सुबह-सुबह चाय की चुस्की के साथ जब तक खबरों का मसाला न मिले, लगता ही नहीं कि सुबह की शुरुआत हुई है.
दुनिया डिजीटल हो रही है पर वो सुबह भारत में शायद देर से ही आए जब लोग अखबार पढ़ना छोड़ दें… आखिर अखबार से हमारा रिश्ता ही कुछ ऐसा है.
आज अखबार भले ही मसाला खबरों से भरे पड़े हैं पर एक वक्त था जब कलम की ताकत ने पूरे देश को एक कर दिया था.
आजादी की जंग में जहां महात्मा गांधी—सुभाष चन्द्र बोस और भगत सिंह का योगदान था. वहीं दूसरी ओर अखबारों की भूमिका भी कम नहीं रही. अंग्रेजों के जुल्म की दास्तां बताने वाले ये चंद पन्ने ही तो थे, जिन्होंने पूरे देश को एक सूत्र में जोड़े रखा.
आज हम अखबारों की शक्ल में जिन रंग बिरंगे कागजों को देखते हैं उससे बिल्कुल जुदा था भारत का पहला अखबार!
जब यह पहली बार लोगों के हाथों में आया तो उन्हें लगा कि कोई जादुई कालीन हाथ लग गया है, जो उन्हें देश—दुनिया की सैर करवा सकता है.
तो चलिए लाइफ में थोड़ा रिवर्स गियर लगाते हैं और लौटते हैं अखबारों के इतिहास में… जानते हैं कि कैसा रहा भारत में प्रकारिता का सफर–
अंग्रेजी में छपा था पहला अखबार
17वीं शताब्दी तक दुनिया प्रिटिंग मशीन से अवगत हो चुकी थी. लोग किताबें खिलते और पढ़ते थे. शताब्दी के मध्य तक यूरोप और अमेरिका जैसे देशों में कुछ साप्ताहिक पन्ने छपना शुरू हो गए थे.
इसमें उनके देश का राजनीतिक और सैन्य हालचाल होता था. आम आदमी की खबरों को कम ही अहमियत दी जाती थी.
वहीं दूसरी ओर भारत अंग्रेजों के अधीन हो चुका था. यहां किताबों में प्रेम कविताएं नहीं बल्कि इंकलाब के नारे खिले जाते थे. हालांकि अब तक कोई भी अखबार जैसे किसी शब्द तक से परिचित नहीं था!
ऐसे में उसकी ताकत का अंदाजा कोई भला कैसे लगता. हर व्यक्ति अपने—अपने स्तर पर आजादी पाने के लिए जूझ रहा था.
संघर्ष के इस दौर में पहली बार ईस्ट इंडिया कंपनी के भूतपूर्व अधिकारी ‘जेम्स ऑगस्टस हिक्की‘ ने अखबार निकालने का विचार किया…
चूंकि बिट्रेन में साप्ताहिक अखबार का चलन शुरू हो गया था. इसलिए उन्हें इसका अच्छी तरह से ज्ञान था.
कंपनी ने भी साथ दिया. उन्हें लगा कि अखबार के जरिए देश भर में वे अपने कामों की जानकारी पहुंचा कर लोगों का विश्वास हासिल कर सकते हैं.
आखिर बिना किसी परेशानी के हिक्की ने कोलकाता में पहली प्रिटिंग मशीन स्थापित की.
29 जनवरी 1780 में अखबार की पहली प्रति निकाली गई. इसके हैडर पर लिखा था ‘बंगाल गेजेट’. ‘बंगाल गेजेट’ की कॉपियां कंपनी के मुख्यालय पहुंचाई गईं और यहीं से पूरे बंगाल में पहुंची. यह भारत में छपने वाला पहला अखबार था. हालांकि इसकी भाषा अंग्रेजी थी. हाँ मगर इसने एक नए बदलाव की शुरुआत जरूर की.
चार पन्नों का यह अखबार आम लोगों के हाथों में भी नहीं आया!
कुछ महीनों बाद प्रतियां बढ़ाई गई और इसे शहर के मुख्य चौराहों, लाइब्रेरी, कॉलेज आदि में बंटवाया गया. लोग हैरान थे यह देखकर कि चार पन्नों में कितनी सारी तरह—तरह की बातें लिखी हैं.
हालांकि इन बातों में केवल कंपनी के अधिकारियों का जिक्र था. हिन्दुस्तान की आवाम की बातें न तो इसमें लिखी गईं और न पढ़ी गईं. इसलिए इसका आम लोगों के जीवन पर कोई खास असर नहीं पड़ा.
इसके बाद हिक्की ने अखबार के मूड में बदलाव किया और फिर कंपनी के अधिकारियों के जीवन के बारे में लिखना शुरू किया.
पहले—पहले तो यह प्रयास अधिकारियों को अच्छा लगा पर जब गवर्नर की पत्नी के दुराचरण के बारे में पहली खबर छपी तो हिक्की की मुश्किलें बढ़ गईं…
उन पर 500 रुपए का जुर्माना ठोककर चार महीने के लिए जेल भेज दिया गया! हिक्की को अपनी ही कंपनी और लोगों से यह उम्मीद नहीं थी.
जेल में चार महीने काटने के दौरान उन्होंने तय किया कि अब वे कंपनी के खिलाफ ही लिखेंगे.
इस बीच मेसियर बी मेस्नैक और पीटर रीड ने ‘इंडियन गेजेट’ के नाम से अखबार शुरू कर दिया था. यह कंपनी के व्यापार का प्रचार—प्रसार करने का जरिया बन गया.
आखिर में हिक्की जेल से बाहर आए और फिर कंपनी के नियमों के खिलाफ लिखना शुरू किया.
बस यहीं से हिक्की और ‘बंगाल गेजेट’ ने आम भारतियों के दिलों में जगह बनानी शुरू कर दी.
कंपनी अधिकारी परेशान थे क्योंकि उनकी पोल खुल रही थी और अचानक ही भारत में बदलाव की एक चिंगारी भड़क गई थी.
आखिर में हिक्की पर 50 हजार रुपए का जुर्माना ठोककर एक बार फिर उन्हें एक साल की जेल दे दी गई.
हिक्की एक साल बाद जेल से बाहर आए पर तब तक उनकी प्रेस इस हालत में नहीं थी कि वे आगे अखबार का प्रकाशन कर पाते.
आखिर में 23 मार्च 1782 को ‘बंगाल गेजेट’ की आखिरी प्रति निकली. इसमें हिक्की ने अपनी बात, कंपनी के जुल्म और भारतीय एकता की बात कही थी.
इसके बाद भारतीयों को साधन के लिए कंपनी ने साप्तिाहिक पर्चे छपवाना शुरू किए.
18वीं शताब्दी तक आते—आते देश अखबारों से परिचित हो चुका था. कहा जाता है कि 18वीं शताब्दी भारतीय पत्रकारिता की स्वर्णिम काल कहलाई.
1822 में राजा राम मोहन राय ने संवाद कौमुदी और मिरात-उल-अकबर की शुरुआत की. हालांकि यह फारसी भाषा का अखबार था पर यह पहला मौका था जब कोई हिन्दुस्तानी अखबार की दुनिया में उतरा था.
हालांकि भाषाई समस्या अब भी खड़ी थी. भारत की जनता को अब भी इंतजार था कि कोई उनकी भाषा में उनकी बातें लिखने वाला हो.
First Newspaper Published In India Was In English (Pic: madhyamam)
जनता के लिए निकला पहला ‘हिंदी अख़बार’
अंग्रेजी अखबार ‘बंगाल गेजेट’ भले ही बंद हो गया था, लेकिन इसके प्रकाशन से एक बात तो साफ थी कि यह भारत में जबरदस्त क्रांति ला सकता है.
भारतीय क्रांतिकारियों के लिए अखबार देश को एक करने का बड़ा माध्यम बन सकते थे. इस बात को कानपुर के साहित्यकार पंडित जुगल किशोर शुक्ल अच्छी तरह समझ रहे थे.
पंडित शुक्ल गांधी जी के विचारों पर चलने वाले व्यक्ति थे. वे चाहते थे कि पहले पूरा देश एक हो और फिर आजादी की जंग शुरू हो.
उन्होंने अपनी सारी जमापूंजी जमा करके अंग्रेजों से ही उनकी प्रिटिंग मशीन खरीदी. ब्रिटिश अधिकारियों को अंदाजा भी नहीं था कि वे अपने लिए ही गड्ढा खोद रहे हैं.
पंडित जुगल किशोर का उद्देश्य साफ था कि वे केवल कंपनी के अत्याचारों के खिलाफ लिखेंगे.
उनके अखबार में आम जनता की बातें होंगी. पर यह कैसे संभव था? क्योंकि अखबार की छपाई सरकारी आदेश के बिना नहीं हो सकती थी.
यदि सरकार के खिलाफ लिखते तो अखबार ही बंद हो जाता. इसलिए उन्होंने एक युक्ती सोची.
पंडित शुक्ल ने अखबार में ब्रज भाषा और हिंदी खड़ी बोली का इस्तेमाल करना तय किया. साथ ही उन्होंने अपनी लेखनी में बदलाव किया और बातों को सीधे—सीधे न कहते हुए थोड़ा घुमाकर लिखने की तैयारी कर ली. अब बारी थी अखबार का नाम तय करने की…
यह काम बड़ा मुश्किल था. पंडित शुक्ल ने बहुत विचार करने के बाद अपने अखबार का नाम ‘उदन्त मार्तण्ड’ रखा.
यह संस्कृत शब्द है जिसका हिन्दी में अर्थ है समाचार—सूर्य. 30 मई, 1826 में कोलकाता से पहली बार हिंदी समाचार पत्र ‘उदन्त मार्तण्ड’ की पहली प्रति प्रकाशित हुई.
First Hindi Newspaper Udant Martand (Pic: pramathesh)
अंग्रेजों को रास नहींं आई पत्रकारिता!
उदन्त मार्तण्ड के व्यंग्य पहले तो अंग्रेजों की समझ में नहीं आए, लेकिन जब उन्होंने अपने प्रति जनता का बदलाव महसूस किया तो वे समझ गए कि कहीं कुछ तो गलत है.
वहीं दूसरी ओर पंडित शुक्ल निर्भीक होकर कंपनी के खिलाफ लिखे जा रहे थे. लोगों को उनके कटाक्ष पसंद आ रहे थे. युवा उदन्त मार्तण्ड पढ़कर इंकलाबी हो रहे थे.
एक पुस्तक के आकार का चार पन्नों वाला उदन्त मार्तण्ड हर मंगलवार को प्रकाशित होता था. इसके प्रकाशन का लोगों को बेसब्री से इंतजार होता था. अखबार के 79 अंक ही प्रकाशित हो पाए थे कि डेढ़ साल बाद दिसंबर 1827 में इसका प्रकाशन बंद हो गया.
वजह यह थी कि अंग्रेजों ने अखबार की डाक ड्यूटी बढ़ा दी थी. उनके पास अखबार बंद करवाने के लिए कोई और ठोस वजह नहीं थी. अंग्रेजों की चाल ने पंडित शुक्ल की आर्थिक स्थिति खराब कर दी और पहला इंकलाबी अखबार बंद हो गया.
इसके आखरी अंक में पंडित शुक्ल ने लिखा कि—
‘आज दिवस लौं उग चुक्यौ मार्तण्ड उदन्त
अस्ताचल को जात है दिनकर दिन अब अन्त।’
वे अखबार के बंद होने से दुखी थे. आखिर एक बार फिर उन्होंने प्रयास कर एक छोटा सा अखबार शुरू किया पर वह भी कुछ ही महीनों में बंद हो गया!
कलम को ‘बंदूक’ बनाकर लड़ी आजादी की लड़ाई
उदन्त मार्तण्ड भले ही बंद हो गया था, लेकिन लोगों में अखबार के प्रति सजगता आ गई थी. अब गुमठियों पर बैठे लोग केवल एक—दूसरे का हालचाल नहीं पूछते थे बल्कि देश के मुद्दे पर बातें करने लगे थे.
इस बात को कई और साहित्यकारों ने समझा और फिर शुरू हुआ अखबारों का बाजार. 1829 में बंगदूत, 1845 में बनारस अखबार, 1850 में सुधाकर, 1867 में हरिश्चन्द्र मैग्जीन समेत दर्जनों अखबार शुरू हो गए थे. इनमें से कुछ साप्ताहिक और कुछ पाक्षिक रहे.
जिन प्रेस में यह अखबार छपा करते थे, उन्ही प्रेस में क्रांतिकारियों ने भारत की आजादी के लिए आम लोगों को एक जुट करने हेतु पर्चे छपवाना शुरू किया…
उन पर्चों को अखबारों के अंदर रखकर बांटा जाता था. इस तरह एक ओर जहां लोग देश—दुनिया का हाल जान रहे थे. वहीं दूसरी ओर अंदर ही अंदर आजादी पाने की चाह भी पैदा हो गई थी.
प्रत्रकारिता का विस्तार देखते हुए ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन, गायत्री परिवार जैसे बड़े संगठनों ने भी अपनी पत्रिकाएं प्रकाशित करवाना शुरू कर दिया.
इनमें धर्म की बातें होती थीं. भगवान की कथाएं लिखी जाती थीं, लेकिन भीतर के कुछ पन्ने भारत की आजादी के नाम ही होते थे.
चूंकि यह हिंन्दी में थे इसलिए अंग्रेजों को बहुत हद तक यह समझ नहीं आया कि आखिर जनता उनके खिलाफ एक कैसे हो रही है.
यह जाहिर है कि कोलकाता से पहली बार अखबारों का प्रकाशन शुरू हुआ, लेकिन सबसे तेजी से प्रकाशन उत्तर भारत में ही शुरू हुआ था. वहां हिन्दी के साहित्यकारों ने अखबारों के प्रकाशन में रूचि लेना शुरू किया.
लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, भीकाजी कामा, अवध बिहारी, मास्टर अमीर चंद ने अपने—अपने अखबार शुरू किए और खुले तौर पर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लिखना शुरू कर दिया.
अखबारों में क्रांतिकारियों द्वारा अंजाम दी गईं घटनाओं, अंग्रेजों के जुल्म और गांधी जी के आंदोलनों की खबरों को विस्तार से लिखा गया.
1919 में महात्मा गांधी ने खुद यंग इंडिया और नवजीवन साप्ताहिक अखबारों की शुरूआत की.
इसके बाद 1933 में हरिजन नाम से पत्रिका शुरू की. खासबात यह है कि इन अखबारों के लिए वे खुद लिखा करते थे.
कभी कभी सुभाष चंद्र बोस और पंडित नेहरू के लिखे आर्टिकल भी पढ़ने इनमें छपा करते थे.
आज भी कायम है विरासत
भारत की आजादी तक देश में अंग्रेजी, बंगाली, हिंदी, मराठी और उर्दु भाषाओं के लगभग 500 समाचार पत्र प्रकाशित होने लगे थे.
इनमें से ज्यादातर भारत की आजादी में सहयोग करने के लिए शुरू हुए थे. इसलिए आजादी मिलने के बाद इनका प्रकाशन कम हो गया और धीरे—धीरे यह बंद हो गए.
हालांकि कुछ अखबार आज भी अपनी साख बनाएं हुए हैं. जैसे 1878 में शुरू हुआ ‘दा हिन्दू’, आज भी देश के प्रमुख अखबारों में गिना जाता है.
इसके अलावा 1868 में बंगाल के दो भाईयों शिशिर कुमार घोष और मोती लाल घोष का प्रकाशित किया गया ‘अमृत बाजार पत्रिका’, 1838 को शुरू हुआ ‘बॉम्बे टाइम्स’ जिसे 1861 में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ का नाम दे दिया गया.
1927 में भारतीय उद्योगपति जी डी बिरला ने ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ की शुरूआत की. यह देश के वे प्रतिष्ठित अखबार हैं, जिन्हें आज भी हम पढ़ रहे हैं.
आजादी के बाद देश के विकास को देखते हुए उद्योगपतियों ने पत्रकारिता के क्षेत्र को नए करियर आॅप्शन के तौर पर विस्तार दिया.
Most Pre Independence Newspaper Still Exist In India (Pic: thestar)
आज हम जिस मीडिया हाऊस की बात करते हैं वह उस दौर की पत्रकारिता से बिल्कुल अलग है.
चटपटी खबरों और रंगीन विज्ञापनों से भरे हुए एक अखबार में दर्जन भर पन्ने होते हैं पर चार पन्नों के ब्लैक एंड व्हाइट अखबारों में लिखी गई खबरों ने जो क्रांति फैलाई वैसा फिर दोबारा नहीं हो सका…!
अखबारों के इस इतिहास को जानकर आपको कैसा लगा, कमेंट बॉक्स में हमें जरूर बताएं.
Web Title: History Of Newspaper In India, Hindi Article
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