्य इजराइल, जिसकी प्रमुख भाषा हिब्रू है, फिलिस्तीन का ही बृहद रूप है.
सीरिया और जॉर्डन के साथ भू-मध्य सागर से घिरे हुए इस खूबसूरत इजराइल का जन्म विश्व पटल पर कैसे हुआ..? इसे जानने-समझने के लिए हमें इतिहास की गर्त में जाना होगा.
तो चलिए इजराइल के अस्तित्व में आने के पीछे की कहानी को समझने की कोश्ािश करते हैं –
तीन धर्मों का पवित्र स्थल है जेरुशलम
ईसाईयों के धर्म ग्रंथ बाइबिल के प्रथम खण्ड और यहूदियों के सबसे प्राचीन ग्रंथ ‘ओल्ड टेस्टामेंट‘ से यहूदियों के इतिहास के बारे में जानने को मिलता है.
ओल्ड टेस्टामेंट के अनुसार “यहूदी जाति का निकास पैगंबर हजरत अब्राहम से शुरू होता है, जिसे इस्लाम में इब्राहिम, ईसाईयत में अब्राहम कहते हैं.”
दरअसल इजराइल की राजधानी जेरुशलम तीनों धर्मों यहूदी, इसाई, इस्लाम का संगम स्थल है.
यहूदियों की मानें तो यह उनकी मातृभूमि है, ईसाईयों की मानें तो यह ईसा की कर्मभूमि है, यहीं पर ईसा को सूली पर चढ़ाया गया था.
वहीं मुस्लिमों की मानें तो यहां की अल-अक्सा मस्जिद से ही इस्लाम की शुरूआत हुई थी, इसी स्थान से पैगम्बर मुहम्मद साहब ने स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया था.
यानी यह स्थान तीनों धर्म के लोगों की आस्थाओं का केंद्र है.
Al Aqsa Mosque Jerusalem. (Pic: Musiceon)
रोम से युद्ध में मची तबाही
अब्राहम को यहूदी, मुसलमान और ईसाई तीनों धर्मों के लोग अपना पितामह मानते हैं.
अब्राहम का समय ईसा से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व का है.
माना जाता है कि अब्राहम के पोते याकूब का ही दूसरा नाम इजराइल था. याकूब ने यहूदियों की 12 जातियों को मिलाकर एक किया. इन सब जातियों का यह सम्मिलित राष्ट्र इजराइल कहलाने लगा.
लेकिन कुछ राजनीतिक कारण ऐसे बने कि यहूदियों की राजनीतिक स्वाधीनता का अंत हो गया.
दरअसल सन् 66 ई. पू. में प्रथम यहूदी-रोम युद्ध के बाद रोम के जनरल पांपे ने जेरुशलम के साथ-साथ सारे देश पर अधिकार कर लिया. इतिहासकारों का कहना है कि हजारों यहूदी इस लड़ाई में मारे गए.
Abraham is a Prophet of Judaism. (Pic:Ernie’s Musings)
खलीफा साम्राज्य का उदय
छठी ई. तक इजराइल पर रोम का प्रभुत्व कायम रहा, लेकिन इसी समय मध्य एशिया में एक और नई शक्ति का उदय हुआ, यह शक्ति थी इस्लाम के झंडे के नीचे खड़ा हुआ खलीफा साम्राज्य.
सन् 636 ई. में खलीफ़ा उमर की सेनाओं ने रोम की सेनाओं को रोंद डाला और इजराइल पर अपना कब्जा कर लिया. इस तरह इजराइल और उसकी राजधानी जेरुशलम पर अरबों की सत्ता स्थापित हो गई, जो सन् 1099 ई. तक रही.
इसके बाद सन् 1099 ई. में जेरुशलम पर ईसाई शक्तियों ने अपना कब्जा कर लिया, हालांकि ईसाईयों का शासन ज्यादा दिन नहीं चल सका और उन्होंने दोबारा से इस्लामी शासकों के हाथों इजराइल गंवा दिया.
इस बीच मुस्लिमों और ईसाईयों में इस पवित्र जगह पर कब्जे के लिए कई बार युद्ध लड़े गए, जिन्हें धर्म युद्ध यानी क्रूसेड के नाम से भी जाना जाता है.
अंततः इस्लामी शासकों का इजराइल पर कब्जा हो गया, तब से लेकर उन्नीसवीं सदी तक इजराइल पर कभी मिस्र शासकों का आधिपत्य रहा, तो कभी तुर्क शासकों का.
इजराइल के वर्तमान स्वरूप से पहले वह तुर्की शासकों के हाथों में ही था, जिसे ओटोमन साम्राज्य कहा जाता था, जिसके ऊपर खलीफा का शासन था.
The Crusades. (Pic: Renegade Tribune)
राष्ट्रवाद की विचारधारा
उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश साम्राज्य अपने चरम पर था, तो वहीं मध्य एशिया के एक बड़े हिस्से तक फैल चुका ओटोमन साम्राज्य, अब कमजोर हो चला था.
इस समय तक कई देशों में राष्ट्रवाद की लहर चल रही थी. इटालियन एक अलग राज्य इटली की मांग कर रहे थे, तो जर्मनी अपने लिए एक अलग जर्मन राज्य की मांग करने लगे.
तब तक संचार के साधन प्रेस, रेल, सड़क के कारण विचारों का एक कोने से दूसरे कोने में पहुंचना आसान हो ही चुका था.
इसी तरह राष्ट्रवाद का विचार विश्व के लगभग हर हिस्से में तीव्रता से पहुंचने लगा.
यहूदियों में भी अपनी अस्मिता, अपने अस्तित्व, अपनी पहचान के लिए तीव्र भावनाएं उमड़ीं. अब यहूदी एक अलग देश की इच्छा करने लगे, जहां वह चैन से रह सकें.
उनके मन में अपने पूर्वजों के देश इजराइल को दोबारा से आबाद करने की भावना घर करने लगी, जहां फिलहाल ओटोमन शासकों का कब्जा था.
उन्नीसवी सदी के मध्य से ही इजराइल के रूप में ‘यहूदी मातृभूमि’ की मांग करने लगे थे, जिसे जिओनवाद कहा गया.
इस समय यूरोप में सब जगह यहूदियों पर अत्याचार हो रहे थे, निरंतर होते अत्याचारों के कारण यूरोप के कई हिस्सों में रहने वाले यहूदी विस्थापित होकर फिलिस्तीन आने लगे.
यहूदी एक ऐसे देश की कल्पना कर रहे थे, जहां दुनिया के तमाम देशों से आए हुए यहूदी निर्णायक बहुमत में हों.
चूंकि फिलिस्तीन में इस्लामी मान्यता के लोग बहुमत में थे, अतः यह लड़ाई एक कभी न खत्म होने वाला विवाद बनने जा रही थी.
Ottoman Muslim armies were banging away at the walls. (Pic: wearethemighty)
प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की की एंट्री
इसी बीच 1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो गया. यही वह स मय था जब यहूदियों को उनकी मातृभूमि मिलने की दिशा में टर्निंग-पॉइंट आया.
इजराइल का कब्जाधारक तुर्की प्रथम विश्व युद्ध के समय मित्र राष्ट्रों (जिसमें ब्रिटेन भी शामिल था) के खिलाफ़ वाले गठबंधन में शामिल हो गया, यानी तुर्की ने जर्मनी, आॅस्ट्रिया और हंगरी के गुट में शामिल होकर ब्रिटेन की दुश्मनी मोल ले ली, जोकि उस समय सबसे ताकतवर शक्ति थी.
इसी समय तुर्की के शासकों ने फिलिस्तीन से उन सभी यहूदियों को खदेड़ना शुरू कर दिया, जो रूस और यूरोप के अन्य देशों से आए हुए थे.
प्रथम विश्व युद्ध से अरबी लोगों को भी नुकसान हो रहा था, जो कि इजराइल में बहुमत में थे.
इन दोनों परिस्थितियों का लाभ लेने के लिए ब्रिटेन ने अरब और फिलिस्तीन को तुर्की शासन से मुक्ति दिलाने के लिए प्रतिबद्धता जताई, बशर्ते कि अरब देश और फिलिस्तीन तुर्की के विरोध में मित्र सेनाओं के साथ आ जाएं.
ब्रिटेन-फ्रांस में गुप्त समझौता
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही ब्रिटेन और फ्रांस के बीच में गुप्त रूप से साइक्स-पिकोट समझौता हुआ. इस एग्रीमेंट के साथ रूस की भी सहमती थी. इस समझौते के अंतर्गत तय हुआ कि युद्ध जीतने के बाद मध्य एशिया का कौन सा हिस्सा किस देश को मिलेगा.
इस समझौते में तय हुआ कि जॉर्डन, इराक और फिलिस्तीन ब्रिटेन को मिलेंगे.
सन 1917 में ब्रिटेन के विदेश सचिव लार्ड बेलफोर और यहूदी नेता लार्ड रोथसचाइल्ड के बीच एक पत्र व्यवहार हुआ, जिसमें लार्ड बेलफोर ने ब्रिटेन की ओर से ये आश्वासन दिया कि फिलिस्तीन को यहूदियों की मातृभूमि के रूप में बनाने के लिए वो प्रतिबद्ध हैं. ब्रिटेन के विदेश सचिव लार्ड बेलफोर की इसी घोषणा को बेलफोर घोषणा कहा जाता है.
उस समय मुस्लिमों की आबादी फिलिस्तीन की कुल आबादी की तीन चौथाई से भी ज्यादा थी. इस समझौते के तहत इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया गया.
स्वाभाविक रूप से बेलफोर घोषणा का विरोध शुरू हो गया. फिलिस्तीन मुस्लिमों ने इसका जोरदार विरोध किया.
प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद सन 1920 को इटली में सैन रेमो कान्फ्रेंस हुई, जिसमें मित्र राष्ट्रों ने व अमेरिका ने मिलकर ब्रिटेन को अस्थायी जनादेश दिया कि ब्रिटेन फिलिस्तीन को यहूदियों की मातृभूमि के रूप में विकसित कराए, वहीं फिलिस्तीन का स्थानीय प्रशासन भी ब्रिटेन ही देखेगा.
The Balfour Declaration. (Pic:Mosaic Magazine)
फिलिस्तीन के टुकड़े और जॉर्डन
स्थानीय स्वशासन की स्थिति में यहूदियों को भय था कि कहीं ऐसा न हो कि वह फिलिस्तीन के शासन में यहूदी जनसंख्या के चलते अल्पसंख्यक न बने रह जाएं और अरबी बहुमत में हो जाएं.
इसी तरह अरबी लोगों को भी यह समझौता मंजूर नहीं था, क्योंकि वह किसी भी हालत में यहूदियों के साथ सत्ता साझा नहीं करना चाहते थे.
तभी ऐसी राजनितिक परिस्थितियां बनीं कि ब्रिटेन को फिलिस्तीन का जो हिस्सा संभालने के लिए मिला था, उसके दो हिस्से कर दिए गए.
उसके बड़े हिस्से को ट्रांसजार्डन कहा गया और छोटे हिस्से को फिलिस्तीन. बाद में ट्रांसजार्डन को जॉर्डन के रूप में एक स्वतंत्र देश मान लिया गया.
प्रस्तावित यहूदी मातृभूमि का एक बहुत बड़ा हिस्सा ट्रांसजार्डन के रूप में उनके हाथ से निकल गया था, तो यहूदियों को लगा कि उनके साथ विश्वासघात हुआ है.
इसके बाद यहूदी ब्रिटेन के विरोध में आ गए.
Transjordan Frontier Force. (Pic: Wikipedia)
अत्याचार और दमन से परेशान हुए यहूदी
यह वही समय था, जब पोलेंड और पूर्वी यूरोप में यहूदियों के साथ अत्याचार हो रहे थे, यहूदी अपनी जान बचाकर फिलिस्तीन की तरफ़ भागने लगे थे.
जर्मनी में हिटलर राज आने के बाद लाखों की संख्या में यहूदियों का कत्लेआम हुआ. यहूदी अंतिम आस के रूप में फिलिस्तीन की तरफ कूच करने लगे.
लाखों की संख्या में आए यहूदियों के कारण अरब और यहूदियों के बीच संघर्ष बढ़ने लगा, दंगे होने लगे, कत्लेआम होने लगे.
इसी बीच सन 1936 ई. में एक ऐसी घटना घटी, जिसने यहूदी-अरबी संघर्ष को और अधिक तीव्र कर दिया.
ब्रिटेन की फ़ौज ने एक ऐसे धर्मगुरु की हत्या कर दी, जो यहूदियों और ब्रिटेन के खिलाफ विरोध का झंडा लिए खड़ा था. इससे गुस्साए अरबियों ने इस घटना के बाद विद्रोह कर दिया.
अब यहूदियों और अरबों का फिलिस्तीन पर कब्जे के लिए होने वाला संघर्ष भूमिगत सशस्त्र समूहों के हाथों में चला गया.
इन संघर्षों में हजारों लोगों ने जान गंवाई.
ब्रिटेन के लिए मुसीबत बना फिलिस्तीन
द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामों ने विश्व के शक्ति केंद्रों को बदल दिया, अब ब्रिटेन का सूरज अमेरिकी रौशनी के आगे मद्दम पड़ने लगा था.
अभी यहूदी विद्रोही समूहों ने अवैध रूप से यहूदियों को फिलिस्तीन में लाना जारी रखा. अमेरिका और अन्य देशों ने भी अब ब्रिटेन पर फिलिस्तीन में यहूदियों के पुनर्वास के लिए दवाब डालना शुरू कर दिया.
एक तो ब्रिटेन पहले जैसी मजबूत शक्ति न रहा था, दूसरा यहूदियों के संघर्ष में उसे खामखां जानमाल की हानि हो रही थी. लगातार होने वाले दंगों से फिलिस्तीन ब्रिटेन के लिए गले की हड्डी बन गया था.
आखिरकार ब्रिटेन ने खुद को फिलिस्तीन मामले से अलग कर लिया, तभी 1945 में यूनाइटेड नेशन की स्थापना हो चुकी थी.
ऐसे में ताजातरीन तौर पर फिलिस्तीन का मुद्दा यूनाइटेड नेशन के हाथों में आ गया.
The last British troops of Palestine lower their flag. (Pic: Vox)
यूएन का हस्तक्षेप और बन गया इजराइल!
29 नवंबर 1947 को संयुक्त राष्ट्र यानी यूनाइटेड नेशन ने झगड़े की जटिलता को समझते हुए फिलिस्तीन को दो हिस्सों एक अरब राज्य और यहूदी राज्य (इज़राइल) में विभाजित कर दिया.
जेरुशलम जो ईसाई ,अरब और यहूदी तीनों मजहबों को मानने वालों के लिए आस्था स्थल था, उसे अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन के अंतर्गत रखे जाने की घोषणा कर दी गई.
इस व्यवस्था के अंतर्गत जेरुशलम को कॉर्पस स्पेक्ट्रम कहा गया, यानी जेरुशलम के ऊपर अंतरराष्ट्रीय सरकार का प्रबंधन रहेगा.
यहूदियों को यह प्रस्ताव स्वीकार्य था, लेकिन अरबों ने इसे मानने से इनकार कर दिया.
अंततः यह विभाजन लागू नहीं किया जा सका, चूंकि दोनों देशों की सीमाओं का निर्धारण और विभाजन बहुत जटिल कार्य था. इस विभाजन में फिलिस्तीन के 70 प्रतिशत अरब लोगों को 42 प्रतिशत क्षेत्र ही मिला था, जबकि यही लोग विभाजन के पहले 92 प्रतिशत क्षेत्र पर काबिज थे. अतः किसी भी प्रकार से ये विभाजन अरबों को मान्य नहीं था.
1948 आते-आते ब्रिटेन ने अपनी सेनाएं वापस बुला लीं, जिससे अब यहूदियों और फिलिस्तीन में खूनी टकराव शुरू हो गया. मौक़ा पाते ही यहूदियों ने इजराइल के रूप में एक स्वतंत्र देश की घोषणा कर दी.
A Jew is seen praying at the Western Wall. (Pic: jta)
इसके बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इजराइल को एक देश के रूप में मान्यता दे दी.
इस तरह से इजराइल पूरी दुनिया के यहूदियों का प्रमुख निवास स्थान बन गया.
आपका क्या कहना है इस बारे में, हमें नीचे कमेंट बॉक्स में अवश्य बताएं.
Web Title: History of Israel: Creation of the Land of Jewish, Hindi Article