सिखों के धार्मिक स्थलों में आनंदपुर साहिब का स्थान सबसे महत्वपूर्ण है. गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा यहां गुजारा था. सबसे खास बात यह है कि इस पवित्र जगह पर गुरु जी ने खालसा पंथ की स्थापना की थी. यही कारण है कि आनंदपुर साहिब को सिख धर्म में प्रमुख तीर्थ माना गया है.
आनंदपुर साहिब हिमालय पर्वत श्रृंखला के निचले इलाके में बसा हुआ है, जिसकी स्थापना सिखों के नौवें गुरु गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने की थी.
हर साल यहां लाखों श्रद्धालु अपनी मनोकामना लेकर आते हैं. गुरु नगरी की भव्य बनावट, सुंदरता और पहाड़ भक्तों का मन मोह लेते हैं.
ऐसे में आइए एक बार आनंदपुर साहिब के इतिहास के बारे में जान लेते हैं –
1689 में रखी गई थी नींव
इस जगह को गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने 1665 में बिलासपुर के शासक से खरीदा था.
उन्होंने इस जगह को चक नानकी नाम दिया, जोकि गुरु साहिब की माता जी का नाम था और आनंदपुर साहिब की स्थापना की.
धीरे-धीरे यह जगह पूरी तरह से समृद्ध हो गई और गुरु गोबिंद जी के समय में काफी लोकप्रिय हुई.
गुरु गोबिंद सिंह जी ने यहां अपने जीवन के 25 साल बिताए थे. उन्होंने लोगों को धर्म से जोड़ा और सिखी के बारे में बताया. उन्होंने संगतों को बताया कि किस तरह सिख गुरुओं और वीर योद्धाओं ने धर्म की खातिर अपनी जान वार दी.
वह हर साल बैसाखी के मौके पर यहां विशाल सम्मेलनों का आयोजन करते थे, जिसमें दूर-दराज से संगतें आती थीं और नतमस्तक होती थीं.
वास्तव में आनंदपुर साहिब की नींव 1689 में रखी गई थी.
आनंदपुर साहिब को बाहरी खतरों से बचाने के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी ने शहर के चारों ओर पांच किलों का निर्माण करवाया, जिसमें भूमिगत सुरंगें भी बनाई गई थीं.
इसी स्थान पर 1699 ई. में बैसाखी के दिन गुरु गोबिंद सिंह जी ने पंज प्यारों को अमृत छकाकर खालसा पंथ की स्थापना की थी.
जमीन का भुगतान कर खरीदी थी जमीन
सन 1665 के मध्य में गुरु तेग बहादुर साहिब कीरतपुर की तरफ आए थे, जो बिलासपुर से थोड़ी ही दूरी पर था. वह कुछ दिन कीरतपुर साहिब ही रुके हुए थे.
इसी बीच 27 अप्रैल 1665 को खबर मिली कि बिलासपुर के शासक राजा दीप चंद की मौत हो गई है. गुरु साहिब को खबर मिली और वह 10 मई को राजा दीप चंद की आखिरी प्रार्थना में बिलासपुर पहुंचे.
बिलासपुर का शासक गुरु में आस्था रखने वाला सिख था. गुरु जी वहां 13 मई तक रुके और उसके बाद वहां से वापिस अपने घर आने की योजना बनाई.
ये बात जानकर राजा की पत्नी रानी चंपा काफी उदास हुईं. उन्होंने गुरु जी की माता नानकी जी से आग्रह किया कि वह गुरु जी को यहीं रुकने के लिए कहें, ताकि वह बिलासपुर से दूर न जा सकें.
माता नानकी ने गुरु जी को मना लिया. यह सुन रानी बहुत खुश हुईं और उन्होंने गुरु जी को कुछ जमीन देने का फैसला किया, ताकि गुरु जी यहीं अपना नया शहर बसा सकें.
गुरु साहिब वहां नया शहर बसाने के लिए राजी भी हो गए. उन्होंने रानी से लोधीपुर, मियांपुर व सहोटा के बीच की जमीन तो ले ली, लेकिन वह उसे दान में स्वीकार नहीं करना चाहते थे. लिहाजा गुरु जी ने जमीन दान में लेने से मना कर दिया.
उन्होंने रानी से कहा कि वह तभी यह जमीन लेंगे, जब आप इसका उचित मूल्य लेंगी.
रानी चंपा ने गुरु जी की इस बात को झिझकते हुए मान लिया और गुरु जी ने उन्हें जमीन का भुगतान कर दिया.
इसके बाद गुरु जी ने यहां चक नानकी गांव बसाया.
मुगलों के लिए आसान नहीं था आक्रमण करना
गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने जिस जगह पर चक नानकी गांव बसाया था, उसे उन्होंने बेहद सोच-समझकर चुना था. यह जमीन माखोवाल के प्राचीन गांव के पास थी.
चक नानकी गांव के एक तरफ तेज धारा में बहती सतलज नदी थी, तो वहीं दूसरी तरफ पहाड़ और जंगल थे, जोकि ध्यान-साधना करने के लिए सबसे बेहतर और उपयोगी जगह थी.
दूसरा, उस वक्त औरंगजेब दिल्ली के तख्त पर आसीन था. ऐसे में जगह का चुनाव कुछ इस प्रकार से करना था कि दुश्मन वहां किसी भी प्रकार से पहुंच ही न पाए.
यह जमीन दुश्मनों से भी सुरक्षित थी और यहां आक्रमण करना इतना आसान नहीं था. इससे पहले 1634 और 1635 में अमृतसर और करतारपुर में मुगलों के आक्रमण को झेल चुके थे.
इन लड़ाइयों में गुरु तेग बहादुर साहिब ने भी हिस्सा लिया था. हालांकि कीरतपुर साहिब मुगलों के आक्रमण से बचा हुआ था, लेकिन कोई भरोसा नहीं था कि किस वक्त यहां भी मुगल आक्रमण कर दें.
गुरु तेग बहादुर जी ने चक नानकी गांव के लिए जिस जमीन का चयन किया था, उससे रानी चंपा काफी प्रभावित हुई थीं. चक नानकी गांव जिस जमीन पर बसाया गया था, वह बेहद उपजाऊ थी. वहां साल में दो फसलों को आसानी से उगाया जा सकता था. इसलिए वह एक नया आत्मनिर्भर राज्य बनने में सक्षम था.
इससे बिलासपुर के लोग काफी खुश थे, क्योंकि यह गांव बिलासपुर और मुगलों के क्षेत्र के बॉर्डर पर बसाया गया था और इस गांव के यहां बसने का मतलब था कि अब बिलासपुर के लोगों को पहले से ज्यादा सुरक्षा मिल जाएगी.
गुरु जी के इस फैसले को रानी चंपा के साथ-साथ बिलासपुर में रहने वाले लोगों और अन्य सिखों ने खूब सराहा था.
'होला महल्ला' है खास पहचान
आनंदपुर साहिब को गुरु साहिबान श्री गुरु हरिगोबिंद साहिब, श्री गुरु हरिराय जी, श्री गुरु हरिकिशन जी, श्री गुरु तेग बहादुर जी और श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने चरण कमलों से पवित्र किया है.
सन 1689 ई. में श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने यहां एक नए नगर की स्थापना की. भाई चउपत ने यहां श्री आनंद साहिब का पाठ किया. शायद इसी कारण इसका नाम आनंदपुर, फिर श्री आनंदपुर साहिब हो गया.
इसी प्रकार, आनंदपुर साहिब में हर साल होली के मौके पर विशाल मेला लगता है, जिसे होला महल्ला कहते हैं. इस पर्व की शुरुआत गुरु गोबिंद सिंह जी ने की थी. यह होली का ही बदला हुआ रूप है.
इस दौरान यहां वीरता दिखाने वाले कई तरह के करतब देखने को मिलते हैं. साथ ही धार्मिक सम्मेलनों का भी आयोजन किया जाता है.
Web Title: History of Sri Anandpur Sahib, Hindi Article
Feature Image Credit: round.glass