दूसरे विश्व युद्ध में कई ऐसे हथियार सामने आए, जिन्होंने इतिहास में अपना नाम दर्ज करवा लिया. इसमें बड़े-बड़े टैंक से लेकर खतरनाक राइफल तक शामिल थीं.
उनमें से ही एक राइफल थी एम1 गारंड, जो एक बहुत बड़ा कारण बनी जंग में अमेरिका की जीत का. इस सेमी-ऑटोमेटिक राइफल ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान इतना असर डाला कि इतिहास ही बदल गया.
जहाँ एक तरफ जंग में जर्मन के पास एक से बढ़कर एक राइफल थीं. वहीं दूसरी ओर अमेरिका की इस नई सेमी-ऑटोमेटिक राइफल ने उन सभी को कड़ी टक्कर दी.
तो चलिए इतिहास के पन्नों से जानते हैं कि आखिर कैसे एम1 गारंड बनी एक लीजेंडरी राइफल–
एक दमदार हथियार की तलाश में था अमेरिका
पहले विश्व युद्ध से भी काफी समय पहले से अमेरिका एक सेमी-ऑटोमेटिक राइफल बनाने में लगा हुआ था. हालांकि, उसे इसकी कोई ख़ास जरूरत महसूस नहीं हुई थी, इसलिए इसे बनाने पर बहुत ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया.
वहीं जब पहला विश्व युद्ध हुआ, तो अमेरिका को भी लगा कि उसे जल्द से जल्द एक बढ़िया सेमी-ऑटोमेटिक राइफल की जरूरत है.
इसके बाद बड़ी ही तेजी से इसे बनाने का काम शुरू कर दिया गया. इसे बनाने की असली शुरुआत हुई 1919 से, जब अमेरिकी सैनिकों ने अपनी मौजूदा एम1903 को बेकार बताया.
अमेरिका को एक ऐसी राइफल चाहिए थे, जिसके जरिए सैनिक जंग में जल्द से जदल गोली चला सके. जिसे चलाना आसान हो और जिसके निशान पक्का हो. ऐसी ही एक बंदूक फिर बनकर सामने आई 1924 में.
इसका डिज़ाइन काफी अलग था और यह दिखने में बाकी सेमी-ऑटोमेटिक राइफल्स से काफी अलग थी. इसका सबसे पहला मॉडल .30 कैलिबर की गोली वाला था. इसे टेस्ट किया गया मगर टेस्ट में सिर्फ इसका डिज़ाइन ही पास हो पाया.
परफॉरमेंस के मामले में अभी भी एम1 थोड़ी कमजोर थी. इसलिए इसे फिर से ठीक करने के लिए वापस भेजा गया. इसके बाद सीधा 1927 में एम1 का नया मॉडल सामने आया.
इस मॉडल को .27 कैलिबर के साथ बनाया गया. इतना ही नहीं ये एक गैस ऑपरेटेड मॉडल था. जब इसकी टेस्टिंग की गई, तो इसे काफी पसंद किया गया. हालांकि, इसे फिर से .30 कैलिबर के साथ बनाया गया.
इसके बाद भी एम1 का रास्ता पूरी तरह से साफ नहीं हुआ. 1936 तक इसकी कई बार टेस्टिंग की गई उसके बाद जाकर इसे पूरी तरह से एक सही राइफल माना गया.
1936 में एक बार जैसे ही एम1 सब टेस्ट में पास हुई इसे अमेरिकी सैनिकों को दिया जाने लगा. उस दिन से ये उनकी नई राइफल हो गई.